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एक हिन्दी भाषी अफसर की दक्षिण भारत यात्रा के बहाने वास्कोडिगामा और अगस्त्य मुनि के किस्से

तटस्थता और पारदर्शिता, किसी भी व्यवस्था के सबसे लोकप्रिय सिद्धांत माने जाते है, जिसके चलते अक्सर चुनाव जैसे खास आयोजनों में उत्तर के लोगों को दक्षिण, दक्षिण के लोगों को पूरब, तो पश्चिम के लोगों को पूर्वोत्तर में खास जिम्मेदारी में लगा दिया जाता है. उद्देश्य रहता है, किसी भी कीमत पर निष्पक्षता बरकरार रहे. कुल मिलाकर, कायदे से फेंट-फाँटकर विकसित तंत्र को निगरानी का काम सौंप दिया जाता है. (North India South India)

अवसर था, सबसे बड़े लोकतंत्र के महापर्व का. हमारे किसी खास दोस्त को दक्कन जाने का मौका मिला. जैसे ही उन्हें गंतव्य स्थान की सूचना मिली, उनके होश गुम हो गए. उनकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी. जब असहनीय हो गया, तो उन्होंनें शुभचिंतकों से संपर्क साधा, “अरे गुरु, लग तो गई, पर निभाएंगे कइसे.” (North India South India)

दरअसल उनकी समस्या संपर्क भाषा को लेकर थी. उन्हें पक्का विश्वास था कि प्रांतवासी अपनी मातृभाषा में हीं कामकाज करते होंगे. इस पर उन्हें दिलासा दिलाया गया “अंग्रेजी तो इंटरनेशनल भाषा है. जितनी भी आती है, उसी में समझने-बूझने की कोशिश करना.”

परेशानी भरे स्वर में बोले, “हिंदिया के सिवा हमको वो भी तो नहीं आती. नतीजे भी अगर उन्होंने अपनी ही भाषा में निकाल दिए, तो हमको कैसे पता चलेगा कि क्या लिखा है? सही लिखा है या गलत. आप तो जनबे करते हैं, अंगरेजिया हमारी माशाअल्लाह है.”

दोस्त हैं भी होनहार किस्म के. उन्हें सांत्वना दी गई, “देखो यार, जो लोग वहाँ लगे हैं, वे भी जिम्मेदार लोग होंगे. गैर मामूली काम, मामूली लोगों के भरोसे नहीं छोड़ा जाता. फिर काम जिम्मेदारी भरा है, तो इसमें कोई भी बंदा भूलकर भी हीला हवाली नहीं करेगा.”

” तो फिर हम अपना रोल कइसे निभाएंगे.”

“तीन-चार अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से काम चल जाएगा. जहाँ पर कोई शंका ना हो, सब ठीक-ठाक लगे, वहाँ पर उनसे ‘ओके-ओके, ऑल राइट या गो अहेड’ कहते रहना. जहाँ पर जरा भी शंका दिखाई पड़े, वहाँ पर ‘वेट वेट’ बोलना.”

उन्होंने अपना रोल बखूबी निभाया. असाइनमेंट पूरा होने के बाद हालांकि उन्होंने खुलकर तो कुछ भी नहीं बताया, लेकिन परम प्रसन्न नजर आ रहे थे. यदि कुछ हुआ होता, तो उस विशेष बात को बताए बिना नहीं रहते.

एक अन्य मित्र भी दक्कन के ही किसी प्रांत में लगे हुए थे. उनके साथ ऐसी समस्या नहीं थी. अच्छी-खासी अंग्रेजी बोल लेते हैं. सो उनका आत्मविश्वास हरसमय बढ़ा-चढ़ा रहता है.

