मैं जौलजीबी के झूला पुल से गुजरते हुए नेपाल की सीमा से जुड़े हुए गांव की ओर बढ़ रही हूं, तो दो दोनों तरफ की सांझी संस्कृति को बेहद करीब से देख रही हूं. नदी के एक तरफ नेपाली गीत, नृत्य एवम् संगीत चल रहा है, तो नदी के दूसरी ओर कुमाऊनी गीत, संगीत के स्वर दूर घाटियों में बिखर रहे हैं. दोनों तरफ के लोग एक दूसरे के मेले के आयोजन में बड़ी आसानी से भाग ले रहे हैं. ऐसा लग ही नहीं रहा कि यहां दो देश हैं जो अपनी लगभग मिलती-जुलती सांझी संस्कृति के साथ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. इस इलाके में भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का पुराना रिश्ता है. इस रिश्ते के चलते आज भी दोनों देशों की बेटियां मेले के बहाने अपनों को भेंटने आती-जाती रहती हैं. (Plight Confluence Holy Rivers)
उत्तराखण्ड राज्य में कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले में जौलजीबी नाम से एक छोटा सा बाजार है. जौलजीबी नेपाल की सीमा से लगा हुआ क्षेत्र है. यहां नेपाल क्षेत्र सीमा के गावों और भारत सीमा को जोड़ता हुआ एक झूला पुल है. “जौलजीबी” एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है. यह स्थान गोरी और काली तथा सरयू नामक तीन नदियों का संगम स्थल होने के कारण प्रसिद्ध है. काली नदी सरयू की सबसे बड़ी सहायक नदी है, इसके बाद धौलीगंगा, गोरी, चमेलिया, रामगुण, लाढिया आदि नदियां भी सहायक हैं.
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इसी संगम स्थान पर हर साल दस दिवसीय ‘जौलजीबी मेले’ का आयोजन होता है. मेला मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर आयोजित किया जाता है. अभिलेखों के अनुसार, इस मेले का आयोजन पहली बार 1 नवंबर 1914 को हुआ था. प्रसिद्ध जौलजीबी के मेले को प्रतिवर्ष 14 नवम्बर ‘बाल दिवस’ के अवसर पर आयोजन किया जाता है. जौलजीबी के मेले को प्रारंभ या आयोजित करने का सर्वप्रथम सारा श्रेय पाल ताल्लुकदार गजेंद्रबहादुर पाल को जाता है, जो कि अस्कोट के ताल्लुकदार थे. उन्होंने इस मेले को 1914 में आरम्भ किया था. हालांकि उस समय यह मेला धार्मिक रूप से आयोजित हुआ था लेकिन धीरे-धीरे इस मेले का मुख्य रूप व्यवसायिक बन गया. चीनी आक्रमण से पहले यह मेला उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्ध मेला था. इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारी भी बिलकुल सामान रूप से भागीदार होते थे.
जौलजीबी में काली-गोरी नदी का संगम स्थल और शिव का प्राचीन मंदिर स्थित है. एक धार्मिक मेले से व्यापारिक मेले में रूपांतरित जौलजीबी मेले का यह सबसे मजबूत पक्ष नजर आता है. नेपाली एवम् कुमाऊनी भाषा का सम्मिश्रण भी देखने को मिलता है. कुछ कुमाऊनी नदी के पार नेपाल की ओर अपना व्यवसाय कर रहे हैं तो कुछ नेपाली भारत के इस ओर व्यवसाय कर रहे हैं. एक समय पर लोग मेलों से ही अपनी जरूरत भर का सामान खरीद लेते थे बाकि सालभर अपनी खेती किसानी पर निर्भर रहते थे. कृषि के यंत्रों, खाने-पहनने का सामान आदि इन्हीं मेलों से खरीदा जाता था. जौलजीबी के मेले में तराई-भाबर के लोग बर्तन, परात, गगरे आदि लाया करते हैं. तिब्बत, जोहार, दारमा, व्यांस के व्यापारी सांभर खाल, चँवर- पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों और ऊनी वस्त्र जैसे— दन-कालीन, चुटका, थुलमा, ऊनी पंखी आदि का व्यापार करते थे. फिलहाल मुझे इस बाजार में इलेक्ट्रिक सामान ज्यादा दिख रहा है. कहते हैं कि पहले नेपाल का घी और शहद जौलजीबी मेले में लोकप्रिय था, साथ ही हुमला-जुमला के घोड़े भी ख़ूब ऊंचे दाम पर बिकते थे. मेले में हल, ठेकी, डोके, दाथुली का भी अच्छा व्यापार हुआ करता था.
कुछ अभिलेखों के अनुसार जौलजीबी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ जिसके कारण तिब्बत का सामान आना बंद हो गया और ऊन के व्यापार पर इसका उल्टा प्रभाव पड़ने लगा. भारत-चीन युद्ध के बाद तिब्बत का सामान इस मेले में नेपाल के रास्ते आता है, जो जौलजीबी मेले के मुख्य आकर्षण में से है. लेकिन मैं यहां सिर्फ मेले की बात नहीं कर रही हूं; मेले के बाद भी, अभी जहां मैं खड़ी हूं उस जगह की बात कर रही हूं. झूले से उतरकर मुझे घाट पर जाना था. अतः मंदिर के प्रांगण में विशाल वृक्ष के नीचे से होते हुए मैं घाट पर आ गई हूं.
स्कन्दपुराण के अनुसार मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी नदी के संगम पर स्नान कर आगे बढ़ना चाहिए, इसलिए इस स्थान का महत्व और भी बढ़ जाता है. मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है. लेकिन यह क्या? घाट की ओर जाते हुए पैर बचा कर निकलना पड़ रहा है. पता नहीं कब मानव मल में पैर धंस जाए? घाट में उतरने के लिए कोई सीढ़ी नहीं बनी है, ना कोई चेन लगी है. सिर्फ एक मोटी पत्थरों की दीवार है जिसमें से आप चाहें तो संगम को बिना छुए दर्शन कर सकते हैं. आखिर यह घाट इतना उपेक्षित क्यों है? क्या सिर्फ मेले के कारण या स्थानीय अव्यवस्थता के कारण? यह घाट मानव मल, दुर्गंध, प्लास्टिक एवम् पॉलिथीन से भरा पड़ा है. क्यों इस ऐतिहासिक जगह की इतनी दुर्गति हो रही है? जहां पर गोरी और काली नदी मिल रही हैं, जो जगह कभी ऋषि-मुनियों की तपस्थली हुआ करती थी, आज वह इतनी उपेक्षित क्यों है?
हालांकि देर सबेर की एक मोटी बारिश इस गंदगी को बहा ले जायेगी और प्रशासन का कार्य आसान हो जायेगा, किंतु यह सोचकर दुख हो रहा है कि क्या ये पौराणिक जगह सिर्फ मेले चौपाटी और बाजार तक सीमित हो गयी है, कि खाया, पिया, हगा और निकल लिए या इनका कोई धार्मिक, आध्यात्मिक महत्व भी रह गया है. इन गू से भरे किनारों पर खड़े होकर हम किस मुंह से नदी को प्रणाम करें?
नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं छपती रहती हैं.
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