पंचेश्वर बांध प्रभावित क्षेत्र की परिस्थितियों को समझने के लिये हमने अक्टूबर 2018 में 13 से 19 के बीच क्षेत्र की यात्रा की. इस यात्रा में मेरे अलावा चार अन्य महिलायें उमा भट्ट, माया चिलवाल, ज्योति सनवाल और रेनू शामिल थे.
हमारी यात्रा का पहला पड़ाव जौलजीवी था हम देर रात जौलजीवी पहुंचे थे. रात के अंधेरे में होटल ढूंढने के लिये हम लोगों को खासी परेशानी झेलनी पड़ी. इस कवायद में हमने जौलजीवी का पूरा बाजार घूम लिया. कुछ लड़कों, जो उतनी देर हो जाने पर भी अभी बाजार में ही थे, हमें हमारे होटल तक का रास्ता बताया. जौलजीवी एक पिछड़े गाँव जैसा है. यहाँ कोई सुविधायें नहीं हैं. यह उन जगहों जैसा है, जो कभी-कभार ही पर्यटकों की शक्ल देखता है. होटल मालिक ने अपने मकान के नीचे के कुछ कमरों को होटल में बदल दिया है. इन होटलों को मिलम ग्लेशियर या इसी तरह की दूसरी ट्रेकिंग पर आने वाले लोगों के लिये ही बनाया गया है.
अगली सुबह जगने पर खिड़की के बाहर देखने पर धुंध की चादर में लिपटी हुई काली नदी दिखायी दी. अभी पानी कुछ कम है, इसलिये नदी के किनारे सूखे पड़े हैं जिनमें रेत और पत्थर ही बिखरे हुए हैं. नाश्ता करने के लिये जाते में ज्वालेश्वरी देवी का मंदिर दिख गया. इसके नजदीक जौलजीबी झूलापुल भी है, जो भारत और नेपाल को आपस में जोड़ता है. यहां हमारे साथ दो और साथी, खीमा दी और कवीन्द्र भाई भी जुड़ गये.
काली नदी के ऊपर काफी ऊँचाई में बना लगभग 160 मीटर लम्बा लोहे का यह पुल बहुत संकरा, परन्तु मजबूत है. भारतीय हिस्से की ओर बैठे पुलिस कर्मचारी ने आई कार्ड देखने के बाद हमें पुल पार कर के नेपाल जाने की इजाजत दे दी, इस हिदायत के साथ कि ज्यादा देर वहां रुकना नहीं और पुल से कोई फोटो मत लेना. इस अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के खुले होने के कारण स्थानीय लोग इधर से उधर आते-जाते दिख रहे थे, कुछ व्यापार के लिये तो कुछ नौकरी के लिये. बच्चों का एक झुंड पढ़ाई के लिये भारत आ रहा था.
उस ओर नेपाल की एक पुलिस चौकी थी, जिसमें एक पुलिसकर्मी तैनात था. उसने मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत किया और बताया कि वह रहने वाला जौलजीबी के नजदीक भारत का है, मगर नौकरी नेपाल में करता है. अब परिवार महेन्द्रनगर में रहने लगा है. मेरी बहन की शादी भी भारत में ही हुई है पर उसका पति भी नेपाल में नौकरी करता है. पंचेश्वर बाँध के बारे में पूछने पर उसकी राय थी कि बांध नहीं बनना चाहिये, क्योंकि इससे बहुत कुछ डूब जायेगा. उसने बताया कि जो जमीन वाले लोग हैं, वे बांध बनने से खुश हैं परन्तु खेतीहर मजदूर इससे बिल्कुल भी खुश नहीं.
जौलजीबी में सरकारी इंटरमीडिएट स्कूल है जिसमें को एजुकेशन है. नेपाल से भी बच्चे पढ़ने के लिये बच्चे यहाँ आते हैं. पांचवी तक पढ़ाई के लिये शिशु मंदिर और पब्लिक स्कूल भी हैं. हमारी मुलाक़ात यहां शकुन्तला दताल से हुई. वह कई सामाजिक कार्यों से जुड़ी हुई हैं और प्रदेश कांग्रेस की उपाध्यक्ष रही हैं. उनका कहना था कि पंचेश्वर बांध के बारे में स्थानीय ग्रामीणों की राय लेने कभी कोई नहीं आया. अगर सरकार बाँध बनाना ही चाहती है तो हमें जाना ही होगा. परन्तु जमीन का मुआवजा अच्छा मिलना चाहिये. बांध बनने से हमारी परंपरायें बिखर जायेंगी. यहां के ज्यादा लोग व्यापार ही करते हैं, इसलिये उनके सामने कई तरह के आर्थिक संकट खड़े हो जायेंगे.
