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स्माल इज ब्यूटी फुल : जैविक उत्पादन की ओर उत्तराखंड

शुमाखर की  बहुचर्चित किताब है, “स्माल इस ब्यूटीफुल.” भारत जैसे विविधता भरे खेती -किसानी के माहौल के लिए इस किताब में अनुभव किये गए प्रयोग और इस्तेमाल की जा रही तकनीक उन लाखों किसानों की दिनचर्या से मेल खाती है जो स्थानीय परिस्थितियों और उपलब्ध साधनों की मदद से अनाज, दलहन, मसाले, सब्जी उगाते रहे. फलों के पेड़ लगाते थे. यह उस मध्यवर्ती तकनीक या इंटरमीडिएट टेक्नोलॉजी की सिफारिश करती थीं जिसे किसान स्थानीय रूप से प्राप्त कर सकता था. इनकी मदद से उसे ना तो अतिरिक्त व अधिक लागतों का खर्च उठाना पड़ता और ना ही उन आयातित व महंगे साधनों की जरुरत पड़ती जो उसके बूते से बाहर होते या उसकी उपज की लागत में भारी वृद्धि का कारण बनती.  Uttarakhand towards Organic Production

हमारे देश में हरित क्रांति हुई. इसमें संदेह नहीं कि इससे न केवल पैदावार में भारी वृद्धि हुई बल्कि उपज के मामले में कुछ अपवादों को छोड़ आत्मनिर्भरता की ओर जाने का रास्ता भी खुला. पर इस कहानी का एक दूसरा पक्ष भी है जो दुश्चिंताओं से घिरा है कि उपज की जिंसों के चुनाव में देश की भौगोलिक व सांस्कृतिक विविधताओं को ध्यान में नहीं रखा गया. Uttarakhand towards Organic Production

अनाज और दालों  की नयी सुधरी किस्मों को खेतिहर के सामने  परोस  दिया गया. जो बड़े भूमिधारी थे, बाजार से रासायनिक खाद, कीटनाशक व सुधरे कृषि यन्त्र खरीद सकते थे. सिंचित भूमिधारी थे. अनाज की साफ सफाई  कर उसे बाजार में पहुंचा सकते थे,वही  इस प्रक्रिया से फायदा कमा गए. कृषि का फार्म सेक्टर तेजी से विकसित हुआ. पर इस विकास का अल्पांश भी छोटे मझोले किसानों को न मिला. फिर तेजी से हो रहे शहरीकरण से जमीन के भाव  बढ़ रहे थे. नयी कॉलोनी व प्लाट कट रहे थे. सड़कें बन रही थीं. कारखाने खुल रहे थे. जिसकी चपेट में खेती की जमीन भी आयी और जंगल भी. मैदान की दोमट, बलुआ दोमट, तराई भाबर में खेती -किसानी के झंझटों से परे हो अच्छे दामों पर जमीन बेच किसानों का एक नया कुलक वर्ग पैदा हो गया. जो आज के महानगरों में, मेट्रो शहरों में, समृद्ध कस्बों में अपनी पूरी ठसक भरी आनबान  के साथ  रहता है.

समृद्ध समाज का हर पैमाना अपनाने की होड़ है उसके भीतर. खेती-किसानी में प्रतिमान बनाने वाले पंजाब ने कई उड़ते पंजाब बना दिये. किसानों के बीच से उभर कर कई बाहुबली नेता उभरे, सत्ता के गलियारों में पहुंचे. उसी रफ़्तार से किसानों के जबरदस्त आंदोलन भी उभरे. कितने धरने कितने अनशन. हज़ार-हज़ार किलोमीटर पैदल चल जंतर मंतर तक पकड़ी गयी राह. जो धरती बंजर पड़ गयी, जहां आज भी पानी के लिए इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर रहना पड़ता है. जहां अब जमीन ने पैदावार देनी ही मंद कर दी. किसानों पर भरी कर्ज का बोझ डाल दिया.उसका फौरी इलाज ऋण मुक्ति का वायदा और फौरी मदद के रूप में सामने आया. असली समस्या तो वहीँ हैं की खेतिहर को अपने उत्पादन का वाजिब  दाम चाहिए जिसे कोई और ही हड़प रहा है. 

