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उत्तराखण्ड का पहला कृषि आपदा लोकगीत

सळौ डारि ऐ गैना, डाळि बोटि खै गैना. (Uttarakhand’s agricultural disaster song)

फसल पात चाटि गैना, बाजरो खाणों कै गैना.

सळौ डारि डांड्यूं मा, बैठि गैन खाड्यूं मा.

हात झेंकड़ा लीन, सळौ डारि हांकी दीन.

काकी पकाली पलेऊ, काका हकालू मलेऊ.

भैजी हकालू टोपीन, बौऊ हकाली धोतीन.

उड़द गॅथ खै गैना, छूरी सारी कै गैना.

भैर देखा बिजो पट, फसल देखा सफाचट.

पड़ीं छ बाल-बच्चों की रोवा-रौ;

हे नौनों का बुबाजी, सळौ ऐना सळौ!

भावार्थ है कि टिड्डी दल पहुँच गए हैं. पेड़-पौधों को खा गए हैं. फसल-वनस्पति सब चट कर गए हैं और इंसानों को बाजरा खाने के लिए विवश कर दिया है. पहाड़ियों पर और घाटियों में सब जगह टिड्डी दल हैं. सब लोग हाथों में टहनियां लेकर इन्हें हाँकने (भगाने) चलो. जो कुछ भी हाथ में हो उसे लेकर निकल पड़ो. बड़े भैय्या तुम अपनी टोपी से ही भगा लो और भाभी तुम अपनी धोती से. अरे देखो! उड़द, गहथ सब खा गए हैं. पूरी सार (खेतों की श्रृंखला) को इन्होंने हरियाली-विहीन कर दिया है. बाहर देखो, कैसा दुर्भाग्य आया है. सारी फसल सफाचट हो गयी है. बाल-बच्चों ने रो-रोकर हाहाकार मचा दिया है. हे! बच्चों के पिताजी, सुन रहे हो, टिड्डी दल आ गए हैं टिड्डी दल.

ये गढ़वाली गीत इतिहास की महत्वपूर्ण धरोहर है. ये प्रमाण है कि भारत में राजस्थान, गुजरात हरियाणा, पंजाब के साथ-साथ कभी उत्तराखण्ड के इस पहाड़ी भूभाग में भी टिड्डियों का आक्रमण हुआ था. ये गीत इस रूप में गोविंद चातक की पुस्तक गढ़वाली लोकगीत विविधा में संकलित है. इससे पूर्व अंग्रेजी अनुवाद के रूप में ये गीत नरेन्द्र सिंह भण्डारी के गढ़वाली गीत संकलन स्नो बाल्स ऑव गढ़वाल में वर्ष 1946 में प्रकाशित हो चुका था. ज़़ाहिर है गीत का रचनाकाल उससे पूर्व का ही है. दोनों रूपों में कुछ शब्दांतर मिलता है पर भाव एक ही है. हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया

1946 में प्रकाशित संकलन में अंग्रेजी भावानुवाद इस प्रकार है —

The locusts have come

Barley harvest they”ve destroyed

My little daughter”s father,

You drive them with your cap

I”ll drive them with my hood.

In wheat fields they are not so many

The barley field is full of them.

The locusts have come

My little daughter”s father,

Locusts have come.

इस गढ़वाली लोकगीत को उत्तराखण्ड का पहला कृषि आपदा गीत कहना सर्वथा उचित होगा. मेरा मानना है कि उत्तराखण्ड के गढ़वाल भूभाग में टिड्डी दल का ये आक्रमण 1926-30 की अवधि में हुआ होगा. कारण कि भारत पर हुआ टिड्डी दल का ये सबसे बड़ा आक्रमण था जिसमें एक करोड़ रुपए का तो अकेले फसल का ही नुकसान हुआ था साथ ही भारत का बड़ा भूभाग भी प्रभावित हुआ था.

1946 से पूर्व के भारत के प्रमुख टिड्डी आक्रमणों (टिड्डी महामारी के रूप में भी प्रचलित) को देखें तो ये 1812-1821, 1843-1844, 1863-1867, 1869-1873, 1876-1881, 1889-1891, 1900-1907, 1912-1920, 1926-1930 और 1940-1946 की अवधि में हुए हैं.