औपचारिक रूप से यात्रा शुरू करने में हमें काफी देर हो गयी थी, इसलिये हमने जोग्यूणा गांव तक टैक्सी से जाना तय किया. जोग्यूणा में हम खेतों में मूंगफली निकालने का काम कर रही कुछ महिलाओं से मिले. जिस पहली महिला से हमारी भेंट हुई, वे काफी बुजुर्ग थीं. अपना नाम बताने से उन्होंने सरासर इंकार कर दिया. कारण पूछने पर बताया कि जब मुझे विधवा पेंशन ही नहीं मिल रही है तो मैं नाम क्यों बताऊं! उन्हें सख्त नाराजगी थी कि इतने चक्कर लगाने और सारी औपचारिकतायें पूरी कर देने बावजूद उन्हें पेंशन मंजूर नहीं हो रही है. अन्य महिलाओं से बातचीत में पता चला कि पंचेश्वर बांध को लेकर उनकी कोई अपनी राय नहीं थी. इनको लगता है कि पति या बच्चे जो तय करेंगे वह सही होगा. हां, ये लोग अपना घर-द्वार, खेती-बाड़ी छोड़ कर नहीं जाना नहीं चाहते और चाहते हैं कि यदि जाना ही पड़े तो इन्हें इससे ज्यादा अच्छी जगह बसाया जाना चाहिये. शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरतों के लिये पिथौरागढ़, चम्पावत, बेरीनाग जैसे शहरों के भरोसे ही रहना पड़ता है. बच्चों को पढ़ाने के लिये बाहर भेजना होता है. महिलाओं के साथ कुछ युवा भी मौजूद हैं वे सब बाहर ही पढ़ाई कर रहे हैं. ये चाहते हैं कि उनके लिये स्कूल, अस्पताल और रोजगार की व्यवस्था हो ताकि उन्हें कहीं और न जाना पड़े.
इन लोगों से बात कर हम आगे बगड़ीहाट गांव की ओर बढ़ गये. यह गाँव जोग्यूड़ा ग्राम सभा में आता है. यहां लगभग 100 परिवार हैं. खीमा दी और कवीन्द्र भाई ने हमारे आने की सूचना पहले ही गांव के लोगों को दी थी सो हमारे पहुंचते ही लोग वहां मौजूद थे. हम लोग एक दुकान में जाकर बैठे तो वहीं कुछ महिलायें भी आ गयीं. हालांकि ये महिलायें काफी वाचाल हैं, पर बांध के नाम पर चुप ही रहती हैं. धीरे से कहती हैं- बांध के बारे में तो घर वाले ही तय करेंगे. हम इस बारे में क्या कहें ? यहां के लोग अपनी इष्ट देवी भगवती की पूजा करने के लिये नेपाल जाते हैं. इन लोगों के नेपाल में भी संबंध हैं.
80 वर्षीय कालू राम बांध नहीं चाहते हैं, वह कहते हैं कि
बांध विकास लायेगा लेकिन हमारे लिये यह विनाश लायेगा. इस तरह की जमीन हमें कहां मिलेगी. हां यहां का विकास न होने से पलायन हुआ है लोग नौकरी के लिये परिवार समेत यहां से जा चुके हैं. हमारे गांव में हरीश रावत और अजय टम्टा भी आये थे. उन्होंने कहा था कि वे बांध रोकने के लिये बात आगे बढ़ायेंगे. अब पता नहीं क्या हो रहा है.
दुकान में बैठे मनि राम और मोहन राम भी कालू राम के ही सुर में सुर मिला रहे हैं.
महिलाओं से जब शराब के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दबंग ढंग से अपनी बात कही- यहां शराब का बहुत चलन है. लगभग सभी पुरुष शराब पीते हैं. हमारे गांव में ही शराब की दुकान खुल गयी थी, पर गांव की महिलायें एकजुट हुई और शराब की दुकान को यहां से हटा कर जौलजीबी में खोलना पड़ा. खेती के बारे में उनकी सोच भी जोग्यूड़ा की महिलाओं जैसा ही था कि सुअरों और बंदरों ने खेती बरबाद कर दी है, इसलिये लोग खेती करना नहीं चाहते. शिक्षा के नाम पर एक इंटर कॉलेज है, पर उसमें शिक्षक ही नहीं हैं. सिर्फ दसवीं क्लास तक ही बच्चे स्कूल जा पाते हैं. अस्पताल यहां से दूर तितरी में है.