अब हिमालय के इलाके को देखें जहां कई तरह की समस्याओं से घिरा है हमारा कृषि-बागवानी-वन क्षेत्र. पहली बात तो यह कि भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी होती गयी. पहाड़ों की हर बारिश यहाँ की भूमि के कवक पर्त व जीवांश को समेटते हुए आगे बढ़ती है. कुरी, लेंटाना, गाजर घास जैसी एक्सोटिक झाड़ियां लगातार फैलती जा रहीं हैं. खरपतवार बढ़ती गयी. फिर कृषि विश्वविद्यालयों के पंडितों ने भी स्थानिक विशेषताओं को जाने बगैर नयी शोध और प्राविधि पर जोर दिया. रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कीटनाशकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया. जिन्हें  अधिक पानी भी चाहिए. फलतः मिट्टी में हानिकारक रसायन बढ़ते गए.

फसल अवशेषों को खपाने की जरुरत भी महसूस हुई जिसका जलाया जाना आज कई शहरों में गंभीर चिंता का कारण बना  है. नये तौर तरीकों से पैदावार भले ही मात्रात्मक रूप से बढ़ी दिखी हो पर उपज का स्वाद, देसीपन और गुणवत्ता गायब हो गयी. खेती के मित्र जीव सुरक्षित ना रहे और इनकी संख्या लगातार कम होती गई. इनके मूल में जैविक उत्पादों की लगातार घटती उत्पादकता रही. कार्बनिक खादों व जीवाणु खादों का प्रचलन व जैविक तरीकों से कीट व रोग नियंत्रण व मृदा संरक्षण क्रियाएं अपनाने का रिवाज हतोत्साहित हुआ. फसल चक्र में दलहनी फसलों को अपनाने की परंपरा ख़तम होती रही.

अधिकाधिक उत्पादन मिलने के फेर में फार्म सेक्टर की उन विधियों को अपनाने पर किसान को मजबूर होना पड़ा जो यह ध्यान नहीं रखती थीं कि गोबर खाद, कम्पोस्ट हरी खाद, जीवाणु कल्चर, जैव नाशियों, व क्राइसोपा जैसे बायो एजेंट से भूमि की उर्वरा शक्ति लम्बे समय तक बनीं रहती है. कृषि की लागत घटती है, उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ती है. 

जैविक खेती तो ऐसी ही सदाबहार कृषि पद्धति रही जो पर्यावरण के संतुलन, जल और वायु की शुद्धता, भूमि के प्राकृतिक रूप को बनाये रखनेमें सहयोगी, जलधारण क्षमता बनाये रखने में सक्षम थीं इसी लिए यह सदियों से कम लागत से लम्बे समय तक बेहतर उत्पादन देने में समर्थ बनीं रही. इन पर परम्परगत ज्ञान का ठप्पा लगा तो इसे पिछड़ेपन का संकेत माना गया.

जैविकीय सम्पदा को बचाये रखने की बात कहना बहुत आसान है. पर सच तो यह है कि भूमि संसाधनों के उपयोग में जैविक खेती को रासायनिक खेती में तुरंत बदला जा सकता है पर रासायनिक खादों और कीटनाशकों की आदत पड़ गयी जमीन को जैविक में बदलने में बहुत लम्बा समय चाहिए. रासायनिक खादों व कीटनाशकों के अंधाधुन्द प्रयोग से मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु समाप्त हो जाते हैं . उन्हें जैविक तरीकों से पुनः विकसित करने में फिर धैर्य चाहिए. छोटे व सीमांत जोत वाले किसानो का यही दुर्भाग्य रहा कि उन्होंने बेहतर उपज के लिए नये बीज, उनमें पड़ने वाले रसायन और कीटनाशकों से अपनी किस्मत बदलनी चाही. इनके लिए  नये यन्त्र, उपकरण, औजार, ट्रेक्टर,  थ्रेशर और उन्हें चलाने को ईंधन भी चाहिए जिन सब की कीमतें लगातार बढ़ती ही चली गईं .