भारत में सर्वाधिक टिड्डी दल आक्रमण (172 व 167)  क्रमशः 1993 व 1967 में हुए. 1993 के 26 साल बाद इस वर्ष 2019 में भारत में टिड्डी दल राजस्थान में पुनः सक्रिय हए हैं.

टिड्डी (स्वबनेज) की कई प्रजाति पायी जाती हैं पर लघुश्रृंगीय टिड्डा (जिसकी विश्व में केवल छह प्रजातियां पायी जाती हैं) फसल-वनस्पति के लिए सबसे खतरनाक माना जाता है. इनमें से डेजर्ट लोकास्ट प्रजाति का प्रकोप ही भारत पर होता है. ये प्रवासी कीट 2000 मील तक उड़ान भरने की क्षमता रखता है. लाल सागर के दोनों ओर के रेतीले तट पर रहने और पनपने वाला ये कीट पाकिस्तान होकर मई-जून में भारत और अन्य देशों की ओर प्रवर्जन करते हैं. टिड्डी दल के एक वर्ग किमी में 400 से 800 लाख तक टिड्डियां हो सकती हैं. टिड्डी दल को अकाल सूचक भी माना जाता है और इनके बारे में कहा जाता है कि ये मारती नहीं हैं ये आपको भूख से मारती है. इनके प्रकोप को इस तरह भी समझा जा सकता है कि आकार में दिल्ली के बराबर का टिड्डी दल एक दिन में उतना भोजन कर सकता है जितना राजस्थान या मध्यप्रदेश की पूरी आबादी एक दिन में करती है. ग़जब़ का टेलीपैथिक कम्यूनिकेशन होता है टिड्डी दल में. इसे स्वार्म इंटेलीजेंस के नाम से अब अन्य क्षेत्रों में भी प्रयुक्त करने का प्रयास हो रहा है. किसी एक टिड्डे के शरीर से निकलने वाले रसायन की गंध से ही ये अपनी दिशा और रणनीति तय करते हैं.

एक छोटा सा टिड्डी दल एक दिन में उतना खा जाता है जितना 3000 इंसान खा सकते हैं. टिड्डी प्रकोप का एक आँखों देखा हाल 1915 में जन्मे प्रख्यात पत्रकार, साहित्यकार और इतिहासकार खुशवंत सिंह ने 97 साल की उम्र में लिखा था – “तब मैं स्कूल में पढ़ता था. लाखों की तादाद में ये टिड्डियां अफ्रीका से एशिया की ओर आई थीं और उत्तर भारत के आकाश पर छा गई थीं. आज कितने लोग ऐसे होंगे, जिन्हें उस टिड्डी दल की याद होगी? कितने लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने अपनी आंखों से उसे देखा होगा? जब आकाश में वह टिड्डी दल नजर आया था तो पहले-पहल तो मुझे लगा कि घनेरे बादल घिर आए हैं. लेकिन जल्द ही मैं समझ गया कि यह बादल नहीं, कुछ और है. टिड्डियां इतनी तादाद में थीं कि जल्द ही उन्होंने सूर्य को ढांक लिया और ठीक वैसा ही अंधेरा हो गया, जैसा पूर्ण सूर्यग्रहण के समय होता है. टिड्डियों ने दरख्तों और झाड़ियों पर हमला बोल दिया और देखते ही देखते हरे-भरे दरख्तों-झाड़ियों के स्थान पर केवल सूखी टहनियां बची थीं. फिर उन्होंने हरे चरागाहों की ओर अपना रुख किया. लोगों का घर से निकलना मुहाल हो गया था और वे इन टिड्डियों के मारे इतने परेशान हो गए थे कि उन्होंने इसे टिड्डी महामारी का नाम दे दिया था. उसके बाद कई सालों तक ऐसा रहा कि लोग टिड्डी दल का नाम सुनते ही अंदेशे से भर जाते थे. बहरहाल, हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें वास्तव में टिड्डी दल के आगमन से खुशी हुई थी.

