आजकल इग्लिश मीडियम में बच्चों को पढाने का चलन है. कहते हैं समय के साथ जरूरी है, बच्चों का विकास होता है वगैरह वगैरह कई तर्क हैं. ये सही है या गलत इस पर अपनी राय नहीं दे पाऊंगा. पाठकगण अपने-अपने हिसाब से निर्धारण कर लें. तब हमारा मुकाबला अंग्रेजी मीडियम से न होकर हिन्दी मीडियम से था.
(Village Memoir by Vinod Pant)
पर साहब हमने तो बिलकुल ठेठ पहाड़ी मीडियम से शिक्षा हासिल की है. हमसे पहले वालों ने भी की थी और हमसे कुछ बाद वालों ने भी की. आजकल के शहरी या गांव के बच्चों से तो मैं अपनी तुलना नहीं करूंगा क्योंकि ये सही भी नहीं होगी पर तत्कालीन शहरी बच्चों से तुलना करूँ तो हमारे ठेठ गांव के बच्चे किसी मामले में कम नहीं थे कहीं-कहीं तो हम उनसे आगे थे. बस एक दो ही जगह ऐसी थी जहां हम उनसे पीछे थे वो थी हमारी हिन्दी बोलचाल और शहर आकर कफरी जाना.
अब ये सभी के साथ हो सकता है नई जगह जाने पर. शहर आकर हम सोचते थे भबरी जायेंगे. हालाकि कुछ समय गुजारने के बाद हम शहरीपना सीख लेते. तो मैं बात कर रहा था पहाड़ी मीडियम की हालांकि तब मीडियम हमारा भी हिन्दी ही था पर यह चलता नहीं था.
हमारे गांव घर में हिन्दी तो थी नहीं, हमने मम्मी-पापा न सीखकर ईजा-बाबू से शुरुआत की थी. स्कूल में एडमिशन भी तब लेते थे जब पांच साल के हो जाते नर्सरी, केजी, केजी वन वगैरह कुछ नहीं था. कहीं-कहीं पर कोई बच्चा अगर कक्षा एक में कमजोर लगे या कक्षा के साथ न चल पाये तो ऐसे दो चार बच्चों को नान् एक (छोटा एक) में कहते. एक दो कक्षा तक पाटी और कमेट की दवात चलती थी कलम निंगालू या गाबी या पय्यां की बनाते. तीन चार पांच में स्याही और कलम होती थी.
(Village Memoir by Vinod Pant)
टीचर भी तब प्राइमरी में सर या मैडम या बहन जी गुरु जी न होकर पण्डितज्यू और पण्डित्याण ज्यू कहलाते थे जिसका उच्चारण हम पंडीज्यू पन्त्यांणज्यू करते. हमारे पडितज्यू-पन्त्यांणज्यू भी हमसे पहाड़ी में ही बोलते थे और हमने तो बोलना ही हुआ क्योंकि हिन्दी तो हमें आती ही नहीं थी. हिन्दी तो हमसे स्कूल में सिर्फ सैप बोलते थे. सैप मतलब जिला विद्यालय निरीक्षक. हमारे समय में एक नन्दी चौधरी जी आया करती थी जिन्हें हम सैप्याण कहते थे.
हमारे अध्यापक भी हमसे यही कहते थे कि भोल सैप्याण उणै, सब याद करबेर आया. वैसे अक्सर सैपा सैप्याणि अचानक बिना पूर्व सूचना के ही आते थे. सैप्याणि के आने पर सब अध्यापकों का व्यहार बदला सा रहता तो हम अचम्भित से रहते और डरे सहमे भी. कभी सैप्याण के सामने हरकत कर दी तो बाद में भेकुवे के सिकौड़ से हमारी सिकाई तय होती.
सैप्याण आकर हमसे हिन्दी में पूछती – अपना नाम बताओ?
खड़े हो जाओ.
हम खड़े हो जाते पर हिन्दी की झिझक के कारण नाम नहीं बता पाते थे. तब हमारे पण्डितज्यू कहते – नाम बतुनै कन् आपुण… भैसुल जस चै कि रौछै?
तब मरियल आवाज में हमारे मुंह से अपना नाम यूं निकलता जैसे कोई संस्कारी महिला मजबूरी में अपने जेठ का नाम ले रही हो. तब पण्डित ज्यू मैक्याते – जोरैलि बला… भात खैबेर नै ऐरये…
सैप्याणि ज्यू का अगला सवाल होता – तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है? चूंकि घबराहट बरकरार थी तो पिताजी के नाम के आगे श्री और पीछे जी लगाना भूल जाते और बिना सरनेम के ही पिताजी का नाम ऐसे बोलते जैसे पिताजी का नाम न बताकर बेटे का नाम बता रहे हैं. सैप्याण बड़ों के नाम के आगे श्री लगाकर बोलने की हिदायत देती और पंडितज्यू हमें खा जाने वाली निगाह से देखा करते.
