समाज

डॉक्टर बनने का सपना देखने वाला पहाड़ी बच्चा दुनिया का प्रख्यात भू-वैज्ञानिक बन गया: प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया को श्रद्धांजलि

आज ही के दिन हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का जन्म बर्मा के कलौ नगर में हुआ था और आज ही के दिन बैंगलोर शहर में उनकी मृत्यु हो गयी. भले आधिकारिक कागजों में उनका जन्मदिन 20 मार्च हो पर उनके करीबी इस बात को जानते हैं कि उनका जन्मदिन भी आज है. प्रो. वल्दिया का पूरा जीवन हमारे पहाड़ की खुरदुरा पर मजबूत रहा है. उनकी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर‘एक पहाड़ी की संघर्ष गाथा है. कल सुबह 7.30 बजे उनका अंतिम संस्कार बंगलौर के विल्सन गार्डन में किया जायेगा. पहाड़ द्वारा 2015 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा का एक हिस्सा पढ़िये :
(Prof. Kharak Singh Valdiya)

पिथौरागढ़ में रहते हुए एक-डेढ़ वर्ष ही बीते थे कि लगा न तो पढ़ने के लिए उपयोगी एवम् सामयिक पुस्तकें उपलब्ध है, न ऐसी कोई संस्था है जहाँ अभिरुचि के अनकल सांस्कृतिक या खेल के कार्यकलाप होते हों. हरिनन्दन पुनेड़ा, केशव चिल्कोटी, गुलाब वल्दिया, जनार्दन पुनेड़ा आदि से मिलकर हम लोगों ने एक संस्था बनायी. नाम रखा ‘गाँधी बाल मंदिर’. इसका नाम कालान्तर में बदल दिया गया ‘गाँधी वाचन मंदिर’. मासिक चवन्नी चन्दे के आधार पर और नगर के कुछ उदार लोगों की दो-दो, पाँच-पाँच रुपयों की सहायता पाकर एक अच्छा-खासा पुस्तकालय बन गया. नगर के सप्रसिद्ध वकील राम दत्त चिल्कोटी जी ने एक कमरा दे दिया. बाद में कृष्णानन्द पुनेड़ा जी के घर का सुन्दर कमरा हम लोगों का पुस्तकालय ही नहीं, हमारी सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया.

कुछ वर्षों बाद खेल के मैदान से लगे हुए मण्डप में पुस्तकालय चला. सदस्यों की अपनी-अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के उद्देश्य से एक हस्तलिखित पत्रिका भी निकलती थी. नाम था ‘बाल पुष्प’. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे. एकांकी और नाटक भी हम करने लगे. तीन-तीन घंटे लम्बे नाटकों का मंचन कर टिकटों से अर्जित धनराशि से पुस्तकालय के लिए पुस्तकें खरीदते थे हम लोग. नगर के गणमान्य लोगों को आमंत्रित कर उनका आशीर्वाद पाते. नाटकों के मंच बनाने की सारी सामग्री; बल्लियाँ, तख्ते, पर्दे, कनात, गलीचे, दरियाँ गैस-बत्ती आदि, हम बच्चे स्वयं ढो-ढो कर बाजार से लाते . दयावान व्यापारी बिना किराये के दे देते थे. पर्दे और दरियाँ रामलीला समिति से मिल जाती थीं और कुर्सियाँ स्कूलों से. आज आश्चर्य होता है हम कैसे इतना कुछ कर लेते थे. सन् 1953 में जब पिथौरागढ़ छोड़ कर हम चले गये तो पुस्तकालय एक-दो वर्ष चलने के बाद भंग हो गया.

हाईस्कूल से निकल कर इन्टर कॉलेज में जाना था. लखनऊ के क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला हो गया. छात्रावास में भी कमरा ‘अलॉट’ हो गया. मैं डॉक्टर बनना चाहता था, अतः वनस्पति विज्ञान, जन्तुविज्ञान और रसायनशास्त्र विषय चुने थे. प्रारब्ध ने हस्तक्षेप किया. उसी वर्ष पिथौरागढ़ में राजकीय इन्टर कॉलेज खुला. प्रिंसपल कलानिधि पाण्डे जी को ऐसे विद्यार्थियों की अपेक्षा थी जो परीक्षाओं में मन होकर विद्यालय का नाम रोशन कर सकें. उन्होंने घर आकर बूबू से आग्रहपूर्ण अनुनय किया – यदि आप जैसे व्यक्ति नये खुले कॉलेज के सुनाम के लिए आगे नहीं आयेंगे तो कौन आयेगा? कुछ तो त्याग करना ही पड़ेगा.’