उन्होंने आपबीती सुनाई. उन्हीं की जुबानी उनकी आपबीती हू-ब-हू हाजिर है-

एयरपोर्ट पर उतरे तो अगवानी में पूरा-का-पूरा अमला मुस्तैद खड़ा मिला. गाड़ी में सवार हुए. चार-पाँच घंटे का रन रहा होगा. रास्ते भर हम ही बोलते रहे. जितनी जानते थे, सारी- की-सारी बोल डाली. बस यूँ समझिए की पूरी-की-पूरी उड़ेल दी. लाइजन अफसर ने दो ही शब्द दोहराए, “यस सर, यस सर या थैंक यू सर, थैंक यू सर.” जब उससे उसका महकमा पूछा गया, “व्हिच डिपार्टमेंट”, तो भले आदमी ने जवाब दिया, “गृहालु.” भला हो संस्कृत का. अधिकांश भारतीय भाषाओं का साम्य संस्कृत से बैठ जाता है. जाहिर तौर पर वह हाउसिंग डिपार्टमेंट का ऑफिसर रहा होगा.

हेड क्वार्टर देर रात ही पहुँच पाए. डिनर का वक्त गुजर चुका था. हमने स्टाफ से लेमन वॉटर माँगा, टू ग्लास लाइमवाटर. थोड़ी देर में वेटर दो गिलास लेकर हाजिर हो गया. सोने से पहले उसे पिया. पीने पर मालूम पड़ा कि, ये तो संतरे का जूस है. आधी रात बीत चुकी थी. किसी से उज्र करने का यह समय बेमौका सा लगा. सफर से थके हुए थे चुपचाप सो लिए.

अगली सुबह फिर से लेमन के स्थान पर ऑरेंज जूस मिला. इतनी सुबह टोकना वाजिब न लगा. थक-हारकर दोपहर में वेटर को बुलाकर कहना पड़ा, “ब्रिंग ऑल फ्रूट्स फ्रॉम योर रेफ्रिजरेटर.” तत्पश्चात लाइजन अफसर को संतरा दिखाकर कहा, “दिस इज ऑरेंज.” और दो अंगुलियों के बीच नींबू चमकाकर कहा, “दिस इज लेमन.” फिर नींबू लहराते हुए कहा, “आई वांट दिस.” फिर झुंझलाते हुए उंगली से गले पर चाकू जैसा फेरते हुए कहा, “ब्रिंग द नाइफ आल्सो. आई विल कट द लेमन माइसेल्फ.”

दूसरे दिन जाकर समझ में आया कि उनकी धाराप्रवाह अंग्रेजी, लाइजन अफसर पर रत्ती भर भी प्रभाव नहीं डाल पाई. प्रभाव तो तब डालती, जब उसके पल्ले पड़ती. जब उसके पल्ले ही नहीं पड़ रही थी, तो बेचारा अनुमान लगाने के सिवा, कर भी क्या सकता था.

फिर तो भूख लगने पर पेट बजाकर, मुँह में निवाले का इशारा करके खाने की दरियाफ्त करनी पड़ी. हरी मिर्च के लिए कानी उंगली को चबाकर संकेत देना पड़ा. भाव व्यक्त करने के लिए किसी भाषा की जरूरत नहीं पड़ती. उस पर भी भाव क्षुधा का हो, तो चेहरे पर वैसे ही करुणा छलकने लगती है.

मन ने कहा, आदिमानव तो किसी भी तरह की भाषा नहीं जानता था. तो क्या वह भूखा रहता था. उसका आहार और डाइट आज के हिसाब से कुछ ज्यादा सेहतमंद रहता होगा. शरीर, कद-काठी के हिसाब से वह इंतजाम कर भी लेता होगा. हालांकि गुस्सा और भूख उसके भी काबू में नहीं रहती थी, जो सामने दिखे उसे ही खा जाने की इच्छा रहती होगी.

खैर जब भूख ने सताना शुरू किया, तो दो उंगली खड़ी करके और हाथ से सर्किल जैसा इशारा बनाकर कहा, “आई वांट टू चपातीज.” सारा-का-सारा कारोबार इशारेबाजी में चलता रहा. भीषण गर्मी में भी जमकर गरम मसालों का प्रयोग. भोजन जीमने के लिए भयंकर साहस और शौर्य की जरूरत पड़ने लगी. बुभुक्षम् किम न करोति पापम्. मरता क्या न करता.

