इतिहास को क्यों पढ़ा जाये?

उत्तराखंड का इतिहास – भाग 1

-गिरीश लोहनी

इतिहास को पढ़ने से पूर्व दो महत्त्वपूर्ण सवाल यह आते हैं कि इतिहास क्या है और इतिहास को पढ़ा क्यों जाये? इतिहास प्रत्येक पल में घटी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का संग्रह है, जिसे सीखने और तर्क संगत बातचीत के लिये पढ़ा जाना आवश्यक है. जैसे आप उत्तराखंड के किसी युवा को ग्रामीण क्षेत्र में स्व-रोजगार हेतु प्रेरित करना चाहते हैं तो आपने उसे इतिहास से हर्सिल घाटी के पहाड़ी विल्सन (फैड्रिक विल्सन) से अवगत कराना चाहिये जिसने उन्नीसवीं सदी में ग्रामीण क्षेत्र में कार्य कर अपने नाम के सिक्के तक जारी कराये थे.

उत्तराखंड का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से प्रारंभ होता है जिसका वर्णन आधुनिक काल तक के इतिहास में पाया जाता है. (प्रागैतिहासिक काल इतिहास का वह काल खंड हैं जिसके लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते हैं.) उत्तराखंड के इतिहास के विषय पर जानने से पहले सर्वप्रथम इसके ऐतिहासिक स्रोत के विषय में जानकारी आवश्यक है.

सामान्य रुप से इतिहास को जानने हेतु दो प्रमुख स्रोत माने गये हैं. स्रोत का अर्थ उन चीजों से है जिनसे हम किसी काल विशेष में घटित घटनाओं की जानकारी जुटा सकते हैं या अनुमान लगा सकते हैं. पहला स्रोत  साहित्यिक स्रोत तथा दूसरा स्रोत पुरात्विक स्रोत कहलाता है. साहित्यिक स्रोत जैसे धार्मिक साहित्य, लोक साहित्य,विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत आदि. दूसरा पुरात्विक स्रोत जैसे अभिलेख, मुद्राएं, भवन, मूर्ति, मिट्टी के बर्तन चित्रकला आदि. उत्त्तराखंड के इतिहास का अध्ययन भी इन्ही दो स्त्रोतों के आधार पर किया जाता है.

उत्तराखंड के इतिहास के विषय में अनेक साहित्यिक स्रोत उपलब्ध हैं. प्रायः सभी धर्म के धार्मिक ग्रंथों में उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन मिलता है. ऋग्वेद में सबसे पहले उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन मिलता है. ऋग्वेद के अतिरिक्त ऐतरेव ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण में भी उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन मिलता है. महाभारत के आदिपर्व, सभापर्व तथा वनपर्व खंड से उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन मिलता है. स्कंदपुराण में भी उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन है. बुद्ध के जीवन से संबंधित जातक कथाओं में उत्तराखंड क्षेत्र का वर्णन है. बौद्ध ग्रंथों ‘महावंश’ तथा ‘दिव्यावदान’ में भी उत्तराखंड क्षेत्र उल्लेखित है. प्रसिद्ध जैन ग्रंथ ‘वृहदग्रंथ’ भी उत्तराखंड से संबंधित धार्मिक साहित्य स्रोत है.

गैर धार्मिक साहित्य या धर्मनिरपेक्ष साहित्य में कालीदास की ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ व ‘मेघदूत’ में, कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में, पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ में, विशाखदत्त की ‘देवीचंद्रगुप्तम’, राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में उत्तराखंड का वर्णन मिलता है. स्थानीय गैर धार्मिक साहित्य में पवार वंशीय कवि भरत और मेधाकर द्वारा लिखी गयी क्रमशः ‘मानोदयकाव्य’ और ‘रामायणप्रदीप’ मुख्य हैं. पवार शासक फतेहशाह के दरबारी कवि रामचंद्र कंडियाल द्वारा लिखित ‘फतेहप्रकाश’ (फतेहशाह यशोवर्णन काव्य) एक अन्य महत्तवपूर्ण स्थानीय गैर-साहित्यिक स्रोत है. महान कवि एव चित्रकार मौलाराम द्वारा लिखित ‘गणिका’ नाटक और ‘गढ़राजवंश काव्य’, मिया प्रेम सिंह द्वारा लिखित ‘गुलदस्त तवारीख-ए-कोह’ भी गैर धार्मिक साहित्य स्रोत हैं.