बूबू मान गये. हमारे लखनऊ जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया. परन्तु मैंने विरोध का स्वर उठाया

‘बूबू! यहाँ बॉटनी और जूओलॉजी विषय नहीं होंगे. मैं जीवविज्ञान पढ़ना चाहता हूँ, जो लखनऊ में ही हो सकेगा.’  

‘जीवविज्ञान यहाँ नहीं है तो विज्ञान के दूसरे विषय ले लो. घर के पास रहोगे तो हम निश्चिन्त रहेंगे.’

‘पर मैं डॉक्टर बनना चाहता हूँ बूबू! जीवविज्ञान नहीं पढूँगा तो कैसे डॉक्टरी के लिए ‘एडमिशन’ होगा.’

‘देखो, तुम सुन नहीं सकते हो. स्टेथेस्कोप कैसे इस्तेमाल कर पाओगे? मरीजों की धीमी आवाज़ कैसे सुन पाओगे? नहीं बा! तुम कोई दूसरा साइन्टिस्ट बनने की कोशिश करो.’

कड़वी हकीकत की रग पर उन्होंने अंगुली रख दी थी. राजकीय इन्टर कॉलेज पिथौरागढ़ में विद्यार्थी हो गया. नवस्थापित संस्था की समस्याओं का झंझावात झेलने लगे हम सब लोग जिन्होंने दाखिला लिया था. न उपकरण थे, न अध्यापक. सन् 1951 के आरम्भ में पिथौरागढ़ में गवर्नमैन्ट इन्टर कॉलेज की स्थापना की घोषणा हुई थी. हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक कलानिधि पाण्डे जी कॉलेज के प्रिंसपल नियुक्त हुए थे. चार महीने हो गये थे, परन्तु शिक्षा संस्था का नाम बदलने के अलावा शेष स्थितियाँ जैसी की तैसी थीं.

कुछ समय बाद आये अंग्रेजी के अध्यापक शिव बल्लभ बहुगुणा जी. उनके बाद आये हिन्दी के शंखधर जी. परन्तु दो-एक महीने पश्चात् ही शंखधर जी ने अपना स्थानान्तरण करवा लिया. गणित पढ़ाने लगे स्वयं प्रिंसपल साहब पांडे जी, जिन्होंने इन्टरमीडिएट तक ही गणित में शिक्षा ली थी. सत्र के उत्तरार्ध में रसायनशास्त्र पढाने के लिए आये मदन मोहन जोशी जी, भौतिकी के लिए रजियान जी और गणित के अध्यापक चतुर्वेदी जी. प्रथम वर्ष में मात्र अंग्रेजी और हिन्दी की भली भांति पढाई हुई. शेष विषयों की केवल भूमिका ही समझ पाये.
(Prof. Kharak Singh Valdiya)

उपकरणों का अभाव उतना नहीं खटका जितना शिक्षण का. द्वितीय वर्ष में सभी विषयों के अध्यापक आ गये. रसायन विज्ञान के इन्द्र मोहन जी और गणित के छांगुर प्रसाद सिंह जी ने हम पर गहरी छाप छोड़ी. परन्तु यह वास्तविकता थी कि विज्ञान विषयों की मेरी आधारशिला बहुत ही कमजोर बनी. आधी-अधूरी पढ़ाई थी, परन्तु मिल गये एक ऐसे देव-स्वरूप गुरु जिन्होंने मुझे जीवन की नयी राह दिखायी, जीने का मंत्र सिखाया और बड़ी-बड़ी आँखों से दुनियाँ को देखने की प्रेरणा दी.

अंग्रेजी भाषा के पारंगत, विभिन्न विषयों के ज्ञाता शिव बल्लभ बहुगुणा जी न केवल भाषा के नित नये प्रयोग करते थे, वरन ज्ञान के विस्तार का परिचय भी देते थे. वे बताया करते थे संसार के अद्भुत तंत्र में मनुष्य का स्थान, उसकी कल्पना की उड़ान और उसके समाज का जीवन दर्शन. घर में पढ़ने के लिए पुस्तकालय से दर्शन शास्त्र, खगोल विज्ञान, साहित्य जैसे विषयों की पुस्तकें दिया करते थे. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लड्डू बाँटे जा रहे थे और बहुगुणा जी बोल रहे थे

‘जीवन को ऐसे मत देखो! उसे विषयों के घेरे में मत रखो, अपनी पसंद की जंजीरों से मत जकड़ो.’

बहुगुणा जी ने जो जीवन-दर्शन दिया था उसका भाव उस बोधकथा में निहित है जो मैंने वर्षों बाद पढ़ी. अपने विद्यार्थियों को प्रायः सुनाया करता था मैं यह कथा.