उत्तर भारत में भी गरम मसालों का प्रयोग होता है, लेकिन केवल शीतकाल में. यहाँ तो काली मिर्च, जायफल, इलायची जमके झोंकी गई थी. सलाद तक में तेजपत्ता दिखाई पड़ रहा था.

मन-ही-मन विचार किया. मन में ही जवाब उपजा, अगर ऐसा न होता, तो वास्कोडिगामा क्यों यहाँ की टोह लेता. इतनी लंबी समुद्री यात्रा उसने यहाँ के मसालों के लिए ही तो की थी. प्राचीन वांग्मय में काली मिर्च को ‘यवनप्रिय’ यूँ ही नहीं कहा गया है.

वास्कोडिगामा ने जब दक्कन के बारे में सुना, तो जीवन-मरण की परवाह किए बिना, वह मसालों के व्यापार के लिए यहाँ आ धमका. अतीत की बात करें, तो यूरोपियन्स के लिए मसाले, मसाले कम रहस्य ज्यादा थे, क्योंकि अरब सौदागर उनको फेरी लगाकर बेचा करते थे. मसालों के बारे में तरह-तरह के किस्से फैलाया करते थे. यूरोप में तब का नव धनाढ्य वर्ग, सबसे पहले गर्म मसाले खरीदकर अपने वैभव का प्रदर्शन करता था. कहा तो ये भी जाता है कि, नीरो की रानी के अंतिम संस्कार में दालचीनी का जमकर प्रयोग हुआ था. तत्कालीन योरोपीय समाज में मसाले खरीदना एक स्टेटस सिंबल का प्रतीक होकर उभरा.

कोलंबस भी दालचीनी-कालीमिर्च के आकर्षण में बँधकर, बोरिया-बिस्तर बाँधकर घर से निकला, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है. वो कहाँ-का-कहाँ पहुँच गया.

इतिहासकार बताते हैं कि, वास्कोडिगामा ने वापसी में अपने जहाज में इतने मसाले भर दिए कि, यूरोप में उनको बेचकर, उसने अपनी कुल यात्रा लागत का बाईस सौ गुना ज्यादा कमाया. यहीं से डच, डेनिश, इंग्लिश और फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनियों को यहाँ आने की लत लग गई. फिर उसके बाद उन्होंने जो हाहाकार मचाया, वो सब इतिहास में दर्ज है.

खैर रॉबिंसन क्रूसो के निर्जन द्वीप में अटक जाने पर जो-जो परिस्थितियां बन पड़ी थी, वो-वो हमने महसूस की. दौरा करने को निकले, तो सारे-के-सारे माइलस्टोन उस भू-भाग की मातृभाषा में नजर आए. पता ही नहीं चला कि हम कहाँ पर है और गंतव्य से कितनी दूर है. अनिश्चितता तनाव की जननी है. लाइजन अफसर उस ओहदे की स्थापित परंपराओं से बेमेल निकला. उसने भरोसा तोड़के रख दिया.

सार्वजनिक यातायात के साधनों पर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन’ तो अंग्रेजी में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, लेकिन विंडो स्क्रीन पर, कहाँ-से-कहाँ की जो तख्ती थी, वो मातृभाषा में दर्ज पाई गई. यहां तक कि माइलस्टोन भी मातृभाषा में ही दिखाई पड़े. इंसान जब अनजान जगह पर फँस जाए, तो माइलस्टोन बड़ा सहारा देते हैं. साइनेजेज देख-पढ़कर व्यक्ति अपने दिमाग को व्यस्त रख लेता है. इतने में ही खुश हो लेता है कि, वह उस प्रसिद्ध स्थान से इतनी सी दूरी पर है. उसके लगभग आस-पास ही है, लेकिन यहाँ तो मामला ही दूसरा निकला.

