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कल फिर आएंगे अंकल जी

अंकल और मैं बैठे धूप खा रहे हैं. अंकल, यानी मेरे पिता के बड़े भाई और परिवार के सबसे मूर्ख सदस्य. कुछ लोग चुप रहना जानते हैं, पर अंकल नहीं. अंकल अपनी मूर्खता के जग-प्रदर्शन में विश्वास करते हैं.

“बड़ों का आशीर्वाद लगता है, क्या कह रहे हो तुम?” अंकल अपनी नाक को टटोलते हुए कहते हैं. मैं नज़रें हटा लेता हूँ. “मुझे ही देख लो. क्या था मेरे पास? बाबू को हमेशा फ़िक्र लगे रहने वाली हुई मेरी.”

“वो क्यों?” मैं शिष्टतावश पूछता हूँ.

“दिमाग ही नहीं हुआ मेरे पास!” अंकल पैंट से अपने हाथ पोछते हुए कहते हैं, फिर मेरी तरफ देखने लगते हैं. “एक बार किसी ने कहा उसे बैंगन पसंद नहीं है, मैंने बैंगन खाना छोड़ दिया — अब लगा लो तुम!” मैं मुस्कुरा भर देता हूँ. “तभी तो मैं कहता हूँ बड़ों का आशीर्वाद लगता है … नहीं तो मैं यहाँ होता — हो ही नहीं सकता था ! हमने तो बड़ा मुश्किल समय देखा है ना…” अंकल थोड़ा रुक कर कहते हैं. “क्यों, बचपन में छल लग गया ठहरा मुझे — इसी से तो मैं इतना कमजोर हो गया ! नहीं तो बहुत ही खाने वाला हुआ मैं. इजा थक जाने वाली हुई रोटी डालते डालते. लेकिन पेट में कुछ जा ही नहीं रहा ठहरा !”

“वो क्यों?” मैं पूछता हूँ.

“वो खा जा रहा ठहरा सब!”

“वो कौन?”

“अब जो भी होगा…” अंकल टालने के अंदाज़ में कहते हैं.

मैं सर हिलाता हूँ.

“तो फिर आपने क्या किया?”

“बाबू ने भेजा फिर किसी को लाने … तुम्हारे मालकोट के रास्ते में जो गधेरा नहीं पड़ता, जहाँ से चढाई शुरू होती है — गए हो तुम कभी वहां?” मैं हाँ में सर हिलता हूँ. “वहीँ लगा ठहरा … कभी जा रहा होऊंगा वहाँ से — डरने वाला हुआ ही मैं — पकड़ लिया उसने !”

“अरे बाप रे.”

“तभी तो मैं कह रहा हूँ, हमने बड़ा मुश्किल समय देखा है.”

“लेकिन आपको कैसे पता चला ये सब?”

“उसी ने बताया — स्वैण आया ना उसे.”

“अच्छा.”

“हाँ … रात को उसने पान और सुपारी रख दी तकिये के नीचे — सुबह उसे स्वैण आया. फिर जब उसने मुर्गा मंगाया — वो आठवें चक्कर में टें बोल गया!”

“मतलब?”

“अरे उसने मुर्गा मगाया ना … मुर्गे को पेड़ से बाँध दिया … मुर्गे ने पेड़ के सात चक्कर लगाए, आठवें में चित्त !”

“नहीं तो!”

“मैं बता तो रहा हूँ, हमने तो बहुत मुश्किल समय देखा है … फिर भी एकदम कहाँ ठीक हुआ मैं, समय लगा … हाँ, एक बार जब नौकरी में आ गया, फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया.”

“देर आये दुरुस्त आये.”

“रोटी का जुगाड़ हो गया, फिर और क्या चाहिए?”

“हाँ, ये तो है … चलें फिर,” मैं कहता हूँ. अंकल उठ खड़े होते हैं.

वो कल फिर आएंगे.

–निखिल पाण्डे

निखिल पाण्डे हल्द्वानी में रहने वाले युवा लेखक हैं. अधिकतर लेखन अंग्रेज़ी में करने वाले निखिल ने दिल्ली से अपनी पढ़ाई की और फिलहाल पूर्णकालिक लेखन करते हैं.

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