38 साल का युवक राम सिंह बिष्ट इस गांव का ग्राम प्रधान है. उसने भी कहा कि बांध नहीं बनना चाहिये और अगर बनता है तो सभी परिवारों को नौकरी और 50 लाख रुपया मुआवजा मिलना चाहिये. प्रधान ने बताया कि अभी तक उससे बाँध को लेकर कोई एन.ओ.सी. नहीं मांगी गई है.
बी.ए. प्रथम के छात्र मिलेश का कहना था कि हम टिहरी बांध का हस्र देख चुके हैं. जो लोग वहाँ से बेदखल हुए हैं, वे अभी तक कहीं जम नहीं सके हैं. पंचेश्वर बांध बना तो हमारा हाल भी टिहरी जैसा ही हो जायेगा. अन्य छात्र रूबी का कहना था कि नौकरी करने के लिये तो बाहर जाना ही पड़ता है, क्योंकि गांव में तो कुछ है नहीं. शिक्षा व्यवस्था से वह खुश नहीं है, क्योंकि वह अंग्रेजी पढ़ना चाहती है, मगर अंग्रेजी की सुविधा न होने के कारण उसे पॉलिटैक्निक की पढ़ाई करनी पड़ रही है.
अगला गाँव तितरी एक किमी. की दूरी पर है. रास्ते में गुरना गाड़ मिली, जो फिर काली में मिल जाती है. यहाँ भी हम एक दुकान में ही गये, जहां कुछ लोग हमसे बात करने के लिये इकट्ठा हो गये थे. यहां पर बांध को लेकर लोगों के विचार राजनैतिक दलों के आधार पर बँटे थे. बीजेपी से जुड़े लोग चाहते हैं कि बांध बने और कांग्रेस वाले चाहते हैं कि बांध न बने. परन्तु इससे इतर जब महिलाओं की अपनी ही कहानी थी. वे यातायात की सुविधा न होने से परेशान हैं. खेतों में काम करना कठिन है और उस मेहनत के हिसाब से उसके बदले बाजार में कुछ भी नहीं मिल पाता है. जानवरों ने खेती को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. बच्चियां स्कूल न होने से परेशान हैं. स्कूल न होने के कारण वे या तो अपनी पढ़ाई छोड़ दे रही हैं या फिर उन्हें बाहर के स्कूलों में जाना पड़ता है.
इन महिलाओं में से ज्यादातर यहां से जाने के लिये तैयार हैं. उन्हें लगता है कि यदि उन्हें जमीन का अच्छा मुआवजा मिल जाये और रहने के लिये दूसरी अच्छी जगह मिल जाये तो उन्हें यहां से चला जाना चाहिये. मगर कुछ अपना सब कुछ इस तरह छोड़ देने का अफसोस भी इनकी आंखों में झलकता है.
अगला गांव स्यालतड़ है. रास्ता गाड़ी वाला है, पर गड्ढों से भरा है और कई जगहों पर तो बुरी तरह टूटा है. गांव के एक मंदिर में नवरात्रि की पूजा चल रही है, मंदिर के सामने गांव के लगभग सभी लोग इकट्ठा हैं. बांध के बारे में तो यहां भी सबकी मिली-जुली राय है. अस्पताल इस गांव के लिये एक गंभीर मुद्दा है. लोगों का कहना है कि पिपली गांव तक 108 एम्बूलेंस आती है, पर यहां नहीं आती. आशा कार्यकर्ता खाली नाम मात्र के लिये ही हैं. उनके पास इंजेक्शन भी नहीं होते. गर्भवती महिला को पिथौरागढ़ ही जाना पड़ता है. बाकी समस्यायें इनकी भी हर गाँव जैसी ही हैं स्कूल, अस्पताल, सड़क और खेती…
ग्राम प्रधान निर्मला देवी का कहना है कि अगर उनके गांव को जमीन का उचित दाम मिला तो वे जमीन छोड़ने के लिये तैयार है. इन लोगों से अनापत्ति प्रमाण पत्र लिया जा चुका है. इसलिये इन लोगों की सरकार से मांग है कि वह इन्हें सही मुआवजा और पुनर्वास के लिये अच्छी जगह दिलवाये.
अब हम लोग द्वालीसेरा गांव की ओर बढ़ गये. द्वालीसेरा एक मैदान की बहुत फैला हुआ गांव है. काम करते हुये गांव की एक महिला दुर्गा देवी हमें कहती हैं कि हमारे गांव में तो किसी चीज की भी कमी नहीं है। हम तो अपना गांव नहीं छोड़ना चाहते हैं. हालांकि स्कूल यहां से दूर है और मुख्य बाजार के लिये भी इन लोगों को जौलजीबी या पिथौरागढ़ ही आना होता है. इन सब परेशानियों के बाद भी यहां की महिलाओं को गांव में रहना ही पसंद है.