कृषि विश्वविद्यालयों के किसान मेलों में भी बड़ी फर्मों द्वारा बनाये ऐसे यन्त्र उपकरण औज़ारों का प्रदर्शन होता रहा इस जंजाल में ऋण ले कर आवश्यक आदाओं को जुटाना और समय पर उसे चुका ना पाना किसानों की दुर्दशा की कहानी के पीछे है. किसान को अपने जीवन यापन के लिए हर साल बढ़ती उपज चाहिए इसलिए घटते उत्पादन को वह सहन नहीं कर पाते. अधिकांश स्वयं सेवी समूह और एन  जी ओ इस सरल सीधी बात के बूते तमाम वादे कर गए. कसमें खा गए कि वह अपनी नयी सोच और टीम टॉम से कायाकल्प कर देंगे. बेहिसाब फण्ड और अनुदान की  माया जुटती रही. कृषि विश्वविद्यालयों और सम्बन्धित प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक और शोध कर्ता भी बहती गंगा में हाथ धोते रहे. नामी जर्नल  में छपना, नयी रिफरेन्स व सन्दर्भ पुस्तकों का छपना बदस्तूर जारी रहा. तो साथ ही साथ लोक  सम्पदा और लोक वनस्पति के उजड़ने की रफ़्तार भी बढ़ती रही. 

सबसे बड़ा सवाल तो यह है की ऐसे कितने पादप-जीनों का संरक्षण हुआ जिनका प्रयोग दशकों से भोजन आवश्यकताओं के लिए स्थानीय स्तर पर किया जा रहा था? क्या इनका प्रयोग उन्नत किस्मों के विकास में किया गया.आंचलिक स्तर पर उगने वाली विशिष्ट प्रजातियां तो स्थानीय रूप से प्रचलित खाद पर आश्रित थीं. इनके विकल्प के रूप में उन्नत प्रजाति खेतिहर के आगे परोसी गईं. यह कई गुणा ज्यादा उत्पादन का वादा करती थीं. उन्हें रासायनिक खाद भी चाहिए थीं और कीटनाशक भी.इनका  उत्पादन बड़ी विशाल फर्मों के द्वारा होता था जो लागत से सौ-हज़ार गुना कीमत पर इन्हें बेचती रहीं. मुनाफा बटोरती रहीं. दोयम दर्जे की तकनीक का देश में आगमन हुआ जिनकी फितरत पूंजी प्रधान थी. ग्रामीण देहात के शिल्पकार, दस्तकार, कारीगर खेती में कोई बरकत ना पाते हुए अपना पारम्परिक हुनर कौशल छोड़ विकास को समर्पित फर्म, फैक्ट्री, कारखानों में अकुशल मजदूर बने. ग्रामीण इलाकों से प्रवास बढ़ा. स्थानीय वनस्पति का संरक्षण तो हुआ ही नहीं, उन्नत किस्मों के विकास में इनके प्रयोग की गुंजाइश की तो बात ही रहने दीजिये. खर पतवार की समस्या अलग से पैदा हुई जिनके विनाश के लिए फिर नए रसायन नये पेस्टिसाइड. मिट्टी की उर्वराशक्ति को बनाये रखने, उसकी जलधारण शक्ति को बचाये रखने, सब्जी मसाले, बागवानी को भी साथ -साथ जिन्दा रखने के लिए चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का रोपण स्थानीय समुदायों द्वारा किया जाता था. इसे सिरे से नकार वन विभाग, उद्यान विभाग के साथसाथ डिजास्टर की तरह उभरे अनगिनत विभाग जितना बजट उतना खेल खेलते गए. इनके बीच ना तो कोई समन्वय था और इनके कर्ताधर्ता अधिकारियों  को उस इलाके की पारिस्थितिकी की कोई समझ. ऊपर से किये जा रहे नियोजन ने एक ही तरीके को पहाड़, तराई – भाबर के लिए लागू कर दिया. बजट के महीनों में हो रहा यह खेल अब भी बदस्तूर जारी है.

सरकारी तबके से हट गैर-सरकारी क्षेत्र में भी जो स्वयं सेवी संस्थाएं हैं, एनजीओ हैं वह हमेशा नई शब्दावली और स्लोगन की लपेट में स्थानीय जन और संसाधन को अपनी लपेट में लेते हैं. कोई छोटी -मोटी  ट्रेनिंग, नये धंधे की आस, स्थानीय उत्पाद की पैकेजिंग व बड़े बाज़ारों में कई गुणा बड़े मूल्य पर उसकी बिक्री का खेल शुरू होता है. पर यह सिर्फ तब तक चलता है जब तक दाता एजेंसी द्वारा दिया अनुदान मिलता रहे. उसके बाद दो टिप्पे का यह खेल ख़तम. अब स्थानीय लोग भी ऐसी  ही किसी क्रीड़ा की आस में रहते हैं जो उन्हें बस मोटा मुनाफा दे जाये.  भले ही इसकी लपेट में कितनी ही दुर्लभ वनस्पतियां उजड़ क्यों ना जाएं. 