(Village Memoir by Vinod Pant)
अब सैप्याण के तीसरे सवाल का जवाब हम आते हुए भी नहीं दे पाते क्योंकि एक तो हम घबराये हुए दूसरे मास्टर जी की आँखों के डराये हुए. तीसरा जवाब हिन्दी में कैसे दें क्योंकि सैप्याण हिन्दी में पूछती थी. हमारे पंडित ज्यू पन्डित्यांण ज्यू ने तो हमेशा हमें पहाड़ी में ही पढाया. पहले किताब में लिखे प्रश्न को पढते – एक पेड़ में दस आम थे, तीन गिर गये तो कितने बचे? फिर अनुवाद करके समझाते – एक बोट में दस आम भाय… कतु आम भाय? हम समवेत स्वर मे कहते – दस आम. पंडित ज्यू – (शाबास ) उमे बटी तीन आम झड़ ग्याय… कतु झड़ ग्याय? हम कहते – तीन…
पंडित ज्यू – होय… आब बोट में कतु आम रै ग्याय? हम कहते – सात…
ऐसे ही हिन्दी का पाठ भी पढाया जाता – यो दोहा में कबीरदासज्यू कुणीन… कि कुणीन…
ढूंग पुजबेर जै भगवान मिलना (पाहन पूजे हरि मिले)
तो मी कि पुजन्यू पहाड़ ( तो मैं पूजू पहाड़)
तैहै भल तो भीतरक जतार् भोय (ताते घर की चाकी भली)
इस तरह पढाया हम कभी नहीं भूलते थे. हम भी कक्षा में – सूसू या पॉटी जाने के लिए आधुनिक सभ्य शब्दों की जगह अपने शब्द ही बोलते थे – पंडित् ज्यू गध्यार जां. ये सांकेतिक शब्द ही पंडितज्यू के सामने हमारी सभ्यता थी वरना आपस में तो हम कहते – यार हगण लागि गे.
हां कभी किसी बच्चे के पेन्ट में ही सूसू या पॉटी करने पर हम भावातिरेक में डायरैक्ट पंडितज्यू को आवाज लगाकर कहते – पंडितज्यू यो खड़कू पैन्टै में हगभरी गो या यो महेशैलि पैन्टै में मुति हालौ. ये सुनकर जो पंडितज्यू अब तक आराम से कुरसी पर बैठे होते वो अपने नाक को दोनों उंगलियों से भीचकर कुरसी दो कदम पीछे खिसकाकर कहते – छि: गुवैन बास निकालि बेर नरूंण कर हालौ. चल घर जा…
(Village Memoir by Vinod Pant)
पंडित ज्यू को मासाब कहना हमने छठी से शुरू किया. छठी-सातवीं-आठवीं जिसे मिडिल कहा जाता था हमने अर्ध पहाड़ी मिडियम में पढ़ा. मास्साप तब कभी पहाड़ी कभी हिन्दी में बोलते थे. यहीं छठी में हमारी अंग्रेजी से मुलाकात हुई. पांचवीं पास करने पर हमें लगभग डराया सा जाता था – आब ज्यादे मेहनत करण पडैलि, आब छै बटी अंग्रेजी ले हूं.
नवीं-दसवीं यानी हाईस्कूल तक आते-आते हम भी थोड़ी- थोड़ी हिन्दी सीख चुके थे. पर बोलने में टूटी-फूटी ही बोलते थे. वो भी तब जब कोई शहरी बच्चा मिल जाय और हम हिन्दी बोलकर, हम भी जिगर रखते है टाइप उसको फील कराना चाहते.
अब जब हम इन्टर में आ गये. फर्राटेदार हिन्दी तो तब भी हमसे दूर ही थी. अब हम तक ये बात भी पहुंच चुकी थी कि हिन्दी बोलना आधुनिकता का परिचायक है. हिन्दी बोलने वाले एडवांस होते हैं तो हम भी अपने कस्बे के दुकानदारों से, केमू के कन्डक्टर से किसी अपरिचित से हिन्दी छौंक ही देते. तब एक परिस्थिति और थी जब हम हिन्दी बोलते थे वो थी जब लड़कियां आसपास हों. ऐसी स्थिति में हम अपनी तरफ से फर्राटे से बोलते और कोशिश करते उसमें पहाड़ी शब्दों का समावेश न हो पाये.
हालांकि जिन लड़कियों के आगे हम हिन्दी बोल रहे होते थे उनकी हिन्दी भी कुछ ऐसी ही थी – ओईज्या, जैसा जो हो गया कहा… छि: कितना ओच्छ्याट करती है रे ये पुष्पा… या फिर ज्यादा मत कर करना हां… बरमान फोड़ दूंगी तेरा… ऐसी वैसी जो क्या हूं मैं…
(Village Memoir by Vinod Pant)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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