मैं दूटी हुई लकड़ी की एक पुरानी बेंच पर थोड़ा थकी हुई सी बैठ गयी. मेरे सामने हिमालय की काफी लम्बी श्रृंखला है जिसे देखते हुए मैंने अपनी थकावट थोड़ा कम की. अचानक मेरा ध्यान एक कमरे के अंदर गया जहाँ से एक आदमी मुझे घूर रहा है. शायद वो भी हैरान होगा कि मैं अकेले ही इस वीराने में कैसे आ गयी.
उसके इस तरह घूरने से मुझे याद आया कि में पिछले 4 घंटे से वाॅक करते हुए और लगभग 14-15 किमी. रास्ता तय करके यहाँ पहूँच गयी हँ जबकि मैं सुबह घर से सर्दियों की गुनगुनी धूप में छोटी सी वाॅक करने के लिये ही निकली थी और फिर चलते-चलते यहाँ चीनापीक पहुंच गयी जो नैनीताल से 14-15 किमी. की दूरी पर है.
पूरे रास्ते में मुझे सिर्फ कुछ महिलायें सर में घास के गट्ठर लादे आती-जाती दिखायी दीं. एक ने तो मुझसे पूछ भी लिया था – “यहाँ इस जंगल में अकेले क्या कर रही हो?” उनके अलावा कोई भी नहीं दिखा.
वो आदमी कमरे से बाहर आया और थोड़ा झिझकते हुए पूछा – “आप कहाँ से आ रही हो? यहाँ क्या काम है आपको?” मैंने हिमालय की ओर देखते हुए ही जवाब दिया – “बस ऐसे ही ट्रेक करते हुए आ गयी.” उसने फिर कहा – “अब तो इस रास्ते में कोई भी नहीं आता है. बस गर्मी के दिनों में कभी कुछ लोग आ जाते हैं पार्टी करने के लिये.”
अब सवाल पूछने की बारी मेरी थी सो पूछ लिया – “आप यहाँ अकेले रहते हो?” घर के बाहर पड़ी सूखी पत्तियों को हटाते हुए उसने जवाब दिया – “ये फाॅरेस्ट का लाॅग हाउस है. मैं फाॅरेस्ट में ही काम करता हूँ. मेरा घर नजदीक ही है इसलिये रात को अपने घर चला जाता हूँ और सुबह को वापस.”
इतनी बात करके उसने मुझसे चाय के लिये पूछा. इस वीराने में इतनी सर्दी में कोई चाय के लिये पूछे तो इससे बड़ी क्या बात हो सकती है. इसलिये मैंने हाँ में सर हिला दिया और वो मिट्टी के चूल्हे में चाय बनाने चला गया.
इस जगह को चीनापीक कहने की कई-कई वजहें हैं जिसमें से एक तो बेहद उटपटांग सी है. कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ से चीन दिखायी देता है इसलिये इसे चीनापीक कहते हैं और कुछ लोगों का कहना है कि चीना बाबा ने यहाँ तपस्या की थी इसलिये उनके नाम पर ही इसे चीनापीक कहते हैं. असलियत क्या है तो मुझे भी नहीं पता पर हाँ यहाँ से चीन नहीं दिखायी देता है.
यहाँ अंग्रेजों द्वारा बनाया गया एक मैप भी दिखा जिसमें हिमालय की पूरी रेंज को दिखाया गया है. ये अभी भी बचा हुआ है इसकी खुशी है.
आजकल हिमालय बहुत खूबसूरत दिखायी दे रहा है. मैं फिर से हिमालय देखने में व्यस्त हो गयी और वो सज्जन मेरे लिये चाय बना लाये. चाय पीते हुए उनके साथ थोड़ी बातें और की फिर मैं दूसरे रास्ते से शहर में वापस आ गयी इस रास्ते से नैनीताल का एक अलग ही नजारा दिखा.
विनीता यशस्वी
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
आह! 1978 मेें उछल कूद करते हुए मैंने यह वाक की थी। आई आई टी - कानपुर की फिज़िकल सोसायटी की ओर से रानीखेत-नैनीताल-जिम-कॉर्बेट भ्रमण। ठंड थी, पर महीना याद नहीं आ रहा। फरवरी या मार्च रहा होगा। शायद वाई एम सी ए यूथ होस्टल में ठहरे थे। टीम में चीनापीक सबसे पहले मैं ही पहुँचा था, ट्रैक से हटकर पत्थरों पर चढ़ते-कूदते हुए। कुछ दोस्त नाराज़ थे कि मैं ज्यादा उछल रहा था। याद है कि पहली शाम ऑब्ज़रवेटरी गए थे और पहली बार शनि के रिंग्स देखे थे। एक दो धुँधले हो चुके फोटोग्राफ अभी भी कहीं पड़े होंगे।