पहाड़ की जमीन जहां जीव जगत को धारक क्षमता देती है तो वहां की वनस्पति, बुग्याल व जंगल उस अवलम्बन क्षेत्र का सहारा  प्रदान करते हैं जिससे खाल ताल, नौले धारे अपना नियमित प्रवाह जारी रख सकें. उन पर स्थानीय निवासी निर्भर हैं. पर इस  हक़ हकूक से ले कर स्थानीय निवासियों, जनजातियों, वनवासियों के प्रति वन विभाग की सोच स्थानीय पारिस्थितिकी के विरुद्ध ही रही है. यह सवाल चुभते रहे हैं कि क्या वन सम्पदा का अवैज्ञानिक ढंग से दोहन नहीं हुआ? वृक्षारोपण में स्थानीय प्रजातियों का हिस्सा लगातार कम कैसे होता चला गया? क्यों लोक वानस्पतिक महत्व के पौंधों और लुप्त प्राय पौंधों के संवर्धन की  सोच ही गायब हो गयी? जबकि उपयोगी प्रजातियों को धार्मिक उपवन व स्थानीय देवता को समर्पित कर इनके संरक्षण की सोच स्थानीय निवासी जानते थे. जिसके रहते काफ़ी जंगल बचे भी. यह, वह अवलम्बन क्षेत्र है जहां से किसान को अपने पशुओं के लिए चारा व चूल्हा जलाने के लिए ईंधन मिलता रहा. साथ में स्थानीय रूप से उपलब्ध जंगल से मिलने वाले भेषज, जंगल में उगने वाले फल, कंदमूल जिनके उपयोग की  लोक परंपरा और व्यवहार पद्धति है. अब हर साल यही जंगल धधकते हैं. बहुमूल्य प्रजातियां नष्ट  होती हैं. इन्हें बचाने के ना तो पुख्ता इंतज़ाम होते हैं और ना ही ग्रामवासी धधकते जंगलों में सुलग रही दावाग्नि को बुझाने में पहले जैसी तत्परता दिखाते हैं.

स्थानीय जन और जंगल के बीच वनाधिकार के नियम उपनियमों के चंगुल में स्थानीय वनवासियों को लगातार प्रताड़ित करने की परम्पराओं ने स्थानीय समुदायों और वनस्पति के सह -संबंधों को तो खत्म किया ही है साथ ही स्थानीय रीति -रिवाजों, परम्पराओं, पूजापद्धतियों की उस धरोहर को भी खत्म  कर दिया है जिसमें स्थानीय सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ जैव -विविधता की सुरक्षा के संस्कार छुपे थे. 

उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन चक्र से जंगलों को अलग कर उनके कटान के विरोध से ही 27 मार्च 1973 को चिपको आंदोलन की शुरुवात हुई थी. जिसमें वनों के साथ स्थानीय समुदाय का एक स्थायी जीवन शैली -प्राप्ति भाव छुपा था. जंगलों से लोगों के अटूट रिश्तों को देखते हुए 7-7-1880  के शासन आदेश संख्या 702’फ ‘ की याद भी 1980 के दशक तक वनादेशों में बनी रही. जब यह दोहराया गया कि, “ऐसा प्रतीत होता  है कि परंपरागत तथा रूढ़ियों के द्वारा एक सर बोझ के रूप में ईंधन हेतु लकड़ियों का उपयोग काफी समय से होता आया है  तथा इस समय यह संभव नहीं लगता कि पुराने चले आ रहे ग्रामवासियों के परंपरागत अधिकार को समाप्त किया जा सके. 

