स्वतंत्रता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की महिलाएं

उत्तराखण्ड की विशिष्ट भौगोलिक सांस्कृतिक परिस्थितियां होने के कारण यहां की महिलाएं देश के अन्य भागों की महिलाओं की तुलना में अधिकतः कृषि कार्यों में जुड़ी रही हैं. परम्परागत रूप से पहाड़ों की अर्थव्यवस्था की रीड, महिलाएं रही हैं, इस कारण से उन्हें शिक्षा, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में सक्रिय भाग लेने का अवसर नहीं मिला. इसके लिए सामाजिक जातीय व्यवस्था की बंद दीवारें भी उत्तरदायी प्रतीत होती हैं. सन 1930 के राष्ट्रव्यापी जन जागरण व आन्दोलन के प्रभाव से पहली बार समूचा पर्वतीय समाज भी प्रभावित हुआ – फलस्वरूप इस युग से महिलाओं की सामाजिक स्थिति बदलने लगी थी.

उत्तराखण्ड में इस दिशा में सन 1921 ई. महात्मा गांधी की पहली कुमाऊं यात्रा के समय यहां की महिलाओं ने राजनैतिक- सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लिया. इसके कारण ही गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर श्रीमती हरगोविंद पन्त और बच्ची देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने अल्मोड़ा में अपना संगठन बनाया. यह पर्वतीय क्षेत्र में अब तक के इतिहास में पहला महिला संगठन था. इस संगठन के आरंभिक कार्यक्रम पर टिप्पणी करते हुए साप्ताहिक ‘स्वाधीन प्रजा’ ( 16 अप्रैल 1930 ) ने लिखा था कि

झन्डा सत्याग्रह ( 1930 ) के दौरान पुलिस संघर्ष होने के कारण मोहन जोशी और शांति लाल के घायल होने के बाद श्रीमती कुंती देवी वर्मा, मंगला देवी, भागीरथी, जीवंती देवी ठकुरानी आदि महिलाओं का जत्था अल्मोड़ा नगरपालिका भवन पर तिरंगा फहराने के लिए प्रयत्नशील था. अतः हथियार बंद युवकों के साथ चल रही महिलाओं ने तिरंगा फहरा कर, जन संघर्ष का आह्वान किया.

राजनैतिक क्षेत्र में महिलाओं की इस प्रथम सफलता के साथ ही नैनीताल में भी महिलाओं ने नमक सत्याग्रह में पुलिस उत्पीड़न के प्रहार सहन किये. नैनीताल में महिलाओं ने जानकी देवी, भागीरथी देवी, विमला देवी, पद्मा जोशी और शकुन्तला आदि संभ्रांत महिलाओं ने कुमाऊं क्षेत्र में अभूतपूर्व जागृति लाने का प्रयत्न किया. कुमाऊं में महिला संगठन के कार्यों पर प्रकाश डालते हुए अखबार ‘स्वाधीन प्रजा’ ( अल्मोड़ा ) ने ( 28 जनवरी 1931 ) लिखा कि सन 1931 में बागेश्वर में संपन्न महिला सम्मेलन में महिलाओं के सर्वांगीण विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया. इस अवसर पर महिलाओं ने विदेशी वस्त्रों की होली जला कर खादी को अपनाया. खादी की लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने पद यात्राएं की. पर्वतीय महिलाओं ने अपने कार्यक्रमों को राजनीतिक विषयों पर ही केन्द्रित न करके सामाजिक सुधार कार्यक्रम को भी प्रमुखता के साथ अपनाया. फलस्वरूप सन 1932 में कुमाऊं सुधार आन्दोलन में महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लेकर छूवा-छूत व प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विरोध किया. साथ ही जनता से इसे त्याग कर नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ते रहने का आह्वान किया था.

पर्वतीय अंचल में समाज सुधार के इन प्रयत्नों से शिल्पकारों को मंदिर व पनघटों में प्रवेश दिलाकर उन्हें सामजिक न्याय दिलाने का प्रयत्न किया गया. इस सुधारवादी सामाजिक प्रयत्न के समान्तर ही महिलाओं ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन में हिस्सेदारी निभाते हुये विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना तथा शराब की भट्टियों पर पिकेटिंग प्रारंभ की. फलस्वरूप कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों में मंगला देवी, पद्मा जोशी, कुन्ती वर्मा, जीवंती देवी, भागीरथी, विशनी देवी, शोभा मित्तल आदि को प्रशासन ने बंदी बनाकर जेल भेजा. कुछ समय बाद उन्हें बिना शर्त रिहा भी कर दिया गया.

उत्तराखण्ड के एक हिस्से गढ़वाल में महिलायें कुमाऊं की अपेक्षा कम जागरुक थी. विशेषकर राजनीतिक प्रश्नों पर उनकी रूचि नहीं के बराबर थी. सन 1920 के बाद बेगार व वन कष्टों पर पहली बार यहां की महिलाओं ने अपने दारुण व कष्टप्रद जीवन की गीतों के माध्यम से मुखरित किया.

