1994 में मुजफ्फरनगर की अमानवीय घटना घट चुकी थी और संभवतः आजादी के बाद पहली बार उत्तराखंड के छोटे-छोटे कस्बों में कर्फ्यू लगा था. उत्तराखंड के सीधे-साधे ग्रामीण और कस्बेवासियों के लिये नित्तांत अपरिचित शब्द था कर्फ्यू. अंग्रेजों के समय लगने वाला कर्फ्यू जनमानस के स्मृति चित्रों से इस कदर गायब था कि भोले-भाले उत्तराखंड के लोग कर्फ्यू का उच्चारण ही करफू करते थे. पहाड़वासियों की एक बड़ी आबादी ने न कभी इसे महसूस किया न कभी झेला था.
राज्य के लोग कितने सरल स्वभाव के होंगे इस बात का पता तो इस बात से चलता है कि कई अंजान लोग कर्फ्यू को एक प्रकार का मेला समझने लगे थे. अबोध बच्चे और सरल ग्रामीण महिलाएं तो कर्फ्यू देखने तक की जिद्द करने लगी थी.
अगस्त्यमुनि, गोपेश्वर, चमोली, दुगड्डा समेत ग्यारह कस्बों को कर्फ्यू के हवाले कर दिया गया. कर्फ्यू के दौरान इन कस्बों में लोगों को पुलिस प्रताड़ना झेलनी पड़ी. कर्फ्यू के दौरान कुछ घटनाएँ पुलिस की ज्यादती का उदाहरण हैं.
गोपेश्वर की सडकों पर सन्नाटा छाया हुआ था. सड़क से नीचे गोपेश्वर गाँव में गुलाब तोपवाल का घर था. उसकी पत्नी घर पर ही आने वाले नवरात्र की तैयारी कर रही थी. सुबह करीब दस बजे घर से सौ मीटर की दूरी पर स्थित गौशाला के बाहर बंधी उसकी गाय रंभाने लगी. गुलाब को लगा की घास ख़त्म होने के कारण गाय रंभा रही है. उसने घास का एक पुला उठाया और अखरोट के पेड़ों के पास से गुजरते हुये गोशाला की ओर बड़ा. तभी एक गोली गरजी और गुलाब की चीख निकल पड़ी. गुलाब वहीँ पर ढेर हो गया. कुछ ही सेकेण्ड में एक और गोली चली और उस बार गाय की बारी थी. गुलाब की पत्नी इस दौरान अपने घर की खिड़की के पास खड़ी थी. तीस सेकेण्ड के भीतर घटी यह घटना गुलाब की पत्नी की आँखों के सामने घटी थी.
इस तरह उत्तर प्रदेश पुलिस ने पहाड़ की जनता को बता दिया कि कर्फ्यू क्या होता है. पुलिस की ज्यादतियों के ऐसे अनेक समाचार मिलते रहे जिन्हें बाद में रफा-दफा कर दिया गया.
शंकर सिंह भाटिया की पुस्तक उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का इतिहास के आधार पर
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