पहाड़ में नंगा सर रहना बुरा समझा जाता था. सर में टोपी डालने का चलन था. कम हैसियत वाले धोती बांधते. मलेसिया और जूट के पजामे और कुरता बनता. खादी और सूती कपड़ा खूब चलन में था. सुराव, मिरजई, फतुई, भोटू, बनयान, बंडी (जिसमें जेब होती) पहनी जाती. (Traditional Clothing and Jewelry of Uttarakhand)
भेड़ के तिब्बती ऊन की हाथ से बनी स्वैटर या बनियान पहनी जाती. इसी ऊन की गरम टोपी व गले का मफलर भी बनता. हैसियत वाले मिरजई, स्वेटर, वास्कट, चूड़ीदार पैजामा पहनते शाल, ऊनी पंखी ओढ़ते. सर में साफा या टांका होता. टोपी पहनी जाती. छोटी चेलियां झगुली पहनती थीं. छींट का कपड़ा चलन में ज्यादा होता. सैणियों में घाघरा, आंगड़ा, धोती, बिलौज चलन में था. सीमांत इलाकों में घाघरा को घघौर कहते व इसके साथ पहने जाने वाले बिलौज को ‘कमौल’ कहा जाता. दुपट्टे के बराबर चौड़ा पर दुपट्टे से लम्बा सफ़ेद रंग का वस्त्र ‘पगौर’ होता जिसे कमर में बांधा जाता. सर में महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली टोपी को मुनस्यारी में ‘खोपी’ कहते. मांगलिक अवसरों पर लहंगा, चोली, रंगवाई पिछौड़ा पहना जाता. उत्तराखण्ड के पारम्परिक परिधान व आभूषण
गले में चंद्र हार पहना जाता जो ‘चनर हार भी कहा जाता जिसकी लम्बी माला का लाकेट चांद के आकार का होता. नाक व हाथ में नथ व पौंछी पहनी जाती. नथों के कई डिज़ाइन बनते. इनमें मोर के अलंकरण वाली खूब पसंद की जाती. नैपाली व टिहरी की नथ भी खूब चलती. गलोबंद में चर्यो की माला लटकती जो सुहाग का प्रतीक मानी जाती. पहाड़ में 24 कैरट वाले सोने के आभूषण पहनने का रिवाज रहा. मुख्यतः सोने का गुलुबंद या हार. दो से पांच तोले की, कुंदन की हुई, सोने की नथ. सोने या चांदी की पहुंची, जो हाथ में पहनी जाती है. हाथ की अंगूठी, सोने के झुमके, बाली और नैपाली डिज़ाइन के मुनड़े जो भीतर से खुखल होते. हाथ के तोले दो तोले के कंगन भी भीतर खोखल होते जिनमें लाख भरी जाती. मंगलसूत्र जो चर्यो और सोने की गोलियों में गछा होता. जोहार में गले में पहनने वाला आभूषण, ‘झुपिया’ कहलाता. कान में पहिनने वाली बाली ‘डुल्कि-मुल्की’ कही जाती. हाथ में ‘धागुला’ डाला जाता. पाँव में ‘पुलिया’ पहना जाता. गले में पहनी जाने वाली सिक्के की माला, ‘टकोल’ के नाम से पुकारी जाती. गले में कनकुड़ी भी होती जिससे कान भी साफ कर लिए जाते. अत्तरगान और कस्तूरी दाढ़ को कंधे पर लटकाया जाता. कुमाऊं में चांदी के गहनों का भी चलन रहा जिसमें ‘हसुली’ या गले में पहने जाने वाला सुत जो दस से पंद्रह तोले का होता. चांदी का हार और करघनी. धागुले जो दोनों हाथों में पहने जाते. पाँव में पहने जाने वाले चांदी के झावर. पैर की उंगली के बिछुवे, बालियाँ जो एक कान में चार-चार लटकतीं. सोने के आभूषणों का खूब चलन रहा जिनमें नाक की फुल्ली व मंगलसूत्र तो हर समय गले में लटका ही रहता.
ब्या काज व पर्व त्योहारों में गलोबन्द, शीशफूल, झुमके या कर्णफूल व बाली, नथ, हार, कंगन, सोने की चूड़ी, अंगूठियां पहनी जातीं. अँग्रेजी राज में चले चांदी के सिक्कों की माला चलन में रही. छोटी लड़कियां चवन्नी वाले तो औरतें अठन्नी व रुपल्ली के सिक्कों की माला पहनतीं. ताँबे के छेद वाले डबल भी माला बना गले में डाले जाते.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के नियमित लेखक हैं .
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