समाज

पारंपरिक लोक-संगीत की धरोहर ‘हरदा सूरदास’

बात कुछ साल पुरानी होगी. संभवतः 1980-81 की. मई-जून का महीना. नैनीताल टूरिस्टों से खचा-खच भरा हुआ. शहर की माल रोड मोटर-कारों से त्रस्त. ऐसे वातावरण में स्टेट बैंक मल्लीताल के पास मेरे कान में अचानक पहाड़ी ‘हुड़के’ की गमक के साथ नेपाली मिक्स पहाड़ी गीत गाती एक सुरीली आवाज पड़ी. मैंने चौंक कर इधर-उधर देखा तो सड़क-किनारे पेड़ की छाया में बैठा एक ‘सूरदास’ हुड़का बजाता, गीत गाता दिखाई दिया. गीत की स्थाई आज भी मुझे याद है:

गोपुली फुल्यो ही हिमाल हवा ले.
मैं तो फुली भिना ज्यू तिमरी माया ले.

गीत पूरा होने पर उस अंधे गायक ने सामने बिछे कपड़े को हाथ से टटोला और वह रेजगारी समेटी जिसे आते-जाते लोग कृपापूर्वक उस कपड़े में डाल गये थे.

यह है मेरा पहला आमना-सामना ‘हरदा सूरदास’ से. इसके बाद तो फिर जब तक भी मई-जून के सीजन में ‘हरदा’ गीत गाकर, हुड़का , बजाकर, कपड़ा बिछाकर रोजी कमाने नैनीताल आये, हमेशा हमारे ही साथ रहे. मल्लीताल में नैनीताल क्लब के डाठ के पास था उन दिनों हमारा कमरा, जिसमें कभी ताला नहीं लगता था. सो ‘हरदा’ को बड़ी सज आती थी उस कमरे में और कमरा भी ‘हरदा’ के आने पर लोक-संगीत से गुंजायमान हो उठता था नित्य-प्रति. एक दिन ऐसे ही बात पर बात आ गई- ‘हरदा ! तुमने गाना-बजाना कब से किया?’

‘अ…महाराज ! आँखें हुई नहीं, तो और काम-धाम कुछ कर सकने वाला नहीं हुआ. सो बचपन से रथ इधर ही का लगा. सात-आठ बरस की उम्र में थाली बजाने लग गया था. सोलह वर्ष की उम्र में जागर गाने लगा. उसी बीच हमारे गाँव में किसी का मकान लगाने के लिये जोगा राम जी आये. गुरु-ज्ञान, धुनी-ध्यान उन्हीं से मिला. वही थे मेरे गुरु. उन्होंने ही दी असली विद्या मुझे.’

‘हरदा’ की इस बात के साथ ही यह स्पष्ट कर दूं कि पर्वतीय लोक-संगीत में ‘हुड़का -थाली’ ही मुख्यवाद्य होते हैं. अतः थाली बजाना, महत्वपूर्ण काम होता है और लोग संगीत के क्षेत्र में सीखने की शुरुआत ‘ह्योव’ लगाने. थाली बजाने से ही होती भी है.

उत्तराखण्ड में बहु प्रचलित लोक-गाथा-गायन की एक विशेष शैली रमौल है. सिदुवा-बिदुवा दो रामौल भाईयों के जीवन संघर्ष की यह कथा कई बार मानव के जीवन संघर्ष की महान गाथा लगने लगती है. मानव जीवन के करीब-करीब सभी रंग इसमें विद्यमान हैं. जादू-टोने की रहस्यमयता से लेकर भंवरों को संदेश वाहक बना कर इंद्र लोक में भेजने तक के घोर काल्पनिक प्रसंग इस गाथा में आते हैं और इसलिए इसमें मनुष्य की मानसिक विकास यात्रा के साथ-साथ उसकी कलात्मक, सौन्दर्यबोधी चेतना की विकास यात्रा भी साफ़-साफ़ दिखाई देती है. लोक-संगीत की दृष्टि से भी रमौल गायकी अपना अलग और विशेष महत्व रखती है.