इस दिन की रात हमने बगड़ीगांव में 85 बरस की एक बुजुर्ग महिला रूकमणि के घर पर बितायी. उनके घर में वह उनकी बहु दोनों ही रहते थे उनकी बहु को हाल ही में बच्चा हुआ था इसलिये रात में खाना बनाने की जिम्मेदारी हमने ली. रुकमणि कहती हैं उसकी बहु इण्डिया की नंबर वन बहु है.
अपनी बीड़ी पीने की आदत पर रुकमणि ने हमें बताया कि
बचपन में मेरे पिताजी मुझसे बीड़ी मंगवाते थे और जलवाते भी थे. उनके लिये बीड़ी जलाते समय में भी कश ले लेती थी और फिर ऐसे करते हुए मुझे बीड़ी पीने में मजा भी आने लग गया. बचपन से पड़ी ये आदत अभी तक नहीं गयी. काफी समय तक तो मैं सबसे छुप-छुप के ही बीड़ी पीती थी पर फिर बाद में सबके सामने ही पीना शुरू कर दिया. अब लोगों ने मेरा बीड़ी पीना स्वीकार कर लिया है.
अगली सुबह जिंदादिल रुकमणि से विदा लेकर हम सिनखोली गांव पहुंचे. सिनखोली में हमें दो किसान खेत में काम करते हुए मिल गये. दोनों पति-पत्नी हैं और खेती से ही गुजारा करते हैं. बांध को लेकर इन लोगों की राय भी वही है जो सबकी है. अच्छा पैसा मिल जाये तो जाने में कोई परेशानी नहीं है. इनका बेटा पूना में काम करता है. इन लोगों को इस बात का मलाल है कि उसे यहां पर कोई अच्छा रोजगार नहीं मिला इसलिये उसे पूना जाना पड़ा.
यहां के बाद अगला गांव डौडा था. यहां हमारी मुलाकात सड़क के किनारे दुकान चलाने वाले शेर सिंह से हुई. उनका कहना है कि इस गांव से पलायन बहुत कम हुआ है. लोगों के पास अपनी जमीनें हैं पर कुछ लोग हैं जो भूमिहीन भी हैं. इनका कहना है कि हमारा गांव काफी पिछड़ा हुआ है और कोई भी नेता यहां आना पसंद नहीं करते. स्कूल भी सिर्फ हाईस्कूल तक ही है और एक ग्रामीण बैंक है पर वो बहुत दूर है. यहां पानी की समस्या भी रहती है. डौडा गांव से खीमा दी और कविन्द्र भाई वापस लौट गये.
डौडा के बाद अगला गांव चकदारी था. इस गांव की प्रधान भी के महिला हैं. लोगों को उसका नाम भी नहीं पता है हां उसके पति का नाम जरुर पता है लोगों के लिये उसका पति ही प्रधान है. यहां के लोगों की भी वही समस्या है जो पिछले गांवों में थी.
अब हम रणुवा गांव की ओर बढ़ गये. रास्ते में पेड़ों पर लाल पताकायें लटकी हुई दिखी. ये उन लोगों ने बांधी हैं जो अपने ईष्ट देव को पूजने के लिये नेपाल नहीं जा सकते हैं वो यहीं से पूजा कर लेते हैं और इस तरह की पताकायें लटका देते हैं. इलाके के लोगों का भी नेपाल के साथ बहुत गहरा संबंध है लगभग हर गांव के लोग पूजा करने के लिये नेपाल जाते हैं या नेपाल के लोग यहां आते हैं. इन लोगों की नाते रिश्तेदारियां भी हैं नेपाल में इसलिये जितने भी गांवों में हम अभी तक गये हैं सबने नेपाल के साथ रिश्तेदारियां बतायी.
