वो कढ़ती है, ये झोलती है: पहाड़ की झोली
15 साल की उम्र में पहली बार जब गांव में एक महीने से अधिक रहने का सुयोग प्राप्त हुआ तो बोडी ( ताई के लिए गढ़वाली संबोधन) दोपहर के भोजन में रोज झोली यानी झोई जरूर बनाती थी. दोपहर के भोजन में भात के साथ झोली अनिवार्य थी और कभी-कभी इसके साथ ताऊ जी की इच्छा एवं आदेशानुसार अतिरिक्त रूप से कोई दाल या गहथ का फाणा या चैंसा भी बन जाता था. टपकिया के रूप में घर के आगे उगी हरी सब्जी तो खैर साथ में होती ही थी. इसके अलावा घर की ही तीखी हरी मिर्च भी इस भोजन का हिस्सा होती थी. इतनी तीखी कि इसको खाते ही जीभ और कान झनझना जाएं और फिर अग्निशमन उपाय के रूप में झोली की ही कटोरी उठाकर उसका लंबा घूंट सुड़का जाता. इसके ऊपर से एक गिलास पानी भी. भोजन रसोई में ही पालथी मारकर होता था, लेकिन बोडी यज्ञोपवीत विहीन हम किशोरों व बच्चों को चूल्हे के दायरे से थोड़ा दूर ही रखती थी और खिसकाकर भोजन थाली हम तक पहुंचा देती थी. (Uttarakhand Food Jholi Bhat)
उन दिनों हमारे घर पर गाय व भैंस के ब्याहे होने के कारण दूध, दही, मट्ठा इफरात में था. हर तीन दिन के बाद चौथे दिन परया ( मट्ठा बिलोने का लकड़ी का गहरा पात्र) में छांछ छोली जाती थी. पूरा परया छांछ से भर जाता और एक पतीली भर के नौण ( मक्खन) भी हो जाती. छांछ बनने वाले दिन सुबह के नाश्ते में मंडुवे की रोटी, हरी सब्जी, ताजा मक्खन और लोटा भर छांछ मिलती, जिसे हम पहाड़ी पिसी लूण मिलाकर पीते. इस दिन गांव के कुछ दूसरे लोग भी घर पर आकर अपने लिए छांछ ले जाया करते थे. तब मैं अनुमान किया करता था कि शायद घर पर प्रचुर मात्रा में छांछ उपलब्ध होने के कारण ही रोज झोई बनाई जाती है. लेकिन मेरा यह अनुमान आगे चलकर गलत साबित हुआ. अगली बार जब मुझे गांव में लंबे प्रवास का फिर मौका मिला तो गाय-भैंस का दूध छूट गया था, लेकिन झोली बदस्तूर वैसे ही बन रही थी. पहले जो परिवार हमसे छांछ ले जाया करते थे, अब बोडी या भाभी उनके घर से अपनी जरूरत के लिए छांछ ले आती थी और उस छांछ से झोली बनाई जाती थी. (Uttarakhand Food Jholi Bhat)
भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है
इस अदला-बदली से मुझे पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बार्टर सिस्टम (परस्पर विनिमय व्यवस्था) और पशुपालन के महत्व को समझने में भी मदद मिली. पहाड़ की खेती हमेशा से ही अधिकांशतया असिंचित, कम उपजाऊ और बिखरे हुए जोतों वाली रही. अधिकांश गांवों में गुजारे भर का अनाज और थोड़ा-बहुत दलहन व तिलहन हो जाया करते थे. ये दलहन इतनी मात्रा में नहीं होते थे कि साल भर की दाल बन सके. इसका विकल्प बना पशुपालन. गांव के आसपास के जंगलों में चारे की प्रचुरता से गाय, भैंस, बकरी पल जाते. इनसे बच्चे-बूढ़ों के लिए दूध हो जाता. दही, छांछ और मक्खन बन जाते. ताजे मक्खन के इस्तेमाल के बाद बचे हुए से घी तैयार हो जाता. जो समय-समय पर भकार में संभाल कर रख लिया जाता और साल भर की जरूरत को पूरी करता रहता. विकल्पों की इन्हीं तलाश के बीच संभवतः झोली का आविष्कार हुआ होगा, जो कालांतर में स्थायी भाव से पहाड़ की रसोई में बैठ गई.