पहले-पहल मुझे यह बड़ा अजीब लगा था, क्योंकि उनकी खुशी की वजह यह थी कि यह उनके लिए मुफ्त भोजन का बंदोबस्त था! टिड्डी दल के आगमन के दौरान वे अपनी छतों पर चढ़ गए थे और चादरों के जरिए ज्यादा से ज्यादा तादाद में टिड्डियों को पकड़ने में लगे थे. वे बहुत मजे लेकर उन्हें खाते थे, हालांकि टिड्डियों को खाने की बात सुनकर ही मुझे उबकाई आने लगती थी. बाद में जाकर मुझे पता चला कि मध्य एशिया में रहने वाले समुदाय परंपरागत रूप से न केवल टिड्डियों का भक्षण करते आ रहे हैं, बल्कि वे उन्हें खासा पौष्टिक और स्वादिष्ट भी मानते रहे हैं. ओल्ड टेस्टामेंट में भी टिड्डियों और जंगली शहद का भोजन करने वाले लोगों का वर्णन है. चीन जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में एक लोकप्रिय खाद्य सामग्री के रूप में टिड्डियों की खासी खपत होती है.“

चीनी कृषक जीवन संघर्ष पर आधारित, नोबेल पुरस्कार विजेता (1931) लेखिका पर्ल एस.बक द्वारा लिखे गए उपन्यास द गुड अर्थ में भी टिड्डी दल आक्रमण का वर्णन है. इसी नाम से 1937 में फिल्म भी बनी और फिल्म की अभिनेत्री लुईज़ रायनर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. इसी फिल्म से प्रेरित होकर ही महबूब खान ने हिन्दी की कालजयी फिल्मों औरत और मदर इंडिया का निर्माण किया था.

उत्तराखण्ड के साहित्य में इस गीत के अतिरिक्त सळौ (टिड्डी दल) का अन्यत्र वर्णन तो नहीं मिलता है किंतु प्रभाव इस तरह समझा जा सकता है कि गढ़वाली में तीव्र गति से झुण्ड के रूप में आने के लिए सळौ उपमान के रूप में स्थापित-प्रचलित है – सळौ जन डार.

गीत से एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी पता चलता है कि देश के अन्य हिस्सों की तरह इस भूभाग में टिड्डी दल प्रकोप को लेकर कोई अंधविश्वास व्याप्त नहीं था. गौरतलब है कि कई जगह टिड्डियों को महादेव का घोड़ा कह कर पूजा भी जाता था.

पिछले 90 वर्षों से उत्तराखण्ड में टिड्डी दल का कोई आक्रमण नहीं हुआ है पर इसका मतलब ये भी नहीं है कि इसका कोई खतरा नहीं है. वास्तविकता ये है कि ग्लोबल वार्मिंग और पहाड़ों से पलायन के प्रभाव से इसकी संभावनाएँ बलवती हो गयी हैं. लोकस्ट वार्निंग ऑर्गेनाइजेशन के कुछ केन्द्रों की स्थापना के अतिरिक्त टिड्डी प्रकोप का कोई प्रभावी समाधान अभी भी ढूँढा नहीं जा सका है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है कि यदि ये कीट किसी इलाके में एक बार घुस जाएं तो  इनका प्रकोप तीन साल जरूर रहेगा. उत्तराखण्ड में बाढ़, भूस्खलन, सूखा, जंगली जानवरों का आतंक जैसी बहुुत सारी कृषि आपदाओं का इतिहास और गीत-साहित्य में वर्णन मिलता है पर कम आवृत्ति के बावजूद कृषि आपदा पर जो पहला लोकप्रिय और सीख देने वाला गीत बना वो है – सळौ डारि ऐ गैना…

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं.

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Sudhir Kumar

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  • बहुत सुन्दर । टिड्डी दल के कारण फसलों को बरबादी के बारे में पढ़ा था लेकिन इस एतिहासिक गीत को पढ़ने पर दर्द भी महसूस हुआ। गढ़वाली गीत का भाव हिन्दी में देकर समझने में आसानी रही. वास्तव में 'आपदा गीत ' ही है यह.

  • इस समय मेरी आयु 65 पार कर चुकी है। बचपन में लगभग 10-12 वर्ष का रहा हूँगा, फसल कट चुकी थी। खाली खेतों में गाँव के अन्य बच्चों के संग जानवरों को चराने गए थे। दोपहर के बाद टिड्डियों का खेतों में आक्रमण। लोग चिल्ला चिल्ला कर उन्है भगाने का प्रयास कर रहे थे। थाली, कनिस्टर बजा बजा कर टिड्डियों को भगाया गया। पहली बार टिड्डी दल देखा था, उनके द्वारा किया जाने वाले नुकसान की हमें जरा भी भान नही था।
    आज समाचारों व आपके इस पोस्ट को पढ़ने पर बचपन की वह घटना अनायास ही स्मरण हो आया।

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