रणुवा गांव में हमें के.वी. कार्की जी का घर मिल गया. कार्की जी स्कूल में अध्यापक हैं. इन्होंने बताया इनके स्कूल में हाईस्कूल में पढ़ने वाले मात्र 7 बच्चे हैं और शिक्षक सिर्फ 4 हैं. बच्चों को मजबूरी में पढ़ाई के लिये पिथौरागढ़ जाना पड़ता है. इनका कहना है – लोग सुविधाओं की ओर भागते हैं और हम लोगों को सुविधायें पिथौरागढ़ में मिलती हैं. इस गांव के लोग तो बांध का विरोध कर रहे हैं. हम चाहते हैं कि हमें सुविधायें मिलें और हमारे गांव को ही हमारे रहने लायक बनाया जाये. हम दूसरी जगह जाकर कैसे सब कुछ फिर से शुरू करेंगे? कार्की जी के एक भाई हर सिंह कार्की हैं जो सेना में नौकरी करते हैं और इस समय लखनऊ में हैं. आजकल नवरात्रियों की पूजा के लिये गांव आये हुए हैं. उनका कहना है कि – मैं तो बहुत मजबूरी में सेना की नौकरी में गया. गांव में कुछ था ही नहीं. अब तो मेरा परिवार वहीं रहता है. लखनऊ में रह के मैं अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पा रहा हूं. यहां तो कुछ है ही नहीं इसलिये परिवार को यहां लाना नहीं चाहता हूं. हालांकि मेरी इच्छा बहुत होती है अपने गांव वापस आने की.
गांव में महिलाओं का कहना है कि उनको घास-पात लेने के लिये जंगल जाना पड़ता है पर जंगल के रास्ते भी ठीक नहीं है. कभी अगर कोई गिरती है या चोट लगती है तो उसके लिये बहुत मुसीबत हो जाती है क्योंकि यहां अस्पताल भी नहीं है इसलिये कोई भी दवा हम लोगों को नहीं मिल पाती है. इस गांव में पलायन खूब हुआ है. कुछ मकान तो बिल्कुल टूट ही गये हैं। इनमें रहने वाले यहां से गये तो अब वापस लौटना नहीं चाहते हैं. अगला गांव अमतड़ी है.
अमतड़ी बहुत छोटा सा गांव है और बहुत कम परिवार यहां रहते हैं. लगभग पूरा गांव ही पलायन कर चुका है. यहां एक परिवार में सिर्फ बुढ्ढे-बुडिया ही बचे हैं. बांकी के लोग सब यहां से पिथौरागढ़ चले गये हैं. गांव में न बिजली है न पानी. खेती के लिये पर्याप्त संसाधन न होने के कारण ये लोग खेती भी ज्यादा नहीं करते. मछली पकड़ के उसका व्यापार करते हैं. इन लोगों की आय का मुख्य साधन ये ही है.
जिनके घर पर हमने बात कि आज उनके यहां कोई आयोजन है सो उन्होंने हमें खाने का आमंत्रण दिया. हम खाना खाकर अगले गांव खर्कतड़ी की ओर बढे.
रास्ते में हमें तालेश्वर मंदिर मिला. तालेश्वर में हमें दो घास काट के ले जाती हुई महिलायें मिली. हालांकि इन्हें बच्चियां कहा जाये तो भी गलत नहीं होगा पर छोटी उम्र में ही शादी हो गयी और बच्चे भी हो गये. एक महिला तो इस समय भी गर्भवती है और ऐसी हालत में भी इतना कठिन काम कर रही है.
हम लोगों के इस तरह पैदल चलते देख उन महिलाओं को बड़ी दया आयी और बोली – अगर मेरा घर नजदीक होता तो मैं तुम लोगों को चाय पिला देती. उसने ही हमें बताया कि आगे रास्ते से चमलिया गाड़, तालेश्वर गाड़ और काली नदी का संगम दिखेगा. जब हम सड़क वाले रास्ते में आगे आ गये तो हमें इन तीनों नदियों के संगम दिखायी दिये. चमलिया गाड़ नेपाल से आती है और तालेश्वर गाड़ तालेश्वर मंदिर के पास से आती है.
गेठीगड़ा हमारा अगला पड़ाव था. यहां की ग्राम प्रधान देवकी गुवाड़ी हैं. देवकी के अनुसार उनके गांव से पलायन कम हुआ है. लोग बाहर जाना नहीं चाहते. गाँव में सुविधायें पर्याप्त हैं, गाँव सड़क मार्ग से जुड़ा है और झूलाघाट बाजार भी नजदीक ही है. आपात स्थितियों में वहाँ पहुँचना मुश्किल नहीं होता है. यहां से हम झूलाघाट को निकले.
झूलाघाट में हमारी मुलाक़ात शंकर सिंह खड़ायत से हुई. शंकर सिंह खड़ायत ‘महाकाली की आवाज’ नाम से वेबसाईट चला रहे हैं और लोगों का जनसर्थन हासिल कर रहे हैं. आज की रात हम झूलाघाट ही रुके.