छियालीस साल पूरे कर चुके चिपको से पहले भी जैव विविधता बनाये रखने के लिए जनता ने मुखर विरोध किया था. 1859 -1863 के बीच बंगाल में नील कि खेती का विरोध हुआ था. आजादी की  लड़ाई में ग्राम स्वराज की भावना देश के सात लाख गावों को आत्मनिर्भर बनाने की संकल्पना रखती थी. पर नियोजित विकास के क्रम मेंअंतर्संरचना को बनाने के लिए जिस रणनीति को अपनाया गया उसने धीरे धीरे नयी तकनीक और नयी आदाओं पर निर्भरता बनानी शुरू की. दूसरी योजना के महालनोबिस मॉडल से  गति  पकडे औद्योगिकीकरण का प्रभाव सीधे सीधे जल -जंगल -जमीन पर पड़ा. और शुरुवात हुई  नर्मदा बचाओ आंदोलन की जो आज भी अपनी बात कह रहा है. अप्पिको तथा साइलेंट वैली जैसे मुखर विरोध, उड़ीसा का नियमगिरि तथा वेदांता  के खिलाफ तमिलनाडु का तुतुकोडी आंदोलन चलते ही रहे हैं.

बावजूद इसके पर्यावरण के मानकों की उपेक्षा कर भारी व आधारभूत निर्माण बेहिचक होते रहे हैं. सड़कें बनने में विस्फोटकों का बेहिचक इस्तेमाल हुआ है. सडक के नीचे के हज़ारों खेत बोल्डर और मलवे चौपट हुए  हैं. नेपाल और भारत की गहन जैवविविधता वाले इलाके में पंचेश्वर बांध की प्रस्तावना साकार करने की कोशिशें परवान चढ़ती रहीं हैं. जनसुनवाइयों से विरोधी बाहर धकेल दिये गये हैं. पर्यावरणविद मौन रहे हैं. तन्द्रा में हैं. बुद्धिजीवी बहसों की नाप जोख कर रहे, अपने पूर्वाग्रहों के उनके भी कुलाबे हैं. और मीडिया भी तब जगता है जब बेहतर टीआरपी की उम्मीद बनीं दिखे. अख़बारों में वनवासियों और आदिवासियों द्वारा धरती और जंगल पर किये संघर्षों की ख़बरें बहुत सतही तरीके से सामने आ पाती हैं तो प्रगतिशील व प्रतिक्रियावादी उसी वैचारिक चेतना को जगाने में अपनी ऊर्जा लगाती रही हैं जहां से उन्हें कोई अपना सीधा फायदा होता नज़र आये. 

बावजूद इस उपेक्षा के पारिस्थितिकी वितरण संघर्ष चलते रहे हैं.  इनके मूल में संसाधनों और आय के मध्य की असमानता से पैदा होने वाली पर्यावरण की लागत और कुछ ही हाथों या संस्थाओं, प्रतिष्ठानों की ओर जाने वाला मुनाफा है. जाहिर  है की ऐसे लागत -लाभ ढांचे के पीछे जाति -वर्ग -नस्ल और लैंगिक असमानताएं भी विद्यमान होती हैं. जब जब प्रकृति दत्त संसाधनों का सीमा से अधिक प्रयोग किया जाता है  तथा कारखानों की वजह से प्रदूषण बढ़ता है तब तब धरती की धारक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. 

सीधे सीधे पारिस्थितिकी वितरण से उपजने वाला संघर्ष गांवों कस्बों शहरों में फैलता ही रहा है. इन पारिस्थितिकी वितरण संघर्षों की संख्या देश में 300 से अधिक हो गई है . जिनमें 57 प्रतिशत से अधिक आंदोलनों में वनवासी व आदिवासी समूह सक्रिय रहे हैं. विकास के ढांचे ने  जल जमीन और जंगल पर अतिक्रमण किया है. धरती की  धारक क्षमता के साथ अवलम्बन क्षेत्र  के सिकुड़ने के साथ ही दूसरा चिंताजनक पक्ष वनवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाना भी रहा है . हालांकि वनाधिकार क़ानून 2006 में वन भूमि तथा सामुदायिक वन अधिकारों को सुरक्षित करने पर जोर दिया गया था  पर  फरवरी 2019 में हुई सुनवाई में  वनवासियों की  अपनी भूमि से बेदखली जारी रही क्योंकि अनेकों नियम -उपनियमों की जटिलता से वनाधिकार के उनके दावे ख़ारिज हो गए. 12 सितम्बर 2019 को हुई सुनवायी में सुप्रीम कोर्ट में सिक्किम को छोड़ कर शेष समस्त राज्यों द्वारा अपना पक्ष प्रस्तुत भी कर दिया गया. अब अंतिम सुनवाई 26 नवंबर को होनी है. वस्तुतः वनाधिकार क़ानून में पहचान और सत्यापन के द्वारा ही जमीन पर वनवासियों के हक़ और वनों पर उनका अधिकार तय होना है. जैविक संस्कृति में  पर्यावरण के  सजीव तत्वों में समस्त वनस्पति व प्राणी जगत यानि फ़्लोरा -फोना  के साथ मुख्यतः वही वनवासी हैं जो अपनी आचरणपद्धतियों, रीति रिवाज, तीज त्यौहार , धर्मदर्शन, कलाकौशल से जमीन जल तथा वायु के एक विशिष्ट सांस्कृतिक रूप को निर्धारित ही  नहीं करते रहे बल्कि उसका विकास भी करते है. क्रमिक रूप से नियमित रूप से. 

