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पर्यावरण-चिंतन के प्रकाशस्तंभ सुंदर लाल बहुगुणा का अवसान

गंगा के अविरल प्रवाह के लिए संघर्षरत ऋषि ने उसी के दक्षिणी तट पर प्राणों की पूर्णाहुति के साथ अपने जीवन को विराम दिया. 95 वर्षीय पर्यावरण संत, सुंदर लाल बहुगुणा 8 मई 2021 को एम्स ऋषिकेश में भर्ती हुए थे. उन्हें कोरोना और निमोनिया की शिकायत थी. स्थिति लगातार गंभीर थी पर जैसे वे किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे. ये प्रतीक्षा थी गंगा के जन्मदिवस की. इसी महीने की 18 तारीख को गंगासप्तमी थी, गंगा का जन्मदिवस. मान्यता है कि इसी दिन गंगा स्वर्गलोक से उतर कर शिवजी की जटाओं में पहुँची थी. गंगा के पुनर्जन्म दिवस के रूप में भी इसे जाना जाता है.
(Tribute to Sundar Lal Bahuguna)

उनसे पहला परिचय स्कूली जीवन में हुआ था. उस दिन सफेद दाढ़ी और सर पर सफेद पट्टा बांधे हुए वो शख्स पहली नज़र में कोई मदारी-सा लगा था. किसी रोचक खेल-तमाशे की उम्मीद जग गयी थी. ये देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने सबसे पहले ब्लैकबोर्ड और चाक की मांग की. फिर उन्होंने जो प्रस्तुत किया उसे न भाषण कह सकते हैं और न लेक्चर. परिवेश और पर्यावरण की आधारभूत समझ का उन्होंने रेशा-रेशा खोल कर समझा दिया था. एक तरह से समझ की भूख जागृत कर दी थी. लगभग एक घंटे के संवाद के बाद मेरी स्वयं के लिए पहली प्रतिक्रिया ये थी कि सारे शिक्षक ऐसे ही क्यों नहीं होते हैं. और ये भी कि जब सीखना-सिखाना इतनी आसानी से हो सकता है तो फिर इन मोटी-मोटी किताबों की जरूरत क्या है. 

बाद में टिहरी स्थित टनल्स के ठीक ऊपर बनी उनकी झोपड़़ीनुमा गंगा कुटीर में उनसे एकांत में भी मिलने और बहुत से मुद्दों को समझने का भी अवसर मिला. उनकी उदारता थी कि वे मेरे बचकाने सवालों  की दिशा भी ठीक करते थे और संतुष्ट करने वाले उत्तर भी देते थे. भागीरथी के भीषण शोर में एक सवाल तो यही था कि क्या आपको रात के अँधेरे में यहाँ डर नहीं लगता है. उत्तर में उन्होंने सवाल दाग दिया था कि माँ की गोद में डर लगता है क्या. सुकून मिलता है, अभय का विश्वास मिलता है. डर, गंगा के अविरल प्रवाह को रोकने के प्रयास को देख कर लगता है. प्रकृति की प्रवृत्ति डराने की नहीं है. उसके पास समस्त जीवों के लिए आश्रय है, पोषण है और ममता भी है. ये देखना भी सुखद लगता था कि उनकी अर्द्धांगिनी बिमलाजी सिर्फ़ उनकी व्यक्तिगत जरूरतों का ही ध्यान नहीं रख रही थी बल्कि वैचारिक संवाद में भी एक निष्णात की तरह प्रतिभाग कर रही थी.
(Tribute to Sundar Lal Bahuguna)