यूं तो झोली के पर्याय के रूप में कढ़ी लगभग पूरे उत्तर भारत में मौजूद है. उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली आदि प्रांतों में कढ़ी खूब खाई और खिलाई जाती है. पंजाब के लोगों की भी कढ़ी पकौड़ा पसंदीदा डिश है. गुजरात नी कढ़ी के भी चर्चे सुनते रहते हैं. हिमाचल में कढ़ी और झोली के बीच का एक व्यंजन चलन में है, जिसे रेड़ू या खेरु कहा जाता है. यह दही व प्याज के संयोग से बनता है. उत्तर भारत के बाजारों में दोपहर का सस्ता भोजन बेचने वाले ठेले-खोमचों में आप प्रमुख रूप से दो ही चीज पाएंगे – कढ़ी चावल और राजमा चावल.
लेकिन मूल घटक द्रव्य (छांछ) के एक ही होने के बावजूद उत्तराखंड में बनने वाली झोली और बाकी प्रांतों में बनने वाली कढ़ी के बीच कुछ मूलभूत अंतर हैं. पहला अंतर तो इनके नामों से ही ध्वनित होता है. कढ़ी कढ़ने की ध्वनि देती है. कढ़ना यानी काफी देर पकाने के बाद किसी द्रव्य का खूब गाढ़ा या कंडेस हो जाना. इसके विपरीत झोली से झोल शब्द ध्वनित होता है. झोल यानी पतला सा पानीदार होना. इससे स्पष्ट होता है कि कढ़ी अपनी संरचना में गाढ़ी होती है और झोई पतली. दूसरा फर्क यह है कि कढ़ी बनाने के लिए बेसन का इस्तेमाल किया जाता है, जबकि झोई बनाने में गेहूं या मंडुवे का आटा. कुछ इलाकों में झोई का एक परिवर्तित रूप पल्यो बनाया जाता है, जिसमें आटे की जगह झिंगोरे का इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा कढ़ी में उसकी शोभा बढ़ाने के लिए बेसन के पोपले से पकोड़े बनाकर डाले जाते हैं, जबकि झोई में यही काम मौसमी सब्जियों मूली, प्याज या काखड़ी से लिया जाता है. इन सबसे भी बड़ा अंतर इन दोनों के गुणधर्म में है. कढ़ी खाते हुए हम गले पर दबाव महसूस करते हैं. कढ़ी के साथ चावल के दो-चार गफ्फे नीचे जाते ही हमें हिचकी सी उठने लगती है और हमें भोजन के बीच में बार-बार पानी पीना पड़ता है. दूसरी तरफ झोई अपनी पतली संरचना के कारण सुड़ुक-सुड़ुक कर गले से नीचे उतरते हुए आंतों में धंसती चली जाती है. एक खास किस्म की तरावट का अहसास होता है. ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा तृप्त हो गई हो.
अगर किसी दिन आपका मन दोपहर के भोजन में चावलों के साथ कुछ खट्टा खाने का हो रहा हो तो कढ़ी के बजाय झोई को ही चुनिए. ये बनाने में आसान भी है और सुस्वादु भी. आइए कुछ आसान चरणों में सीखें इस पहाड़ी झोई को बनाने की विधि.
आवश्यक सामग्री ( चार से पांच लोगों के लिए)
छांछ- 1 लीटर
गेहूं या मंडुवे का आटा- 100 ग्राम
हल्दी- चौथाई चम्मच
लाल मिर्च पाउडर- आधा चम्मच
नमक- एक चम्मच
धनिया पाउडर- एक चम्मच
लहसुन- पांच-छह कलियां
साबुत लाल मिर्च- पांच-छह
खाद्य तेल- 30 मिली
जीरा या सरसों- चौथाई चम्मच
मेथी दाना- चौथाई चम्मच
हींग- चुटकी भर
मौसमी सब्जी मूली, प्याज या खीरा- 150 ग्राम
हरा धनिया- चार टहनियां
बनाने की विधि-
1-आटे को दही में भली-भांति मिलाकर फेंट लीजिए. इसमें हल्दी, मिर्च व धनिया पाउडर भी मिला लीजिए.