जैविक जगत व उसके पर्यावरण को ले कर मुख्यतः तीन विचारधाराएं सामने हैं. विकास आचार नीति, संरक्षण आचार नीति और संवर्धन आचारनीति. हिमालय की संस्कृति संरक्षण  और संवर्धन आचार नीति का अद्भुत संयोग रही है जहां जैविक जगत से जुड़ निवासी अपने  को पर्यावरण का एक घटक मानते रहे.  पर जब विकास की नीतियों को स्थानीय समुदायों पर जबरन थोपा गया  तब उसमें पर्यावरण मात्र उपभोग की वस्तु बना कर रह गया.परंपरागत जिंस, बीज, खाद और पूरी लोक वनस्पति पिछड़ेपन की प्रतीक मान ली गयी.  बड़े पैमाने पर किये जा रहे उत्पादन से छोटे पैमाने पर किये काम टिक नहीं पाए. भूमंडलीकरण व उदारीकरण से भले ही सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि दिखाई दी हो पर विषमताओं की खाई बहुत गहरी हो गयी. आत्मनिर्भर होने की पूरी गुंजाइश वाला देश खेती के लिए विदेशी आदाओं और विदेशी तकनीक पर निर्भर हो गया. अरण्य संस्कृति के साथ जैविक खेती की  परम्पराएं भी लगातार अवमूल्यित हुईं . पर्यावरण से मैत्री दुर्बल पड़ गयी, लम्बे समय से चली आ रहीं परम्पराएं, मान्यताएं, रीतिरिवाज विकास और नियोजन के अति सामान्यीकरण लक्ष्यों में कहीं ठहर गए, लुप्तप्राय हुए. विकास ने जैव विविधता पर संकट खड़े कर दिये. स्थानीय उत्पाद तेजी  से  विनिष्ट हो गए.पर्वत प्रदेश अपनी अनाज, दाल , मसाले, सब्जी व फल , दूध की जरूरतों के लिए मैदानी भागों और बड़ी मंडियों के मोहताज हो गए. 

अभी परंपरागत कृषि में दो लाख एकड़ भूमि में उत्तराखंड में जैविक कृषि की जा रही है अब उत्तराखंड में जैविक खेती के लिए अलग से एक्ट पारित हो चुका है. इससे  किसानों को उनके जैविक उत्पादों  वाजिब कीमत भी मिलेगी तो साथ ही उत्तराखंड के जैविक उत्पादों को ब्रांड नाम भी मिलेगा. अभी उत्तराखंड में करीब 500 क्लस्टर हैं जिनमें पचास हज़ार किसान जैविक खेती से जुड़े हैं जो एक लाख अस्सी हज़ार क्विंटल  जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादन कर्ता है. इनमें गहत, मंडुआ, मक्का, सरसों,  भट्ट, राजमा, गेहूं, चावल, मसाले व सब्जी मुख्य हैं. जैविक उत्पादन परिषद के समूहों के साथ अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत, नैनीताल, पौड़ी, चमोली टेहरी, उत्तरकाशी व देहरादून  में जैविक खेती की जा रही है. ऐसे प्रावधान भी संभव हैं की बंजर व अनुपयुक्त पड़ी कृषि भूमि को भूमि-स्वामी लीज पर दे सके. इस विधेयक के द्वारा उत्तराखंड में जैविक खेती के न्यूनतम समर्थन मूल्य को भी तय किया जाना है. दूसरी ओर मंडी परिषद जैविक उत्पादों को खरीदने के लिए रिवाल विंग फण्ड भी स्थापित करेंगी. इस विधेयक से जैविक पदार्थो का क्रय-विक्रय तो होगा ही साथ में प्रोसेसिंग करने वाली एजेंसी पर भी निगरानी रखी जानी संभव होगी. इनमें एनजीओ  भी शामिल किये जायेंगे. यह संकेत भी दिये गए हैं कि जैविक उत्पाद के उत्पादक किसानों व संग्रहकर्ताओं से लागत व कीमत के पक्षों में की जा रही किसी भी प्रकार की बेईमानी व धोखाधड़ी पर कार्यवाही कर सजा और जुर्माने का भी प्रावधान होगा.