‘एक दिन रोटी ने चाँद को ललकार ही दिया. ‘रे निठल्ले! बस कर. अपना निलज्ज मुंह छिपा. दुनियाँ की जिस प्रशंसा को सुनकर तू फूला नहीं समा रहा है, उसकी जड़ों में मेंरा पराक्रम है. मैं न रहूँ तो तेरा प्रशंसक यह मानव वर्ग भूखा मर जायेगा.

‘चाँद ने सुना तो उसकी मुस्कान और खिल गयी. बोला – इतनी बिगड़ती क्यों हो जगत् जननी! विचार कर ज़रा. जैसी तू है, वैसा मैं हूँ. तू भोजन की तृप्ति करती है, तो मैं रूप का. दोनों का अर्पण बराबर है. तेरे बिना मनुष्य जीवित नहीं रहेगा, यह सत्य है. मगर मेरे बिना जी कर भी वह जीयेगा नहीं, यह भी सच है.

मेरे मन की आँखें खोल दी थीं बहुगुणा जी ने. हृदय के अन्तरतम भाग से मैं अनुभव करने लगा कि जीवन की सार्थकता तभी है जब उसमें ज्ञान के साथ-साथ संगीत और सौन्दर्य की साधना भी हो. यह मेरा पाँचवाँ गुरूमंत्र था.
(Prof. Kharak Singh Valdiya)

बहुगुणा जी ने न केवल नाटक प्रस्तुत किया था वरन् एक बार ‘मॉक पार्लियामेंट’ का सत्र भी आयोजित किया. आर्ट साइड के तेज-तर्रार और वाक्पटु हरीश पाण्डे बनाये गये विरोधी दल के नेता और प्रधानमंत्री की भूमिका दी गयी एक ऐसे लड़के को जो  न केवल बेहद झेंपूं था वरन बहुत ऊँचा भी सुनता था. विराधी दल के नेता ने सरकार पर प्रहार किये, सभी नीतियों की धज्जियाँ उड़ाई, कश्मीर-नीति की भर्त्सना की. प्रधानमंत्री को उत्तर देना था. चूँकि मैं कुछछ सुन नहीं पाया था इसलिए पता नहीं था कि किन बिन्दुओं पर प्रत्युत्तर देना है.

उन दिनों मैं ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ पढ़ा करता था अतः जानता था कि पंडित नेहरू कैसे आचार्य कृपलानी, डॉ. राममनोहर लोहिया, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि को जवाब दिया करते थे. उन्हीं की शैली में परन्तु आक्रोश भर कर मैंने जवाब दिये. हमारी सरकार जीत गयी, गुरुओं ने पीठ थपथपाया.

ऐसा था तब हमारे इन्टर कालेज का माहौल.

कॉलेज की शिक्षा पूरी हो गयी थी. हमारी कक्षा पिकनिक पर एक पहाड़ी टीले पर गयी. सबके आदरणीय और ‘हीरो’ बहुगुणा जी साथ थे. सबने अपने-अपने करियर के बारे में पूछा कि क्या पढ़ना चाहिए, कहाँ जाना चाहिए. चूँकि बहुत ऊँचा सुनता था, अतः किनारे पर चुपचाप बैठा था. मेरी बारी आयी तो मैंने पूछा कि बी.एस.सी.के लिए मुझे कौन-से विषय लेने चाहिए.

कुछ देर चुप रहने के बाद मुझे घूरते हुए बोले, ‘मैं एक व्यक्ति को जानता हूँ जिन्होंने अपने विषय में नाम कमाया है. मैंने उन्हें फील्डवर्क करते हुए देखा है. वे न कुछ बोलते हैं, न किसी की सुनने की ज़रूरत है उन्हें. बस, मुख में पाइप दबाये पत्थरों को ऐसे देखते हैं मानो उनसे बातचीत कर रहे हों. वे एक जिओलॉजिस्ट हैं. नाम है एस.पी.नौटियाल. मेरे ख्याल से जिओलॉजी सबसे उपयुक्त विषय होगा तुम्हारे लिए.’

‘जिओलॉजी क्या है?’ मैंने तो नाम भी नहीं सुना था.

‘तो ऐसा करो कि ऐलिमैन्टरी जिओलॉजी की कोई किताब खरीद कर पढ़ो. मैं बताता हूँ एक नाम- स्कॉट की लिखी हुई पुस्तक है वह.’
(Prof. Kharak Singh Valdiya)

लखनऊ के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ रहे हरी मामा को लिखकर पुस्तक मँगवा ली और अगले दो माहों में पढ़ डाली पूरी किताब. जो कुछ समझा, उससे रुचि उत्पन्न हो गयी भूविज्ञान विषय में. तय किया कि भूविज्ञानी बनूँगा, और प्रकृति की सन्निधि में रहने का प्रयास करूंगा.
(Prof. Kharak Singh Valdiya)

काफल ट्री डेस्क

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