लघुशंका गृह और क्रान्ति
– हरिशंकर परसाई
मंत्रिमंडल की बैठक में शिक्षा मंत्री ने कहा, ‘यह छात्रों की अनुशासनहीनता है. यह निर्लज्ज पीढ़ी है. अपने बुजुर्गो से लघुशंका गृह मांगने में भी इन्हें शर्म नहीं आती.’ किसी मंत्री ने कहा, ‘इन लड़कों को विरोधी दल भड़का रहे हैं. मुझे इसकी जानकारी है. मैं जानता हूं कि विरोधी दल देश के तरुणों को लघुशंका करने के लिए उकसाते हैं. यदि इस पर रोक नहीं लगी तो ये हर उस चीज पर लघुशंका करने लगेंगे, जो हमने बनाकर रखी है.’ गृहमंत्री ने कहा, ‘यह मामला अंतत: कानून और व्यवस्था का है. सरकार का काम लघुशंका गृह बनवाना नहीं, लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखना है.’
तब प्रधानमंत्री ने कहा, ‘प्रश्न यह है कि लघुशंका गृह बनवाया जाए या नहीं. इस कॉलेज में पैंतीस साल से लघुशंका गृह नहीं बना. अब एकदम लघुशंका गृह बनवा देना बहुत क्रांतिकारी काम हो जाएगा. क्या हम इतना क्रांतिकारी कदम उठाने को तैयार हैं? हम धीरे-धीरे विकास में विश्वास रखते है, क्रांति में नहीं. यदि हमने ये क्रांतिकारी कदम उठा लिया तो सरकार का जो रूप देश-विदेश के सामने आएगा, उसके व्यापक राजनीतिक परिणाम होंगे. मेरा ख्याल है, सरकार अपने को इतना क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए समर्थ नहीं पाती.’ ( जादू देखो ताली पीटो, चमत्कार देखो और खुश रहो )
इसी वक्त छात्रों का धीरज टूट गया. उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया. दूसरे कॉलेजों में लड़कों को चूड़ियां भेज दी गईं – आंदोलन करो या चूड़ियां पहनकर घर बैठो. चूड़ियों ने आग लगा दी. जगह- जगह आंदोलन भड़क उठा. यहां का आदमी अकाल बताने को उतना उत्सुक नहीं रहता, जितना नरता बताने को. अगर किसी ने कहा कि अपने सिर पर जूता मारो या ये चूड़ियां पहन लो. तो वह चूड़़ी के डर से जूता मार लेगा. लोगों ने लड़कों से पूछा, ‘यह आंदोलन किस हेतु कर रहे हो?’ लड़कों ने कहा, ‘हमें नहीं मालूम. हमें तो चूड़ियां आ गईं थीं. इसलिए कर रहे हैं.’
मगर राजधानी के विदेशी दूतावास और पत्रकार चौंक पड़े. यह क्या हो रहा है? विद्रोह? क्रांति? एक दौर लाठी चार्ज और फायरिंग का चला. विदेशी पत्रकार मंत्रमुग्ध घूम रहे थे. उन्होंने संघर्ष समिति के प्रतिनिधि से मुलाकात की. कहा, ‘आपका व्यापी विद्रोह देखकर हम सब चकित हैं. आप देश को बदलना चाहते हैं. अपना मेनिफेस्टो हमें दीजिए. हमें बताइए कि इस देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में क्या बुनियादी परिवर्तन आप लोग चाहते है?’
छात्र नेता ने जवाब दिया, ‘हमें तो बस एक लघुशंका गृह चाहिए.’ (वे दिखा रहे हैं क्योंकि जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है)
हरिशंकर परसाई हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक एवं व्यंगकार थे . उनकी चुटीली शैली और भाषाई खिलंदड़ी की ज़द में समाज के सभी विद्रूपताएं आईं. हँसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, भोलाराम का जीव उनके कहानी संग्रह हैं. राजकमल प्रकाशन से उनकी रचनावली प्रकाशित है.
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