सुबह हम जल्दी ही झूलाघाट पुल और उससे लगे नेपाल वाले हिस्से को देखने गये. इस समय बाजार में थोड़ी-बहुत ही हलचल है. झूलाघाट से लगा बाजार बहुत छोटा है पर यहाँ गहमागहमी बहुत है. लोग खरीद-फरोख्त में व्यस्त रहते हैं. यहीं पप्पू की दुकान है, जो रहते भारत में हैं पर व्यापार नेपाल में करते हैं. उनका कहना था कि बांध बनने से उनका व्यापार बुरी तरह प्रभावित होगा. यहाँ तो जमा हुआ काम है, मगर नई जगह में नये सिरे से व्यापार जमाना बहुत कठिन काम है.
झूलाघाट के ग्राम प्रधान सुरेन्द्र आर्या के अनुसार झूलाघाट के लगभग 70 प्रतिशत लोग बांध बनने के पक्ष में हैं. इसका कारण वे बताते हैं कि यहाँ के ज्यादातर व्यापारी बाहर से आकर यहाँ कारोबार कर रहे हैं, इसलिये बांध बनने या न बनने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. वे बताते हैं कि झूलाघाट पुल का उन लोगों के जीवन में बहुत महत्व है, क्योंकि अगर पुल बंद हुआ तो उन लोगों का जीवन भी रुक जाता है. ‘‘हमें भारत बंद से फर्क नहीं पड़ता, पर पुल के बंद होने से फर्क पड़ता है,’’ वे कहते हैं.
इसके बाद हम टैक्सी से कानड़ी गांव गये. गांव के प्रधान लक्ष्मण सिंह हैं. इस गांव में बंदोबस्त वाली जमीन बहुत ज्यादा है और ऐसे लोग भी बहुत हैं जो दूसरों की जमीन पर खेती करके अपना जीवनयापन कर रहे हैं. जब मुआवजा मिलेगा तो दूसरों की जमीन पर खेती करने वाले इन लोगों का क्या होगा? लक्ष्मण सिंह चाहते हैं कि सरकार को ऐसे उन लोगों के बारे में भी सोचना चाहिये.
इसी गाँव के मोहन राम अरुणाचल पुलिस से रिटायर हुए हैं. वे कहते हैं कि हमारे पुरखे लगभग 200 सालों पहले यहाँ आ गये थे. तब से हम दूसरों की जमीनों पर खेती करते आ रहे हैं. हर भूमिहीन परिवार के पास भी लगभग 20 नाली जमीन है, जिस पर खेती कर वह अपने लायक अनाज तो पैदा कर ही लेता है. थोड़ा दूध और सब्जी झूलाघाट बाजार में बेच लेता है. जब हमारे पास कुछ बचेगा ही नहीं तो हम कहाँ जायेंगे?
हमारी अगली मंजिल बलतड़ी है. तीन घंटे पैदल चलेन के बाद सुस्ताने के लिये हम एक घर के आंगन में बैठने लगे. कुछ पुरुष हैं, जो इन दिनों नवरात्रि की पूजा की तैयारी कर रहे हैं. एक पुरुष ने हमारे ऊपर पानी छिड़का और बोले- तुम औरतें अशुद्ध थीं, अब जल छिड़कने के बाद शुद्ध हो गयी हो. उसके बाद ही उन्होंने हमें आंगन में बैठने दिया. इस गांव के लोगों का बांध को लेकर स्पष्ट मत है कि अच्छा मुआवजा मिलना चाहिये और विस्थापन के बाद हमारे रहने के अच्छे इंतजाम होने चाहिये. अगर हमें ठीक मुआवजा नहीं मिला तो हम यहां से नहीं हटेंगे.
ग्राम प्रधान गोपी राम का कहना है कि मैंने अभी एन.ओ.सी. पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं. गाँव वालों ने एकमत से निर्णय किया है कि जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, हम हस्ताक्षर नहीं करेंगे. इन लोगों के भी देवता नेपाल में हैं और ये लोग पूजा देने नेपाल जाते हैं. नागार्जुन इनके देवता हैं, जिनके मंदिर में शादीशुदा महिलायें नहीं जा सकतीं.
इसके बाद हमें पीपलतड़ा गाँव जाना था. रास्ते भरे ढेरों कच्चे आम बिखरे पड़े थे और बेहिसाब रीठा भी. पीपलतड़ा में हमें एक बुजुर्ग महिला और एक सज्जन व्यक्ति मिले, बुजुर्ग महिला को उसके बच्चे छोड़कर किसी शहर में रह रहे थे. हमें उस व्यक्ति ने बताया कि गांव में बहुत पलायन हुआ है अब शायद पांच या सात परिवार गांव में होंगे. उन्होंने कहा कि बांध से विकास नहीं होगा विकास के लिये सड़क शिक्षा जैसी सुविधायें देनी चाहिये. हमें अब तड़े गाँव की ओर निकलना है.