‘ रेमोती घसियारी रेमोती मालू न काटा’

इसी तरह बेगार के कष्टों पर महिलाओं के उत्पीड़न पर टिप्पणी करते हुए गढ़वाल मासिक ( 1907 ) ने लिखा था कि ‘ अहा यह कैसी आफत है. अपनी बारी पूरी करने के लिए किसको भेजें. इधर प्रधान धमकाता है, उधर चमासी आँखे दिखाता है.’ अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे कुमाऊं प्रदेश में ऐसी दुखनी-विधवा औरतें भी बेगार में पकड़ी जाती हैं. अंग्रेजी राज के लिये इससे अधिक लज्जाजनक और क्या बात हो सकती है, जहां औरतों के ऊपर भी ऐसा अत्याचार होता है. यद्यपि आंग्ल सत्ता के इस उत्पीड़न के बाद भी महिलायें आन्दोलन के लिए उद्वेलित नहीं हो सकी, तथापि उनमें जागरण के स्वर उभरने लगे थे.

नमक सत्याग्रह के दौरान महावीर त्यागी के बाद उनकी पत्नी शारदा देवी ने महिलाओं की संगठित करते हुए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लिया. देहरादून अंचल में कमला नेहरू और उमा नेहरू के निरंतर आगमनों और उनके कार्यक्रमों से प्रभावित होकर अनेक महिलाएं राष्ट्रीय राजनीति के विषयों पर रूचि लेने लगी. दून घाटी से ‘ चल महिला जागृति’ का सन्देश धीरे – धीरे गढ़वाल के भीतरी अंचल को भी सिमित रूप से प्रभावित करने लगा. इस प्रयास में आर्य समाजी नेता नरदेव शास्त्री और लाला छज्जूराम की पुत्री सरस्वती देवी का नाम उल्लेखनीय है.

फलस्वरूप नमक सत्याग्रह की समाप्ति के बाद महिलाओं ने खेती के काम के समय से समय निकालकर एक स्वर में महिलाओं के विकास के लिए शिक्षा के अतिरिक्त रोजगार मूलक शिक्षा संस्थायें खोले जाने की मांग की. साथ ही नशाबन्दी आंदोलन में जनता व प्रशासन से सहयोग की प्रार्थना की गई.

गढ़वाल में महिला जन- जागरण के विकास के कार्यक्रम के अंतर्गत 10 अक्टूबर 1939 ई. को नन्दप्रयाग, चमोली, गढ़वाल, में आयोजित जागृत महिला समाज की बैठक में मुख्य रूप से नशाबंदी, गृह – कुटीर उद्योगों की पुर्नस्थापना करके महिलाओं को घर बैठे रोजगार सुलभ कराकर परम्परागत कुटीर उद्योग जो आंग्ल प्रशासन के विस्तार के साथ ही नष्ट हो गये हैं, उन्हें पुनर्जीवित करने की मांग की गयी. गह्द्वाल के इस प्रथम महिला सम्मेलन के अंत में महिला समाज की मंत्री मालती देवी को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर इसकी प्रति शासन को भेजकर – नशाखोरी को बढ़ावा देने के लिए शासन व स्थानीय प्रशासन की कटु आलोचना की थी.

एक अन्य प्रस्ताव में जनता से काश्तकारी व शिल्प उद्योग को सामूहिक रूप से अपनाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया गया. महिला समाज के इस रचनात्मक कार्यों से समाज में एक नये जागरण व् उत्साह का संचार हुआ. फलस्वरूप प्रौढ़ शिक्षा व गृह शिल्प उद्योग के क्षेत्र में महिलाओं की अभिरुचि बढ़ी.

गढ़वाल महिला समाज के इस कार्यक्रमों की श्रृंखला के अंतर्गत पुनः 1 मई 1940 ई. को श्रीनगर गढ़वाल में जागृत महिला समाज का अधिवेशन आयोजित किया गया. अधिवेशन में बहु –विवाह, वृद्ध विवाह जैसी कुप्रथाओं का विरोध करते हुए इसके विरुद्ध प्रशासन से कानूनी कार्यवाही करने की मांग उठायी. सम्मलेन में पारित एक अन्य प्रस्ताव में महिलाओं के लिये पाठशाला के साथ ही प्रसूति महिलाओं के लिए महिला चिकित्सालय खोलने की मांग की गयी.

जागृत महिला समाज के इन प्रयत्नों के फलस्वरूप ही कुछ समय के लिए पौड़ी व नन्दप्रयाग में महिलाओं के आक्रोश को देखते हुए प्रशासन ने शराब की दुकानें बंद कर दी थी. दूसरी ओर स्वयं जागृत महिला समाज ने निराश्रित महिलाओं के लिए तकनीकी शिक्षण संस्था खोलकर उन्हें ऊन व गलीचा बनाने का प्रशिक्षण दिया.