सुंदर लाल बहुगुणा जी की ख्याति पर्यावरणविद् के रूप में अधिक है पर वे बहुआयामी व्यक्तित्वसंपन्न थे. वे स्वतंत्रता सेनानी भी थे और टिहरी रियासत का विरोध करने वाले प्रजामंडल के वैचारिक स्तम्भ भी. प्रखर चिंतक भी थे और धाराप्रवाह वक्ता भी. राजनीतिज्ञ बनने के लिए उनके पास आवश्यकता से अधिक गुण थे, शीर्ष कांग्रेसी नेताओं और बलिदानी श्रीदेव सुमन से निकटता भी. फिर भी राजनीति से उन्होंने दूरी बनाये रखी. सरला बहन की शिष्या पत्नी ने विवाह ही इस शर्त पर किया था कि वे राजनीति से दूर रहेंगे. फिर राजनीति के नियंत्रक की भूमिका उन्हें अधिक अनुकूल भी लगी. गाँधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण को आदर्श निर्धारित करने वाले के लिए राजनीति का द्वार स्वतः ही बहुत संकरा हो जाता है. टिहरी नरेश से भारत संघ में विलय को लेकर बातचीत के लिए तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने उन्हें ही मध्यस्थ वार्ताकार बनाया था. सुंदर लाल जी सिद्धहस्त पत्रकार भी थे. ये उनकी कलम का ही असर था कि वैश्विक मीडिया उनकी अगुआई में चले चिपको आंदोलन के प्रति आकर्षित हुआ. पर्यावरणविषयक मुद्दों को वे विज्ञानसम्मत तर्क और जनसम्मत भावना के साथ प्रस्तुत करने में निपुण थे. वे एक कुशल पदयात्री भी थे. उनकी ढेरों पदयात्राओं के बीच कश्मीर से कोहिमा की पदयात्रा सबसे कठिन और चर्चित रही. हिमालय को समग्रता में समझने की ललक ने उन्हें इस यात्रा के लिए प्रेरित किया था.

9 जनवरी 1927 को मरोड़ा टिहरी में जन्मे बहुगुणा विलक्षण बुद्धिसम्पन्न थे. उनकी शिक्षा, तत्कालीन उत्तर-पश्चिमी भारत के शिक्षा के सबसे बड़े केंद्र लाहौर शहर में हुयी थी. लाहौर से भारत वे आज़ादी के बाद ही आये. गाँधीवाद को उन्होंने इस हद तक आत्मसात किया कि वे पर्वतीय गाँधी कहलाने लगे. पिता और ससुर के फॉरेस्ट ऑफिसर होने के बावजूद उनका खानपान और रहन-सहन एक आम किसान की तरह का था. सादा और सात्विक.

अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी ने उनके योगदान को, वैकल्पिक नोबल राइटलाइवलीहुड पुरस्कार प्रदान कर सराहा. ये प्रतिष्टित पुरस्कार बहुगुणा से पहले सिर्फ़ तीन ही भारतीयों को प्राप्त हुआ था. भारत सरकार ने न सिर्फ़ उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया बल्कि उनके सुझावों को भी पर्यावरण नीति में शामिल किया.
(Tribute to Sundar Lal Bahuguna)

मात्र विरोध के लिए विरोध उनका किसी भी आंदोलन का उद्देश्य कभी नहीं रहा. वे समाधान भी सुझाते थे. टिहरी बाँध का विरोध किया तो साथ ही विकल्प भी सुझाया – धार ऐंच पाणी ढाल पर डाळा, बिजली बणावा खाळा खाळा. जंगलों के आर्थिक-दोहन का विरोध किया तो उनके असली उपकार भी गिनाये – क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और बयार. मिट्टी पानी और बयार, ये हैं जीवन के आधार.

सुंदर लाल बहुगुणा के निधन के साथ ही गाँधीवाद का एक मजबूत स्तम्भ ढह गया है. वातानुकूलित-कक्षों से पर्यावरण-चिंता करने वाले छद्म पर्यावरणविदों से पूरी तरह अलग, ज़मीन से जुड़ा एक सच्चा पर्यावरण-चिंतक और सामाजिक आंदोलनकारी विदा हो गया है. एक ऐसा पर्वत-पुत्र काल ने छीन लिया है जिसके हौसले हिमालय से ऊँचे थे और विचार गंगाजल से गुणकारी. कोरोना-काल में प्रकृति और पर्यावरण को बचाये रखने का उनका आग्रह और जिद बेहतर समझ आती है. जिस ओर लौटने की बात आज हो रही है उस ओर लौटने की राह उन्होंने चार-पाँच दशक पहले दिखानी शुरू कर दी थी.

सुंदर लाल बहुगुणा, हिमालयी अध्ययन और पर्यावरण-चिंतन और आंदोलनधर्मिता के लिए ऐसे प्रकाशस्तम्भ के रूप में भी सदैव रहेंगे जिसका प्रकाश निष्प्राण होने के बाद भी राह दिखाता रहेगा. ऐसे पर्यावरण-ऋषि को पर्वतों की हर चोटी और नदियों-सरिताओं की हर घाटी उनके तमाम रहवासियों के साथ, सजल नेत्रों के साथ कृतज्ञ विदाई देती है.
(Tribute to Sundar Lal Bahuguna)

देवेश जोशी

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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