जंगल से भटके वानर जैसा हाल हो चला था. जब कभी वो जंगल से भटक जाए, तो आबादी में वीरान सा घूमता है. जब नदी-पोखर-तालाब जैसे जलस्रोत नहीं मिलते, तो प्यास से परेशान होकर, आबादी में हैंडपंप या नल के के इर्द-गिर्द मंडराता रहता है. जिसका घोषित नाम ही शाखामृग हो, उसे जब लटकने के लिए शाखा-टहनी नहीं मिलती, तो बेचारा मारा-मारा फिरता है.

रॉबिंसन क्रूसो जैसे अनजान द्वीप में अटक गया हो. हालांकि रॉबिन्सन तो दशकों तक उस द्वीप फँसा रहा और उसे फ्राइडे जैसा अनन्य साथी भी मिल गया था. ज्यादा वक्त मिलने के कारण उसने फ्राइडे को भी अपनी भाषा में दक्ष कर दिया था. शुरुआत में स्वामी-सेवक में इशारेबाजी ही चलती रही.

तीसरे दिन अपने पीएसओ में संभावना की किरण नजर आई. वह थोड़ा बहुत संपर्क भाषा बोलने के काबिल लगा. भला हो त्रिभाषा फार्मूले का, जिसके सहारे उस बियाबान में कोई तो संपर्क सूत्र निकला. हालांकि प्रोत्साहन पाकर बोल तो वह भी टूटी-फूटी ही रहा था, लेकिन मौके पर अंधे की लकड़ी साबित हुआ. उम्मीद की किरण जगी कि अब यह विशेष स्थान बताएगा. यह कौन सा स्थान है और इसका क्या महत्त्व है.

प्रवासी साहबों को स्थानीय तत्त्व को ग्लैमराइज करके बताने का रिवाज जो रहता है. ऐसे मौकों पर हर स्थान और वहाँ पर मौजूद संरचना को आसानी से त्रेता- द्वापर तक ढ़केला जा सकता है.

हालांकि उसका बताया, हम दशांश ही समझ पाए. अकर्मक-सकर्मक तो छोड़िए, वह किसी भी तरह की क्रिया बोलने को राजी नहीं था. हम बेचारे थे, कर भी क्या सकते थे. शायद उसका नाउन, वर्ब-प्रोवर्ब से भी अच्छा-खासा बैर था. उच्चारण भिन्न होने के कारण कुछ-का-कुछ समझ में आने लगा . स्थान-नाम भी एक जैसे. एल्लोर, वेल्लोर, नेल्लौर. खास उच्चारण के कारण सब-के-सब एक जैसे सुनाई पड़ने लगे.

फिर पीएसओ हमारे कहे को, अपने ही प्रारूप में समझ-बूझ रहा था. जिससे निष्कर्ष कुछ-का-कुछ निकलने लगा. कुल मिलाकर, हमें रॉबिंसन क्रूसो बुरी तरह याद आने लगा.

मुख्य स्थल पर बेरीकेटिंग के अच्छे-खासे इंतजाम थे. प्राइवेट पर्सन्स और सरकारी अमले के लिए अलग-अलग पैसेज दिए हुए थे. गौर से देखा तो बेरीकेटिंग में लंबी सी लकड़ियों का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन वो बांस नहीं था. कोई स्थानीय लकड़ी रही होगी. उतनी ही लंबी और पतली भी.

बंदे से पूछा, “व्हिच वुड इज यूज्ड इन बेरीकेटिंग.” फिर उंगली से लकड़ी को छूकर दिखाया, “दिस वन.” भला आदमी बोला, “सुरुगुडु. नो साइंटिफिक नेम.” उसका आशय काष्ठ प्रजाति के स्थानीय नाम से था. वैज्ञानिक नाम बेचारे को मालूम नहीं रहा होगा. उसकी हौसला अफजाई करते हुए कहा, “इन नॉर्दन इंडिया इंस्टीड ऑफ सुरुगुडु बैंबू इज यूज्ड. इट इज यूज्ड इन न्यूमरस वेज.”