2-लहसुन की कलियों को बारीक काट-काट कर रख लीजिए.
3-यदि प्याज या मूली मिलाने जा रहे इन्हें लंबे आकार में काट लीजिए. यदि काखड़ी मिलानी है तो उसे कद्दूकस कर लीजिए और एक तरफ रख दीजिए.
अब चूल्हे पर कड़ाही चढ़ा लीजिए. कड़ाही के गर्म होने पर इसमें तेल डालें. साबुत लाल मिर्चों को इसमें तलकर अलग निकाल कर रख लीजिए.
कड़ाही में बचे गर्म तेल में जीरा, सरसों व मेथी दाने डालें. इनके हल्के भून जाने पर काट कर रखी गई लहसुन भी भून लीजिए. अब छांछ व आटे का घोल डालिए और इसे करछी से धीरे-धीरे हिलाते हुए एकसार कर लीजिए. पहला उबाल आने पर इसमें नमक व काट कर रखी गई सब्जियां डाल दीजिए. दो-तीन उबाल और आने दीजिए. तीन उबाल के बाद आपकी झोई तैयार है. चूल्हे को बंद कर दीजिए. झोई को गार्निश करने के लिए ऊपर से कटे हरे धनिये की पत्तियां और पहले से तल कर रखी गई लाल मिर्चे डाल दें. अब भात के साथ इस झोई का अलौकिक आनंद लें.
अगर झिंगोरे वाला पल्यो बनाने जा रहे हैं तो इसके लिए लगभग 100 ग्राम झिंगोरा दो घंटे पहले ही भिगोकर रख दें. पकाने की शेष विधि एवं क्रियाएं यही रहेंगी. इसमें मूली आदि डालने की आवश्यकता नहीं. सिर्फ लिज्जत बढ़ाने के लिए हरे धनिये की मात्रा दोगुनी-तिगुनी कर लीजिए और इस धनिये को पहला उबाल आते ही झोई में डाल दीजिए.
चलते-चलते
इस लेख में कहीं झोली शब्द लिखा गया है और कहीं झोई. गढ़वाल मंडल में इसे झोली कहते हैं और कुमाऊं मंडल में झोई. स्वाद, सुगंध, संरचना और अनुभूति में दोनों एक ही हैं, सिर्फ भाषांतर से यह गढ़वाल में झोली हो गई है और कुमाऊं में झोई. दरअसल कुमाऊनी में अंत में ल अक्षर वाले शब्दों में ल का लोप हो जाता है और उसकी जगह किसी स्वर का उच्चारण होता है. उदाहरण के लिए गढ़वाली में जो स्याल (सियार) है, वो कुमाऊंनी में स्याव या स्याऊ हो जाता है. इसी प्रकार दाल का उच्चारण दाव या दाउ हो जाता है. ल के लोप की इसी क्रिया में शायद झोली, झोई बन गई.
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चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखेंगे.
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हमारे कुमाऊँ में तो पल्यो ही ज्यादा सुना था हां गढ़वाल में झोली ही कहते हैं। पर अब तो कुमाऊँ हो या गढ़वाल....कढ़ी ही सब लोग कहते हैं जो शहरों से पहाड़ गया हुआ शब्द है।
हमारे गांव में कुमाऊंनी में यह झोली ही कहलाती है। दाल को हम दाल ही कहते हैं और सियार को श्याळ। मूसल हमारे यहां मुशव नहीं होता, मुशळ ही रहता है।
बैंजवाल जी हमारी टास्ट बड्स को लगातार जाग्रत कर रहे हैं, उनका भौत्तै आभार। थेच्वा तो हम बनाते-खाते ही आ रहे हैं लेकिन उनकी लिखी विधि से बनाने में स्वाद में निखार आएगा। पहाड़ से दो-मूली की आस लगाए हैं। आ जाएंगी उसी दिन बैंजवाल जी की विधि से थेच्वा बना लेंगे।
हम तो अभी भी झोली भात ही कहते हैं,जो बहुत हिट व्यंजन है,पकौड़ा झोली भी बनती है,मूली झोली और प्याज वाली भी।