चंदवंश कालीन लेखक शिवानंद पांडे द्वारा रचित ‘कल्याणचंद्रोदय’, अनंतदेव द्वारा कृत ‘स्मृतिकौस्तुभ’ भी उत्तराखंड के विषय में जानकारी देते हैं. मुगलकालीन साहित्य ‘जहाँगीरनामा’, ‘तारिख-ए-बदायूनी’, ‘शाहनामा’ और ‘मअसिर-अल-उमरा’ भी गैर धार्मिक साहित्य स्रोत हैं. उत्तराखड के आधुनिक इतिहास के महत्तवपूर्ण गैर साहित्यिक स्रोत उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानियों की पुस्तक, संस्मरण, पत्र-व्यवहार, देशी-विदेशी महान लेखकों के लेख संस्मरण, ब्रिटिश गेजेटियर, तत्कालीन अखबार मुख्य हैं.

लोक साहित्य स्रोत सामान्यतः बहुत अधिक प्रमाणिक नहीं होता है क्योंकि सामान्यतः यह लिखित रुप में उपलब्ध नहीं होता है. लोक साहित्य सामान्यतः एक पीढी से अगली पीढी तक अनुश्रुति व मौखिक माध्यम से ही पहुंचता है. मौखिक रुप में पहुचने के कारण इसमें अनेक गलतियां रहने की सम्भावना रहती है. पवाड़ा, भड़ौ (एक प्रकार के वीर गीत), थड़या गीत, जागर आदि उत्तराखंड से संबंधित प्रमुख लोकगाथाएं हैं. लोकगाथाओं के लिए यहां काथ ,बातें, किस्स या कथा-कानी शब्दों का प्रयोग होता है. राजुला-मालूशाही की प्रेम लोकगाथा साहित्य स्रोत है.

विदेशी यात्रियों में मैगस्थनीज, पिलनी, ह्वेनसांग, अलबरुनी, वि. किच, मूरक्राफ्ट, हार्डविक, आदि के यात्रावृतांत महत्तवपूर्ण रुप से उत्तराखंड के इतिहास के स्रोत हैं.

इतिहास के स्रोत में दूसरे प्रकार का स्रोत पुरातात्विक स्रोत है. पुरातात्विक स्रोत वे वस्तुएं हैं जिनसे हमें किसी इतिहास की जानकारी प्राप्त होती हैं. किसी भी ठोस सतह पर छपा हुआ भाषा अथवा चिन्हों का रुप अभिलेख कहलाता है. अभिलेख कई प्रकार के होते हैं जैसे शिलालेख गुहा लेख ताम्र-पत्र लेख आदि. उत्तराखंड के इतिहास के संबंध में सर्वाधिक रुप से ताम्र अभिलेख ही प्राप्त हैं. मुद्राओं में अंकित चिन्हों के माध्यम से हमें तत्कालीन शासक उसके धर्म, मान्यताओं आदि की जानकारी प्राप्त होती है. इसी प्रकार मानव अवशेष, मूर्तिकला चित्रकला आदि से भी हमें उत्तराखंड के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है.

अल्मोड़ा शहर के बाड़ेछीना (सुयाल नदी तट पर ) में लखउडियार नामक जगह पर चट्टानों में चित्रित प्रागैतिहासिक शैलाश्रय व शिलाचित्र मिले हैं. इसके अतिरिक्त अल्मोड़ा में फरकानौला, पेटशाल, फलसीमा, ल्वेथाप,महरु उडयार आदि में भी ऐसे ही शैलाश्रय मिले हैं. इसके अतिरिक्त उत्तराखंड के चमोली जिले में डुंगरी गांव में ग्वारख्या उडियार, चमोली के ही किमनी गांव में भी शैलाश्रय मिले हैं. उत्तराकाशी में शैलाश्रय में नीले रंग का प्रयोग किया है. उत्तराखंड के कालसी शिलालेख, रानी इश्वरा का शिलालेख उत्तराखंड के महत्तवपूर्ण पुरात्विक स्रोत हैं. अल्मोडा इत्यादि से मध्यकालीन मुद्रा भी प्राप्त हुई हैं.

इस प्रकार उत्तराखंड से प्राप्त ये सभी ऐतिहासिक स्रोत उत्तराखंड के इतिहास की वैभ्यता और विशालता के प्रतीक हैं. जो मानव उत्तपत्ति के साथ उत्तराखंड में मानव-जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. ये ऐतिहासिक स्रोत ऐतिहासिक युग से सदैव ही उत्तराखंड क्षेत्र एक महत्तवपूर्ण क्षेत्र रहा है.

(अगली क़िस्त में – उत्तराखंड का प्रागैतिहासिक काल)

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Girish Lohani

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