अगस्त्य ऋषि महातपस्वी थे. जैसे ही उन्हें यह ज्ञात हुआ कि विदर्भ की राजकुमारी गृहस्थी चलाने के काबिल हो गई है, तो वे विदर्भ नरेश के यहाँ जा धमके. राजकुमारी लोपामुद्रा के पिता से बिना संकोच के बोले, “राजन! पुत्रोत्पत्ति के लिए मेरा विवाह करने का विचार है. अतः हे राजन मैं आपकी कन्या का वरण करना चाहता हूँ. आप लोपामुद्रा को मुझे दे दीजिए.”

ऋषि के तौर-तरीकों से विदर्भराज के होश फाख्ता हो गए. वे मना भी नहीं कर सकते थे और हाँ भी नहीं. ना उगलते बनता था, न निगलते. उन्होंने रानी के पास जाकर मशविरा किया. बोले, “महर्षि अगस्त्य बहुत शक्तिशाली है. अगर यह कुपित हो गया, तो हमें शाप देख कर भस्म कर देगा .”

माता-पिता को दुखी देखकर लोपामुद्रा ने कहा, “पिताजी! आप मुझे अगस्त्य ऋषि को सौंप दीजिए. आप निश्चिंत रहें.” पुत्री के मुख से ऐसे वचन सुनकर राजा ने विधिपूर्वक अगस्त्य मुनि के साथ लोपामुद्रा का विवाह कर दिया.

समुद्र में छुपे हुए राक्षस जब-तब देवताओं को परेशान करते रहते थे. वे दिनभर स्वीमिंग पूल समझकर समंदर में मौज करते थे, एडवेंचरस वाटर गेम्स खेलते और रात में आसुरी शक्तियाँ दिखाकर हाहाकार मचा जाते. उनके अत्याचारों से घबराकर, देवगण ऋषि अगस्त्य के शरणागत हो लिए. रो-धोकर अपना हाल कह सुनाया. ऋषि चमत्कारी करतब करते रहते थे. अतः उन्हें सारा-का-सारा समुद्र पी लेना पड़ा और राक्षसों का विनाश हो गया.

मदांध नहुष ने जब सप्तर्षियों को सर्प-सर्प (तेज चलो) का आदेश दिया, तो उसे सर्प योनि में भेजने वाले भी महर्षि अगस्त्य ही थे.

अगस्त्य ऋषि, उत्तर से दक्षिण जाने वाले प्रथम पुरुष थे. दक्षिण यात्रा के दौरान विंध्याचल पर्वत, सूर्य भगवान का रास्ता रोककर खड़ा हो गया. चिरौरी-विनती करने पर भी टस-से-मस नहीं हुआ. सूर्य हैरान-परेशान. उद्धार के लिए वे भी ऋषि अगस्त की शरण में चले गए. ज्यादा नहीं ढूँढना पड़ा. राह चलते ही मिल गए. ऋषि ने टेंपरेरी रिलीफ सी देते हुए विंध्य को फरमान सुनाया, “जब तक मैं दक्षिण से वापस न लौटूँ, तुम उकड़ूँ होकर ऐसे ही बैठे रहना. खबरदार जो जरा भी हिला..”

अगस्त्य काशी निवासी थे, लेकिन वे दक्षिण क्या गए, कि वहीं के होकर रह गए. अगत्तियम उनकी तमिल में प्रसिद्ध व्याकरण रचना है. वे स्वयं संपर्क भाषा के सूत्रधार बन बैठे. जब वे वहीं बस गए, तो विंध्य अपने उसी स्वरूप में स्थिर होकर रह गया.

भगवान राम ने भी दक्षिण की यात्रा की. बताया जाता है कि अपने चौदह वर्ष के वनवास काल में उन्होंने सत्रह स्टेशन (स्थान) बदले. उन्होंने वनवासियों के बड़े- बड़े संगठन बनाए. उनको राक्षसों के विरुद्ध संगठित किया. उनको प्रेरित करने के लिए, प्रशिक्षित करने के लिए, भाषा का इस्तेमाल तो निश्चित रूप से हुआ होगा.

