मानव जीवन में बालक के जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के विभिन्न संस्कारों में जल का महत्वपूर्ण स्थान है. व्यक्ति जल से आचमन करने पर शुद्ध होता है क्योंकि जल में औषधीय गुण विद्यमान रहते हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जल स्रोतों का निर्माण करना पुण्य का कार्य माना जाता है. प्यासे को जल पिलाना सबसे पुनीति कर्तव्य है, इसलिए जब भी कोई अतिथि घर आता है तो उसको जल पिलाकर उसका स्वागत किया जाता है.
(Water Tradition Uttarakhand)
आज भी बड़े-बड़े धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजनों में आने वाले का सर्वप्रथम जल प्रदान कर अभिनन्दन किया जाता है. विभिन्न पर्वों में भी धार्मिक आयोजन से पूर्व स्नान करना आवश्यक माना जाता है. कुमाऊँनी लोक परम्परा में जल ही का नहीं अपितु जल स्रोतों का विशिष्ट स्थान है. यहां कोई भी संस्कार ऐसा नहीं है जिसमें जल का जिक्र न हो. प्रत्येक संस्कार में जल की आवश्यकता होती है और प्रत्येक संस्कार के साथ जल का अपना महत्त्व भी जुड़ा है.
घर में शिशु के जन्म को लेकर हर एक समाज अपनी खुशियों को अलग तरीके से व्यक्त करता है लेकिन आज भी हमारे समाज में इसकी अपनी विशिष्टता है. यहां शिशु के जन्म के लगभग 12 से 24 घंटे पूर्व तांबे की गागर में ‘नौले’ का जल भर दिया जाता है और नवजात के जन्म के कुछ समय बाद उसे इसी पात्र के गर्म जल से नहलाया जाता है. तांबे के बर्तनों में रखे हुए जल को विज्ञान भी बहुत लाभकारी मानता है. नवजात के जन्म के पांचवें दिन होता है पंचगव्य कर्म (गोमूत्र, गोबर, घी, दूध, दही के मिश्रण से शुद्धि कर्म हेतु अभिमंत्रित). जिससे पूर्व भी नवजात को ताम्र पात्र में रखे जल से नहलाया जाता है. नामकण भी एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है जिसमें पूजन का आरम्भ ही गंगा जल अथवा नौले-धारे के पवित्र स्रोत के जल से लिए गये आचमन से शुरू होता है. यही नहीं माता-पिता द्वारा अपने पुत्र/पुत्री के नामकरण संस्कार के लिए किया गया संकल्प भी बिना जल के पूर्ण नहीं होता. नामकरण के ही दिन जब नवजात को पहली बार सूर्य दर्शन हेतु घर के आगन में लाया जाता है तो मां सूर्यदेव को अर्घ चढ़ाकर अपने पुत्र/पुत्री के दीर्घ और मंगलमय जीवन की कामना करती है.
कुमाऊनी समाज में गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती और नर्मदा का जल विशेष पवित्र माना जाता है. यह गंगा जल के प्रति सम्मान है. बालक के जन्म के बाईसवें दिन बैसोल करने का परम्परा है जिसमें ब्राह्मण द्वारा घर में ‘दुर्गासप्तशती’ का पाठ पढ़ कर घर के प्रत्येक कमरे में गंगाजल और गोमूत्र छिड़का जाता है. आज भी हमारे यहां बालक का चूड़ाकरण, कर्णवेध और व्रतबन्ध आदि संस्कार बड़े उत्साह से किये जाते हैं. इन संस्कारों को संपन्न कराये जाने के पीछे बालकों को शिक्षा देने की परम्परा रही है जिसमें कुल का पुरोहित बालक का अनिवार्य रूप से किसी जल स्रोत के आस-पास मल-मूत्र का त्याग न करने, किसी भी पेड़ से कच्चे फल न तोड़ने, जल में अपनी छाया न देखने, जल स्रोत पर नग्न स्नान न करने, जल में न थूकने का संकल्प कराया जाता है.