गढ़वाल में जागृत महिला समाज के कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने में मारग्रेट चौफीन, श्रीमती विद्या धर्मा ( प्रधानाचार्य विद्यापीठ प्रयाग ) तथा कु. ई. वी. स्तेलार्ट की उल्लेखनीय भूमिका रही. इस प्रबुध्द महिलाओं ने समय – समय पर जागृत महिला समाज की बैठकों में भाग लेकर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की स्थिति एवं उनकी भूमिका में गढ़वाली महिलाओं को अवगत कराया. इसके अतिरिक्त कन्याओं को लड़कों के समान प्राथमिकता के आधार पर शिक्षित कराने के लिए प्रेरित किया. प्रबुद्ध महिलाओं तथा पुरुषों से मिल रहे सहयोग के फलस्वरूप ही सन 1949 में जागृत महिला समाज द्वारा उद्योग मंदिर नाम से एक औद्योगिक संस्था को जन्म दिया गया. इसके माध्यम से महिलाओं की विधिवत औद्योगिक प्रशिक्षण की व्यवस्था सुलभ हो गई थी.

गढ़वाल में महिलाओं के इस आरंभिक जन – जागरण काल में विभिन्न क्षेत्रों में जिन महिलाओं ने अग्रणी रूप से कार्य किया उनमें प्रमुख रूप से कमला उनियाल, कुंती देवी नौटियाल, लीला देवी साह, मालती देवी वैष्णव, रेवती देवी, चंदोला, रेवती देवी खंडूरी, रेवती देवी उनियाल, साम्भी देवी, चन्द्रकला, सतेश्वरी देवी तथा वैष्णव बहिनों ललिता वैष्णव/ चंदोला ( गढ़वाल की पहली स्नातकोत्तर महिला ) शांति चंदोला, कुसुम तथा विमला चंदोला ( सभी विशम्भर दत्त चंदोला की बेटियाँ ) का नाम उल्लेखनीय है.

राष्ट्रीय स्तर पर 1940 ई. के पंचायत चुनावों में पहली बार नन्द प्रयाग से महिला प्रत्याशी पंचायत प्रमुख बनी. नैनीताल में कुंथी देवी वर्मा के नेतृत्व में महिलाओं ने जंगलात विभाग को आग लगाकर नष्ट कर दिया था. गढ़वाल सम्भाग में इस अवधि में महिलाओं ने पुरुषों को भूमिगत कार्य करने में सहायता देकर पुलिस प्रशासन से स्वयं टक्कर ली थी. इस महिलाओं में सत्यभामा नेगी, श्यामा वत्स बच्चीदेवी डोभाल का नाम उल्लेखनीय है. गाँव सरसू पट्टी असवालस्यू, पौढ़ी गढ़वाल में जन्मी सत्यभामा ने गांव –गांव घूमकर ब्रिटिश शासन व उत्पीड़न के विरोध में महिलाओं को संगठित करने का प्रयत्न किया.

चमोली तहसील के गांव बगथल में अगस्त 1890 ई. में जन्मी श्यामा वत्स ने अपने इकलौते पुत्र ब्रज भूषण वत्स की पीठ पर बैठकर गांव – गांव का भ्रमण किया. इस अवधि में श्यामा वत्स ने अगस्त मुनि, चमोली, गुप्तकाशी, जोशीमठ आदि स्थानों में भ्रमण और सम्पर्क अभियान के तहत जनता से सरकार विरोधी प्रदर्शनों में भाग लेने की अपील की. अपने परम्परागत स्वभाव के लिए चर्चित श्यामादेवी जब जनता को आन्दोलन में कूदने के लिए कहतीं और यदि कोई पुरुष ऐसा करने में असमर्थता व्यक्त करना तो श्यामा देवी ललकार कर उसे चूड़ियां पहनने को कहती. अन्तः श्यामा देवी की बढ़ती गतिविधियों से चिंतित होकर प्रशासन ने उन्हें घर पर ही नजरबन्द कर दिया.

पौढ़ी क्षेत्र के कांग्रेसी नेता सकलानन्द डोभाल की गिरफ्तारी के उपरान्त उनकी पत्नी बच्ची देवी ने सन 1940 ई. से 1947 ई. तक महिलाओं को संगठित कर उन्हें आंग्ल सत्ता के विरुद्ध अद्वेलित किया. पर्वतीय महिलाओं ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस क्षेत्र में शराब बंदी आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई.

पुरवासी के दसवें अंक में प्रकाशित योगेश धस्माना का लेख उत्तराखण्ड के जन-जागरण में महिलायें.

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Girish Lohani

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