जैविक खेती को सबल आधार देने के लिए उत्तराखंड में अधिसूचित क्षेत्र के दस विकास खण्डों में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकोंको प्रतिबंधित व पशु चिकित्सा में प्रयुक्त दवाओं के साथ पशु चारे की बिक्री को विनियमित किया जाएगा. पशु आधारित खेती से ही जैविक कृषि संभव है. पहाड़ के किसान दूध-दन्याली के लिए पशुपालन करते रहे हैं. जैविक कृषि विधेयक के पहले क्रम में चिन्हित ब्लॉकों में रासायनिक खाद व खेती में प्रयोग होने वाले अन्य रासायनिक पदार्थ भी प्रयोग में नहीं लाये जायेंगे. अगर अधिसूचित क्षेत्र में प्रतिबंधित पदार्थों की बिक्री होती है तो कानूनी कार्यवाही होगी. जिसमें एक लाख का जुर्माना व साल भर की कैद भी हो सकती है. जैविक खेती खेतिहरों को बीज, प्रशिक्षण, बिक्री की साथ प्रमापीकरण की सुविधा भी प्रदान करेंगी. अभी जो भी किसान जैविक खेती कर रहे हैं, उन्हें इन पदार्थों की वाजिब कीमत नहीं मिलती. बाजार में मार्केटिंग का मायाजाल है जो शुद्ध व जैविक के नाम पर मोटा मुनाफा वसूल करते रहे हैं. साथ ही नकली व मिलावट वाले पदार्थ बेच उपभोक्ता के साथ भी ठगी करते हैं.

बागवानी को सुरक्षित रखने के लिए भी प्राविधान हैं. अब सरकारी नर्सरी को नर्सरी एक्ट में रख दिया गया है. यदि यह गुणवत्ता के मानकों पर खरी  नहीं उतरती तब पचास हज़ार रुपये का जुर्माना नर्सरी को देना होगा. अभी अधिकांश पौंध राज्य से बाहर से आती है अब इनकी गुणवत्ता की बिक्री के लिए कड़े नियम बनेंगे. नयी पौध नरसरी खोलने के प्राविधान भी होंगे. पौध गुणवत्ता के लिए संचालक जिम्मेदार होगा. नये फलदार पौंधों को पेटेंट भी कराया जाएगा. ऐसे में उत्तराखंड के दस विकास खण्डों से की जा रही यह पहल उन वनवासियों व अनुसूचित जनजातियों के समग्र लोकज्ञान व लोक वनस्पति पर गहरी समझ को पुनर्जीवित करने में उत्प्रेरक का काम करेंगी जो मध्यवर्ती तकनीक से बेहतर और कारगर उत्पादन का हुनर जानते थे. यह सचाई भुला दी गयी की  किसान ही अपने खेत खलिहान का वैज्ञानिक है. वह जानता है कि उसे अपने खेत में क्या इस्तेमाल करना है और अपने अनुभवों से वह यह भी सीख गया है कि कुछ अधिक उगा लेने के फेर में उसकी कैसी दुर्गति हुई  है. किसान को वाजिब कीमत मिलने वाला बाजार मिल जाये तो जैविक उत्पाद व जंगलों में पायी जाने वाली वनौषधियों, भेषजों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सबल आधार मिल सकता है.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषद अधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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