इसी प्रकार यहां किसी विवाह से पूर्व जब लड़का-लड़की को देखने किसी सयाने परिवारीजन अथवा ब्राह्मण के साथ कन्या के घर जाता तो लड़की पेय जल लाकर पहली बार उनसे मिलती है. यहां मात्र जल प्यास बुझाने का कारक न होकर प्रेम बढ़ाने वाला जीवन रस बन जाता है. सगाई के वक्त कन्या अपने भावी ससुराल से आये हुए पांच, सात या नौ अतिथियों का स्वागत सिर पर पंच पल्लव से सजे कलश को लेकर करती है. उस कलश का जल सभी ससुराली आगुंतकों को पिलाया जाता है, ताकि उन्हें अहसास हो कि जिस प्रकार कन्या द्वारा लाया हुआ पात्र का जल आज सभी को तृप्त कर रहा है, उसी प्रकार वह ससुराल आकर अपने सेवाभाव से ससुराली परिवार को तृप्त करेगी. यहां जल सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने वाला तत्व भी माना गया है.
(Water Tradition Uttarakhand)
कूर्मांचली समाज में आज भी सगाई और विवाह के समय घर के दरवाजों के दोनों ओर जल से भरे हुए और पंचपल्लवों से सजे कलश रखे जाते हैं. इसके पीछे मान्यता यह है कि जल से भरा हुआ और पंच पल्लवों से सजा जल पात्र सभी क्लेशों को हरने वाला होता है. कूर्मांचली लोक परम्परा में विवाह शुभ कार्यों में देवी-देवताओं के साथ ब्राह्मण कन्या, गाय, अग्नि, वाद्ययंत्र, वादक, दरजी, गांव के इष्ट, कुल देवता के साथ-साथ जल देवता को भी न्यौता दिया जाता है. वर घोड़ी चढ़ने से पूर्व अपने कुल देवता को जल और दूध अवश्य चढ़ाता है. विवाह के दिन वर और कन्या को हल्दी चन्दन लगाकर पवित्र नदियों के जल स्नान से कराने की परम्परा है. बारात के चलने से पूर्व नगाड़े, निशान (धवजा) की पूजा की परम्परा भी है, जिसमें निशान पर लगने वाले त्रिशूलों को पानी में नहलाने के बाद ही उसकी पूजा की जाती है.
द्वार पर आये हुए वर-आचार्य का स्वागत कन्यापक्षीय समाज जल परिपूर्ण कलश के साथ करता है. कन्यापक्षीय ब्राह्मण शान्तिपाठ करते हुए वर आचार्य का जलाभिषेक करता है. धूलिअर्ध्य से पूर्व कन्या के पिता द्वारा जल से वर-आचार्य के पैर धाने की परम्परा भी है. कूर्मांचली समाज में जल के प्रति आस्था की पराकाष्ठा उस समय दिखाई देती है जब कन्या के माता-पिता गडुवे में दूध मिश्रित गंगाजल लिए महादान संकल्प करते हैं और कन्या के पिता कहते हैं कि- ‘हे विष्णु स्वरुपी वर! मैं अपनी सात बीती हुई और सात भावी पीढ़ियों के तारण के लिए तुम्हें अपनी कन्या सौंपता हूँ लेकिन तुम्हें यह संकल्प लेना होगा कि तुम इस कन्या के अधिकारों और इसकी कुल मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करोगे. कूर्मांचली परम्परा में कोई संकल्प जल के बिना नहीं होता और न ही पूजन जल के बिना होता है. विवाह में होने वाले गोदान में भी वर गाय की पूँछ को अर्ध्य में डुबाकर अपने ससुराली परिवार पर शांति निमित्त जल मिश्रित दूध के छींटे मारता है.
विवाह के पश्चात जब बारात वर के घर को लौटती है तो कन्या अपने साथ अपने मायके से चावल, तिल, पीली सरसों और लाडु-सुवाले लेकर आती है, ताकि वह ससुराल आकर ससुराल के जल स्रोत की पूजा कर सके. अपने ससुराल पहुंचकर दुल्हन अपनी ननदों के साथ नौला भेटने जाती है. पहले नौले की पूजा कर उसे मायके से लाई हुई भेटें और माथे का मुकुट चढ़ाती हैं. फिर उससे पानी भरती है. यहां पर नौला पूजना जल को संरक्षित और शुद्ध रखने का एक उपाय भी है जो आज के परिप्रेक्ष्य में नितान्त आवश्यक है.