आज की रात हमने तड़े गांव में बितायी. यहां हम सरस्वती देवी और सुरेश चंद के घर रुके. उनका बेटा रोशन शिक्षा के लिये पिथौरागढ़ में रहता है. उनके घर पर ही हमें बहुत से गांव वाले मिले.
यहाँ के ग्रामीण बांध बनने की बात से चिन्तित हैं. उन्हें डर है कि अगर बांध बना तो सरकार उन्हें सुविधायें नहीं देगी और उन्हें उनकी जमीन से हटा कर फुटपाथ पर डाल देगी. वे अपने जानवरों को अपने साथ कैसे रख पायेंगे ? दूसरा ठिकाना यहाँ जितना अच्छा तो नहीं ही होगा. रोजगार के यहाँ कोई साधन मौजूद नहीं हैं. लोग काली नदी से मछली पकड़ कर उन्हें झूलाघाट, वड्डा या पिथौरागढ़ की बाजार में बेचा करते हैं. जिनकी अपनी जमीनें हैं, उन्हें तो मुआवजा मिल जायेगा लेकिन दूसरों की जमीन पर खेती करने वालों का क्या होगा ?
बेहद उदासी के साथ रोशन कहता है – मैं 20 साल का हो गया हूँ और पैदा होने से ही सुनता आ रहा हूँ कि सड़क बनेगी और विकास होगा. पर अभी तक तो न सड़क बनी और न ही विकास हुआ है. अगर कभी कोई बीमार पड़ा है तो उसे कंधे में रख कर ले जाना पड़ता है.
अगले दिन हमें जलतूरी गांव की ओर बढ़ना है. जब हम पहुंचे गांव के मंदिर में नवरात्रि की पूजा चल रही थी. गांव में दीपक चंद ने हमें बताया – इस गांव में 60 परिवार हैं. पलायन कम हुआ है. स्कूल और अस्पताल की समस्या यहां भी अन्यत्र की तरह हैं. कुछ देर बातचीत के बाद हम ध्याण गांव की ओर चले गये. ध्याण से हमने जमतड़ी के लिये टैक्सी पकड़ी.
जमतड़ी के लिये सड़क नाममात्र की है. इतने बड़े-बड़े गड्ढे कि टैक्सी का पूरा का पूरा संतुलन ही खो जाता है. जमतड़ी से हम हल्दू गांव के लिये पैदल निकले. काफ़ी देर पैदल चलने के बाद नीचे एक गांव दिखायी दिया तो लगा कि शायद यही हल्दू है. हम लोग गांव तक पहुंचे तो मालूम पड़ा कि यह सौरिया गांव है. हल्दू गांव 2 किमी. पीछे छूट गया है. रात हमने सौरिया में ही काटी. गांव के लोगों ने हमारे रुकने और खाने का इंतजाम भी कर दिया.
यहाँ कुल 90 परिवार हैं. नजदीकी बाजार पिथौरागढ़ ही है, इसलिये इन्हें हर छोटे-बड़े कामों के लिये पिथौरागढ़ की ओर ही जाना पड़ता है. स्कूल जाने वाले रास्ते पर चौमू देवता का मंदिर है. जब कोई महिला या लड़की माहवारी में होती है तो उसे इस रास्ते का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता. स्कूल पढ़ने वाली लड़की स्कूल नहीं जा सकती और अगर किसी महिला को कहीं जाना है तो उसे घूम कर दूसरे रास्ते से जाना पड़ेगा.
इस गांव में पलायन कम हुआ है. धान, मक्का आदि फसलें अपने खाने भर के लिये हो जाती हैं. एक ग्रामीण का कहना है कि अगर बांध बना और हम लोगों को यहां से जाना पड़ा तो भी सड़क तो चाहिये ही. सड़क के बगैर हम अपना इतना सामान और जानवर लेकर कैसे जायेंगे ?