हरदा ‘सूरदास’

‘हरदा’ से पहले भी मैं लोक गायकों को सुन चुका हूं. सन 1970-71 में अद्भुत मालूशाही गायक गोपीदास के साथ-साथ जागेश्वर के रमौल गायक जैंत राम जी का रमौल गायन नैनीताल ही में 5-6 दिनों तक लगातार टेप किया हमने. यह दोनों लोक गायक स्वर्ग सिधार चुके हैं और लोक संगीताचार्य स्व. मोहन सिंह बोरा ‘रीठागाड़ी’ को बचपन से निरंतर ही सुन रहे हैं हम लोग. किन्तु रमौल गायन की जो तासीर, सुरों का जो लगाव, कंठ की जो हरकत, ताल की जो उलट-पलट, लय की जो छांट मुझे ‘हरदा सूरदास’ के रमौल-गायन, हुड़का-वादन में मिली वह बहुत कम देखने सुनने में आती है.

बमुकाबिले ‘हरदा’ के गढ़वाल की ‘डंगौर’ जैसे प्रभावी लोक-ताल-वाद्य के साथ गाई जाने वाली रमौल गायकी भी कम प्रभावित कर पाई मुझे. मैं यहां स्व. गोपीदासजी या स्व. मोहनसिंह ‘रीठागाड़ी’ की या और किसी लोकगायक अथवा लोक गायन या किसी घराने से ‘हरदा’ की और ‘हरदा’ के घराने की तुलना नहीं कर रहा हूँ और न किसी को ‘हरदा’ से कमतर ठहरा रहा हूं. मेरा मतलब तो ‘हरदा सूरदास’ के लोक-गायन, हुड़का-वादन की विशेषताओं को उजागर करने से है. इसी संदर्भ में मेरी ये बातें ली जानी चाहिये.

वैसे ‘हरदा’ अपने इलाके के अच्छे जगरिये (देवता अवतरित कराने वाले ओझानुमा) माने जाते थे. बड़ी दूर-दूर तक धाक थी उनकी इस कला में. जो जाहिर है एक ‘जगरिये’ के पास जो लोक-थात-बात-ठाट होना चाहिये वह सब तो ‘हरदा’ के पास होगी ही. लेकिन मेरी दृष्टि में ‘हरदा’ ‘जगरिये’ के साथ-साथ एक उत्कृष्ट ‘रमौलिया’ भी थे याने रमौल गायक. यहीं पर मैं एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि अल्मोड़ा जिले के जागेश्वर क्षेत्र में ‘रमौल-गायकी’ का प्रचलन अन्य जगहों की निस्बत अधिक है और इस गायकी का एक अलग ही अंदाज यहां सुनने को मिलता है. जागेश्वर के निकट थल निवासी स्व. जैंत राम जी की रमौल गायकी में वो सारी खूबियां दिवे-छिपे तौर पर मौजूद थी जो ‘हरदा’ की गायकी में अपनी पूरी आभा, प्रभाव और निखार के साथ मिलती थी. ‘हरदा’ की पैदाइश जागेश्वर इलाके की है, यानी सुवाखान, जिला अल्मोड़ा यह पता है ‘हरदा’ का. 1994 मार्च-अप्रैल से उत्तर-प्रदेश सरकार के सांस्कृतिक विभाग ने पांच सौ रुपया प्रति माह की लोक कलाकारों वाली पेंशन भी ‘हरदा’ को देनी शुरू कर दी गयी थी.

सन 1980-81 से कई नाटकों, सांस्कृतिक समारोहों, लोक-संगीत-सम्मेलनों और जन आन्दोलनों में ‘हरदा’ का हुड़का-वादन,रमौल-गायन मुख्य आकर्षण का केंद्र रहे. सन 1985 में ‘नैनीताल समाचार’ ( पाक्षिक ) के हरेला अंक का विमोचन ‘हरदा’ से ही करवाया था हमने.

आज जब अपनी जड़ो से जुड़े हुये लोक-संगीताचार्य बहुत कम रह गये हैं हमारे बीच, तब ‘हरदा’ जैसों को पारंपरिक लोक-संगीत की जीवित धरोहर के रूप में लिया जाना चाहिये. ‘हरदा’ लोक-संगीत के क्षेत्र में हमारे समय के ‘सूरदास’ ही हैं.

1994 में गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ का लेख.

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Girish Lohani

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  • गिर्दा का शानदार लेख प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद

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