कूर्मांचली समाज में प्रचलित देवताओं में चाहे वो भूतांगी हो या देवांगी सभी के अवतरित होने पर उनको जल से नहलाने की प्रथा है. यही नहीं प्रत्येक त्यौहार के दिन कूर्मांचली समाज में अपने आस्था केन्द्रों में स्थित देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों को जल से नहलाकर पूजन की परम्परा है. दैनिक रुप में मन्दिरों में होने वाली आरती के उपरान्त निरंजन हेतु भी जल का उपयोग किया जाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि कूर्मांचली समाज के आस्था के केंद्र नदियों या जल स्रोतों के समीप होते हैं. विशेषतः त्यौहारों के दिन इन जल स्रोतों पर नहाकर आस्था केन्द्रों में पूजा का विशेष महत्त्व माना जाता है. नदियों के समीप अथवा जल स्रोतों के पास मन्दिरों को बनाये जाने का एक कारण यह भी है कि लोग जल को स्वच्छ व सुरक्षित रखें. जो जल में गंदगी न करें तथा जल के प्रति वैसी ही आस्था रखें जैसी कि वे अपने ईश्वर के प्रति रखते हैं.
(Water Tradition Uttarakhand)
जल स्रोतों पर जाकर लक्ष्मीनारायण पूजन की परम्परा भी कूर्मांचली समाज में प्रचलित है. यहां यह मान्यता है कि जिस जल स्रोत की पूजा की जाती है तथा जहां पर नियमित साफ-सफाई होती है वह कभी नहीं है. दीपावली के दिन भी यहां के समाज में जल स्रोतों के पास तथा जल पात्रों के समीप दीए जलाने की परम्परा है. कूर्मांचली समाज जल को शुद्धिकारक भी मानता है. यहां प्रसवा स्त्री तथा मासिक धर्म के दौरान स्त्री के स्पर्श हो जाने पर गोमूत्र, गंगाजल या सोने को पानी में डुबोकर शुद्ध किये गये जल को पीने अथवा अपने उपर छिड़कने की प्रथा है. जल को औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है, जब परिवार के किसी सदस्य या पशु का स्वास्थ्य खराब होने पर सात जल स्रोतों से अबोल पानि (मौन रहकर लाया गया जल) टोटके के लिए प्रयुक्त किया जाता है. उससे वह व्यक्ति अथवा पशु स्वस्थ हो जाता है.
भोजन से पूर्व परिवार के पुरूष द्वारा हाथ में जल लेकर भोजन का एक भाग बलि के रूप में निकाला जाता है. परिवार में बड़े-बूढ़े की मरणासन्न अवस्था में गाय की पूंछ पर जल की धार देते हुए वैतरणी पार करने का संकल्प किया जाता है. मृतक के शरीर को कफन में लपेटने से पहले समाज में नहलाने की प्रथा है. शमशान घाट में भी शव को जलाने से पूर्व उसी नदी के जल में डुबोकर नहलाया जाता है. शवदाह से लेकर तेरहवें दिन तक मृतक के लिए तैयार भोजन के साथ पानी अवश्य रखा जाता है. विशेषतः तेरहवीं के दिन कूर्मांचली समाज में पीपल का पेड़ रोपने की प्रथा है जिसे मृतक के परिवार के सभी मंडित जनों द्वारा पूजित जल चढ़ाया जाता है.
इस प्रकार कूर्मांचली समाज भी लोक परम्परा में जल मात्र जीवन रक्षक तत्त्व न होकर आस्था का केन्द्र भी है. यहां जल पूजा जाता है. जल में देवी-देवताओं का वास माना जाता है. इसी कारण जल स्रोतों में गंदगी फैलाना अपराध माना जाता है. हो भी क्यों नहीं- जल ही तो जीवन है. वर्तमान में सारी दुनिया जल को लेकर चिंतिंत है, कई वैज्ञानिक प्रयासों के बावजूद जल की समस्या को लेकर व्यथित हैं. ऐसे में कूर्मांचली लोक परम्परा एक उचित राह दिखाता है.
(Water Tradition Uttarakhand)
– डॉ. पीताम्बर अवस्थी की किताब उत्तराखंड के परम्परागत जलस्त्रोत से साभार.
डॉ. पीताम्बर अवस्थी सामाजिक सरोकारों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण नाम है. शिक्षा क्षेत्र में योगदान हेतु डॉ. पीताम्बर अवस्थी को उत्तराखंड सरकार द्वारा शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. डॉ. पीताम्बर अवस्थी ने पंचप्रिया कुमाऊनी खंड काव्य समेत दर्जनों पुस्तकें हिन्दी और कुमाऊनी भाषा में लिखी हैं. डॉ. पीताम्बर अवस्थी की पुस्तकें ज्ञान प्रकाश संस्कृत पुस्तकालय पिथौरागढ़ में उपलब्ध हैं.
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