पहाड़ के खोईक भिड़ महज घरों के आगे की निर्जीव दीवार भर नहीं हुआ करती बल्कि यहां के पारिवारिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संबंधों की पहचान तथा चेतना के केन्द्र थे. पहाड़ों की भौगोलिक संरचना जिस तरह दूसरे भागों से भिन्न है, उसी के अनुरूप यहां की लोकसंस्कृति, लोकपरम्पराऐं, लोकभाषा तथा लोकजीवन का दूसरे अंचलों से अलहदा होना स्वाभाविक है.
(Traditional House in Uttarakhand)
पहाड़ की संस्कृति, रहन-सहन, भाषा-भूषा, खान-पान, सामाजिक जीवन में लोकोक्तियां, मुहावरे, किस्से-कहानियां, प्रतीक तथा बिम्ब ऐसे हैं जो पहाड़ में जिये और पहाड़ को जाने बिना समझ पाना नामुमकिन है. ये बात अलग है कि समय प्रवाह में न गांव की लम्बी बाखलिया रही और न उनमें रहने वाले इन्सान. अब न वहां पाथर की छतें रही, न चाक, गोठ और भितेर वाले कमरे, न खोईक भिड़ और चैतर रहे और न पटांगण में बनी ओखली. यदि पलायन के बाद कुछ गांव अब भी अस्तित्व में हैं तो सब शनैः शनैः लिन्टर के बने आधुनिक सुख-सुविधा युक्त मकान उन्हें लील चुके हैं. लेकिन यादें हैं कि पहाड़ की इस थाती का बरबस स्मरण करा ही देती हैं.
पुराने घरों के खोईक भिड़ और चैतर हमारे जीवन के सुख-दुख के गवाह हुआ करते थे. खोईक भिड़ व चैतर उन लोगों की समझ से बाहर है, जिन्होंने पहाड़ों के मकान कभी देखें ही नहीं. दरअसल पहाड़ों में ढलान पर बने घरों के आंगन को तीन ओर भिड़ (दीवारों) से घेरा जाता है, ये दीवारें सुरक्षा एवं अहाते में घेरने के साथ ही बैठने के उपयोग में भी लाई जाती हैं. खोई अर्थात् खोली या घर और भिड़ मतलब दीवार. जब कि चैतर या चबूतरा कुछ यों समझ लीजिए. आंगन से घर के अन्दर चढ़ती सीड़ियों में चार-पांच सीढ़ियों के बाद दरवाजे की तरफ मुखातिब अन्दर जाने वाली सीड़ी को मोड़ने के लिए वहां पर सीढ़ी को चौड़ा वर्गाकार रूप दिया जाता है, एक तरह से इसे सीढ़ी का प्लेटफॉर्म भी कह सकते हैं.
गांव के घरों में भरी दुपहरी में खुबानी अथवा पुलम के पेड़ की छांव में खोई भिड़ में बैठे बड़बाज्यू (दादाजी) चिलम गुड़गुड़ाते अथवा चाय की चुस्कियां लेते चारों ओर नजर दौड़ाकर पूरे गांव की खबर ले लिया करते. अगर धार में घर हो तो ये खोई भिड़ ’वॉचटावर’ का काम करता. उम्र के जिस पड़ाव पर इन्सान कोई शारीरिक मेहनत करने के काबिल नहीं रह जाता, ये खोई भिड़ ही होते जो उम्रदराज लोगों को भी घर का वॉचमैन का काम करवा देते। जहां से वह नीचे खेतों में काम करती बहु-बेटियों, उज्याड़़ (मवेशियों का खेतों में अतिक्रमण) खाने वाले मवेशियों, बन्दर-लंगूरों के आतंक यहां तक कि दिखने वाले दूसरे घरों की गतिविधि, कब कौन मेहमान आ रहा है, कब जा रहा है, बिना कहीं गये ये खोईक भिड़ में बैठा इन्सान सहज ही मालूम कर लेता.