यहां से हम भौर्या गांव की ओर बढ़े. भौर्या गांव में लोगों से बातचीत करने के दौरान कुछ स्कूली बच्चे भी आ गये. उनका कहना था कि शिक्षा की स्थिति बहुत खराब है. स्कूल हैं नहीं और जो हैं उनमें अच्छी पढ़ाई नहीं हो पाती. एक महिला के अनुसार अस्पताल और सड़क की उन्हें सख्त जरूरत है. एक साधारण सा टीका लगाने के लिये भी क्वीतड़ जाना पड़ता है. यहाँ के लोगों की भी यही शिकायत थी कि नेपाल के पिछड़े इलाकों में तक सड़क आ गयी है, मगर हमारे हाल जस के तस हैं.
मनरेगा का पैसा भी पिछले तीन सालों से अभी तक नहीं आया है, इसलिये उसमें काम नहीं होता. पहले रोज का पैसा मिल जाता था तो अच्छा था. पर अब चैक से पैसा आता है इसलिये मिलता ही नहीं है. ये लोग अपने खाने के लिये और थोड़ा-बहुत बेचने के लिये मछलियां पकड़ लाते हैं. मगर काली नदी में नहीं पकड़ते. ओखलागाड़ में पकड़ते हैं. पिथौरागढ़ में बहने वाली ठूली गाड़ यहां आकर ओखलागाड़ बन जाती है. ये लोग भी पूजा आदि के लिये नेपाल जाते रहते हैं. इनके देवता भी चौमू हैं, जिनके सामने नजरें झुका कर रहना पड़ता है. नहीं तो वे लग जाते हैं और तब झाड़ने के लिये धामी को बुलाना पड़ता है. सौरया गाँव की ही तरह लड़कियों और महिलाओं को माहवारी के दिनों में अलग रहना पड़ता है.
इसके बाद ओखला गाड़ को पार करते हुए हम रौतगड़ा गांव पहुंचे. रौतगड़ा को जाने वाला पुल अब टूटने को है. उसे जुगाड़ तकनीक से अभी तक इस्तेमाल लायक बना रखा है. रौतगड़ा में हाइस्कूल है. आगे की पढ़ाई या तो बच्चे कर नहीं पाते या फिर उन्हें बाहर जाना पड़ता है. अस्पताल की यहां भी समस्या है. यहां से हम तड़ेमियां गांव की ओर निकल गये.
तड़ेमियां के हालात भी बाकी गांवों जैसे हैं. यहां गहत के दाल की अच्छी फसल हो जाती है. तड़ेमियां से हम पंचेश्वर की ओर उतर गये. कुछ देर के बाद हम सरयू और काली नदी का संगम पर स्थित पंचेश्वर मंदिर के सामने थे. मंदिर के बाबाजी से बातचीत की तो वे बांध के विरोधी निकले. उनका कहना था कि यहाँ बांध बन ही नहीं सकता. उनकी आस्था कि भगवान की शक्ति बांध नहीं बनने देगी.
2-3 किमी. का रास्ता तय कर हमने सरयू नदी पर बने पुल को पार किया और भकुण्डा गाँव पहुँच गये. रुकने के लिये एक होटल में कमरा किराये पर लेने के बाद हम टैक्सी से उस जगह पहुंचे जहां बांध बनने का काम चल रहा है. इस समय तक बिल्कुल अंधेरा हो चुका था. कुछ एक मजदूरों को छोड़ कर बाकी कुछ नजर नहीं आया. इन मजदूरों ने बताया कि फिलहाल यहां डायनामाइट लगा कर पहाड़ों को तोड़ने का काम चल रहा है.
अगली सुबह हमें अमरुवासेरा तक जाना था. सबसे पहले पत्थ्यूणा गांव आया, जहाँ हम प्रकाश चंद के परिवार से मिले. इन्होंने बताया कि हमारे पूर्वज मूलतः धनगड़ी गांव के हैं और पुश्तों पहले यहां आ गये थे. इनके देवता कैलपाल हैं. बांध बनने से बहुत ज्यादा खुश तो नहीं थे, मगर मनमाफिक मुआवजा मिलने पर इन्हें विस्थापित होने पर कोई एतराज भी नहीं था. इस गांव में भी इंटरमीडिएट तक ही विद्यालय है, इसलिये आगे की पढ़ाई नहीं हो पाती. अस्पताल भी एक बड़ी समस्या है.
गे सड़क का नाम नहीं है. पगडंडी जैसे रास्ते से होते हुए ही हम आगे बढ़े. पगडंडी वाले रास्ते पर चलते हुए ही हम लोग सिमलौदा, नैतिर और नेत्र सालान होते हुए अन्ततः अगरूवासेरा तक पहुंचे. अमरूवासेरा में हमारा टैक्सी वाला आ गया और फिर हम लोगों की नैनीताल की वापसी यात्रा शुरू हो गई.
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विनीता यशस्वी
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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