दंडकारण्य से भद्राचलम तक. पंचवटी से लेकर कावेरी-तुंगभद्रा तक. ऋष्यमूक पर्वत. मलय और चंदन वन पार करके, रामेश्वरम से लेकर धनुषकोटि तक. भले ही प्रमुख व्यक्तियों से उन्होंने संस्कृत में वार्तालाप किया हो, लेकिन जन संगठन के लिए स्वाभाविक रूप से लोकल डायलेक्ट का ही प्रयोग किया होगा. वे कठोर परिश्रमी थे. अनुमान लगाया जाता है कि, उद्देश्य पूर्ति के लिए उन्होंने पाँच-दस भाषाएँ तो निश्चित रूप से सीखी ही होंगी.

मध्य युग में अलाउद्दीन खिलजी ऐसा सुल्तान था, जिसकी सेनाओं ने दक्कन को विजित किया. उसके नायब जनरल मलिक काफूर ने वारंगल-काकतीय से लेकर होयसल-द्वारसमुद्र-मदुरै तक को जीता. वहाँ से उसने अपार धन-संपदा लूटी. कोहिनूर हीरा भी इसी लूट का हिस्सा था. मलिक काफूर को हजारदीनारी भी कहा जाता है.

गुजरात विजय के दौरान नुसरत खान ने उसे हजार दीनार में खरीदा था. अरबी इतिहासकार उसे अल-अल्फी लिखते हैं. अलिफ लैला में अल्फ का मतलब हजार होता है.

बहरहाल इतिहासकारों के अनुसार, उसे घुड़सवारी और घेराबंदी शौक था. जाहिर सी बात है, जिसके पास तलवार की ताकत हो, बड़े-से-बड़ा लाव लश्कर रहता हो, उसे दुभाषियों की कमी तो क्या ही पड़ती होगी.

कार्य-समापन के बाद वापसी की यात्रा शुरू हुई. रास्ते में हल्के नाश्ते का प्रोग्राम बना. मैंने खाद्य-अखाद्य के झंझट से बचने के लिए झट से कह डाला, “लाइम वॉटर ओनली.” एक अच्छे-खासे रेस्तरां में रुके. दल-बल के साथ अंदर गए. यात्रा काफी शेष थी. अंदर जाते हुए एक सज्जन की थाली में छोले-भटूरे परोसे हुए देखे, तो खुद को रोक न सका. हालांकि तैलीय होने के कारण सामान्य तौर पर ऐसे आहार का तिरस्कार करने की आदत थी, लेकिन कई दिनों के बाद जान-पहचान का व्यंजन देखने को मिला, तो खुद को रोक नहीं पाया. लाइजन अफसर का हाथ पकड़कर उसे थाली में अंगुली से दिखाया, “आई वांट दिस, आई वांट दिस.” भरपेट खा लेने के बाद आगे की यात्रा शुरू हुई.

सुनने में वहाँ की भाषा गीतात्मक सी लगी. स्टाफ के परस्पर बोलचाल में संगीतमय सी ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, उसमें ध्वन्यात्मकता खूब थी, जो आकारांत या इकारांत सी महसूस हुई.

अन्य भाषाओं पर निर्भरता ना होना, शायद उनकी अपनी भाषा की मजबूती और सशक्तता का प्रमाण है. दक्कन की भाषाओं में शानदार क्लासिक्स लिखे गए हैं. इस भाषाई आग्रह के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि, समृद्ध साहित्य की वहाँ सुदीर्घ परंपरा रही है. राजकाज, दैनिक जनजीवन जब आराम से चल रहा हो, न किसी किस्म की हीन भावना हो, तो फिर किसी भाषा का भय सताए, इसका सवाल ही पैदा नहीं होता. विकल्प वहीं खोजा जाता है, जहाँ संकल्प कमजोर दिखता हो.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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