(Traditional House in Uttarakhand)
चैतर का दायरा खोईक भिड़ के बनिस्पत सीमित होता. चैतर घर की उन असक्त वृद्धाओं का बैठने का स्थान रहता जहां से वह आंगन में खेलते बच्चों, आंगन के छोर पर बंधे मवेशियों के चारा-पानी, ओखल कूटती महिलाओं की टोह लेती. हाथ-पैरों से असक्त होते हुए भी बक-बक करती उनकी जुबान थमने का नाम नहीं लेती. इस प्रकार अशक्त आमाओं की परोक्ष रूप से घर के काम में दखलंदाजी भी होती और समय काटने का एक जरिया भी.
सोचता हूं, काश! खोईक भिड़ और चैतर में भी जुबान होती तो बताते कि किस तरह वे पुश्तैनी घरों में पीढ़ी दर पीढ़ी हरेक के जन्म से लेकर प्रत्येक सामाजिक उत्सवों, विवाहादि व अन्तिम विदाई के भी गवाह रहे. यदि लम्बी बाखलियों के खोईक भिड़ की बात करें तो वे एक तरह से एक लघु सामुदायिक केन्द्र हुआ करते. तब गांव तक समाचार पत्रों की पहुंच तो थी नहीं, रेडियो, टीवी का तो युग ही नहीं था. दिन भर के जीतोड़ मेहनत के बाद शाम को आराम के कुछ पलों में पुरूष तथा महिलाओं की अलग-अलग बैठकें दिन भर के घटनाक्रम के आदान-प्रदान के साथ गांव, समाज और देश तक की चर्चाओं का केन्द्र होते.
आमोद-प्रमोद होता, किस्से-कहानियां होते और कभी गांव के ही किसी व्यक्ति विशेष को लेकर उसकी अच्छाईयों व बुराईयों का परस्पर गहन विश्लेषण होता. गांव के मामूली विवादों की सुनवाई भी यहां बिना सरपंच के सर्वसम्मति से हुआ करती, जिसमें जमीनी विवाद व रास्तों के विवाद से लेकर किसको बिरादरी से बाहर करना है, पर भी खुलकर निर्णय लिया जाता. बाखली के बुजुर्गों की भूमिका ही निर्णायक होती. सीमित आवश्यकतायें एवं सीमित जानकारियों के बावजूद उनका अपनी एक अलग दुनियां थी, जिसमें बनिस्पत आज के वे ज्यादा सुख व सन्तुष्टि का अनुभव करते.
(Traditional House in Uttarakhand)
वर्तमान दौर में न हुक्का पीने वाली पीढी रही, न पहाड़ों के खेत-खलिहानों की रौनक, थोड़ा होश संभाला तो पढ़ाई अथवा काम की तलाश में दूसरे शहरों को भाग गये, फिर वहीं शहर उन्हें रास आ गये, अगर लौटकर आये भी तो साथ में शहरी संस्कृति को लेकर. जहां उनके ड्राइंग रूम तक ही उनकी दुनियां सीमित रह गयी. दुर्भाग्यवश कोई गांव में ही अटके रह गये, वे भी तथाकथित सभ्यता का लबादा ओढ़कर मॉर्डन बनने की दौड़ में तथाकथित मॉर्डन तो नहीं हो पाये, लेकिन अपने ठेठ पहाड़ी एवं गंवई अन्दाज को भी खो बैठे. गर्मियों के दिनों में चांदनी रातों की गपशपें हो अथवा जाड़ों में सामुहिक रूप से आग तापने का उपक्रम हो, ये खोईक भिड़ सदा गुलजार रहते. आबाल-वृद्ध इनका अपने-अपने अन्दाज में लुत्फ लेते. एकाकीपन से दूर सामुहिकता व परस्पर सहयोग का आभास कराते ये खोईक भिड़ अब विलुप्ति के कगार पर हैं जो पुराने घरों में खोईक भिड़ मौजूद भी हैं वे उनको गुलजार करने वाले इन्सानों के अभाव में निर्जीव बन अन्तिम सांसे गिन रहे हैं.
(Traditional House in Uttarakhand)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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काफलट्री का धन्यवाद आपकी हर पोस्ट काफी लाजवाब और यादे ताजा कर देती है हमें गर्व है आप पर आपसे प्रेरित होकर मेने भी उत्तराखंड सबंधिंत जानकारी देता हु जय देवभूमि उत्तराखंड आप विजिट कर सकते है