कला साहित्य

आज वीरेन डंगवाल का जन्मदिन है

वीरेन डंगवाल (5.8.1947,कीर्ति नगर,टिहरी गढ़वाल – 28.9.2015, बरेली,उ.प्र.) हिंदी कवियों की उस पीढ़ी के अद्वितीय, शीर्षस्थ हस्ताक्षर माने जाएँगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मी और सुमित्रानंदन पन्त के बाद ‘पहाड़’ या उत्तरांचल के सबसे बड़े आधुनिक कवि. वीरेन की कई कविताएँ इसकी गवाह हैं कि समसामयिक भाषा और शैली का कवि होते हुए छंद और प्रास पर भी उनका असाधारण, अनायास अधिकार था और वह जब चाहते तब उम्दा, मंचीय गीत लिख सकते थे. इसमें वह अपने प्रशंसकों को नागार्जुन की याद दिलाते थे, जिनसे उन्होंने दोनों तरह की कविताओं में बहुत कुछ सीखा. वह स्वयं अपने को निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल,नाजिम हिकमत, मार्क्स, ब्रेख्त, वान गोग, चंद्रकांत देवताले, ग़ालिब, जयशंकर प्रसाद, मंगलेश डबराल, शंकर शैलेन्द्र, सुकांत भट्टाचार्य, भगवत रावत, मनोहर नायक, आलोकधन्वा, भीमसेन जोशी, मोहन थपलियाल,अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रामेन्द्र त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह,पंकज चतुर्वेदी, डॉ नीरज, लीलाधर जगूड़ी, सुंदरचंद ठाकुर तथा हरिवंशराय बच्चन आदि की काव्य, संगीत तथा मैत्री की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परम्परा से सचेतन, निस्संकोच रूप से जोड़ते थे. इन सब के नाम बाक़ायदा उनकी रचनाओं में किसी-न-किसी तरह आते हैं. वीरेन की कविता का वैविध्य तरद्दुद में डालता है.
(Viren Dangwal Birthday)

लेकिन इससे बड़ी ग़लती कोई नहीं हो सकती कि हम वीरेन डंगवाल को सिर्फ कवियों, कलाकारों और मित्रों का अन्तरंग कवि मान लें. उनके तीन संग्रहों ‘’इसी दुनिया में’’ (1991),’’दुश्चक्र में स्रष्टा’’(2002, साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2004) तथा ‘’स्याही ताल’’ (2009) की 188 कविताएँ, जिनमें से दस को भी कमज़ोर कहना कठिन है, सम्पूर्ण भारतीय जीवन से भरी हुई हैं जिसके केंद्र में बेशक़ संघर्षरत,वंचित, उत्पीड़ित हिन्दुस्तानी मर्द-औरत-बच्चे तो हैं ही, एक लघु-विश्वकोष की तरह अंडज-पिंडज-स्वेदज-जरायुज,स्थावर-जंगम भी हैं. हाथी, मल्लाह, गाय, गौरैया, मक्खी, मकड़ी, ऊँट, पपीता, समोसे, इमली,पेड़, चूना, रातरानी, कुए, सूअर का बच्चा, नीबू, जलेबी, तोता, आम, पिद्दी, पोदीना, घोड़े, बिल्ली, चप्पल,भात, रद्दीवाला, फ्यूँली का फूल, पान, आलू, कद्दू, बुरुंस, केले – यह शब्द सिर्फ़ उनकी रचनाओं में नहीं आए हैं बल्कि उनकी कविताओं के विषय हैं. निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन से सीखते हुए वीरेन अपने इन तीनों गुरुओं से आगे जाते प्रतीत होते हैं.

कहने को तो वीरेन डंगवाल हिंदी के एम.ए.पीएच.डी और लोकप्रिय, बढ़िया प्राध्यापक थे, एक बड़े दैनिक के सम्पादक भी रहे, लेकिन इस सब से जो एक चश्मुट छद्म-गंभीर छवि उभरती है उससे वह अपने जीवन और कृतित्व में कोसों दूर थे. उनकी कविता की एक अद्भुत विशेषता यह है कि मंचीय मूर्ख हास्य-कवियों से नितांत अलग वह बिना सस्ती या फूहड़ हुए इतने ‘आधुनिक’ खिलंदड़ेपन, हास-परिहास,भाषायी क्रीड़ा और कौतुक से भरी हुई हैं कि प्रबुद्धतम श्रोताओं को दुहरा कर देती थी. इसमें भी वह हिंदी के लगभग एकमात्र कवि दिखाई देते हैं और लोकप्रियता तथा सार्थकता के बीच की दीवार तोड़ देते हैं.
(Viren Dangwal Birthday)

वीरेन की जितनी दृष्टि व्यष्टि पर थी, उतनी ही समष्टि पर भी थी. वह न सिर्फ प्रतिबद्ध थे बल्कि वाम-चिन्तक और सक्रियतावादी भी थे. अपने इन आख़िरी दिनों में भी उन्हें जनमंचों पर सजग हिस्सेदारी करते और अपनी रचनाएँ पढ़ते देखा जा सकता था. पिछले कई वर्षों का गंभीर कैंसर भी उनके मनोबल,जिजीविषा और सृजनशीलता को तोड़ न सका बल्कि हाल की उनकी कविताओं, मसलन दिल्ली मेट्रो पर लिखी गई रचनाओं ने उनके प्रशंसकों और समीक्षकों को चमत्कृत किया था क्योंकि उनमें दैन्य और पलायन तो था ही नहीं, उलटे एक नयी भाषा, आविष्कारशीलता, जीवन्तता और अन्य सारे कवियों को चुनौतियाँ थीं.

जब डॉक्टरों ने उनसे स्पष्ट कह दिया कि दिल्ली का इलाज छोड़ कर बरेली लौट जाना ही ठीक है तो उन्होंने हँसते हुए कहा था कि ठीक है, अब मैं निश्चिन्त होकर अपनी आख़िरी कविताएँ लिखूँगा – शायद लिखीं भी. पिछले छः वर्षों से उनका कोई संग्रह नहीं आया था, अब तो दुर्भाग्यवश सम्पूर्ण कविताएँ आ सकती हैं. लेकिन वीरेन का जाना नियति का अन्याय ही कहा जाएगा. मुक्तिबोध, रामकृष्ण श्रीवास्तव, केशनी प्रसाद चौरसिया, सतीश चौबे, धूमिल, रघुवीर सहाय, मलयज और नवीन सागर की असामयिक मृत्यु के बाद वीरेन के निधन ने हिंदी और भारतीय कविता का अकूत नुकसान किया है.
(Viren Dangwal Birthday)

हिन्दी कवि-अनुवादक-चिन्तक-अध्येता विष्णु खरे ने यह लेख अपने अतरंग मित्र वीरेन डंगवाल को याद करते हुए लिखा था. इसे कबाड़खाना ब्लॉग से साभार लिया गया है.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago