सावन का महीना और आप यदि सीमांत के किसी गाँव मे जाते हैं तो हर घर में एक ही चीज आम होगी वो है, हर घर के दरवाजे और खिड़कियों में लगे काटें और बिच्छू घास की टहनियां. ये किसी भी नये व्यक्ति के किये कौतूहल हो सकता है पर सीमांत के लिए ये एक परम्परा है जो सदियों से चली आ रही है. सावन को काला महीना कहा जाता है इस माह में कोई शुभ कार्य नहीं किये जा सकते क्योंकि इस काल में आराध्य देवता कैलाश वास में होते हैं.
(Unique Tradition of Uttarakhand)
सावन के शुरू होने से पहले गाँवों में पूजा शुरू हो जाती हैं, देवता अपने धामी/पश्वा में अवतरित होकर बताते हैं कि वे इस तिथि को कैलाश जा रहे हैं, हर बरस की भांति किसी एक देवता को ग्राम रक्षा की जिम्मेदारी भी मिलती है. वो सब इसी दिन तय हो जाता है देवता चेताते हैं कि हमारी अनुपस्थिति में क्या नहीं करना हैं और कैसे बचे रहना है.
सावन शुरू होने से पूर्व की शाम को ही सिन्ना (बिच्छू), किलमोड़ा और ऐरुवा (एक विशेष प्रकार का कांटेदार झाड़ीनुमा पौधा) लेकर लोग अपने घरों के दरवाजों, खिड़कियों तथा गोठ (पशु निवास स्थल) में लगा देते हैं. मान्यता हैं कि देवताओं की अनुपस्थिति में कोई बुराई घर में प्रवेश न कर सके इसलिए इनको लगाया जाता है.
पूरे सावन के महीने में इसे वहीं लगाये रखा जाता हैं फिर सावन के अंतिम दिन की रात्रि को पुनः यहीं चीजें लेकर पुराने लगे हुए कांटे और सिन्ना को निकालकर पूरे घर गोठ के कोनों-कोनों में इसे फेरा जाता है और फिर रात को किसी तिराहे पर ले जाकर पुराने किसी जूते में कील से ठोककर फेंका जाता हैं तथा अंततः फायरिंग (पटाखे) की जाती है, घरों में दिए जलाकर रोशनी की जाती है. अगली सुबह पूरी-पकवान बनाये जाते हैं और मनाया जाता है सावन का त्यौहार, जो देवताओं की कैलाश यात्रा से वापसी में स्वागत का प्रतीक होता है.
(Unique Tradition of Uttarakhand)
वापसी के बाद भाद्रपद की पहली गते को मंदिरों में पूजा कार्य शुरू होता है, देवता फिर से अवतरित होते हैं और बताते हैं कि उनका कैलाश काल कैसे बीता. इस साल देवता हारकर आये या जीतकर ये सवाल सबके मन में होता हैं. मान्यता है कि ये सम्पूर्ण क्षेत्र छिपला केदार का अधिक्षेत्र है और प्रत्येक गाँव के मटिया (मिट्टि के देवता) यानि अधिष्ठाता देवता अलग-अलग है.
(Unique Tradition of Uttarakhand)
मटिया माने मिट्टी सम्बन्धी किसी भी कार्य के लिए सम्बंधित गांव के उस देवता से अनुमति लेनी होती है. ये देवता कैलाश में जुआ या अन्य बाजियां लगाते हैं जो देवता हारा उसके अधिक्षेत्र में उस साल हर तरह से हानि होती है. खेती से लेकर पशु, इंसान सभी तरह की हानि. देवता के जीतने का अभिप्राय है कि इस साल सब कुछ सुखद होगा. यह परम्परा हमेशा से है और मान्यता भी, लोग उनपर विश्वास भी रखते हैं और पूर्ण श्रद्धा से पूजन भी करते हैं.
देखा जाए तो देवों के देव महादेव होते हैं इस बात का जीवंत प्रमाण भी है यह परम्परा क्योंकि देवताओं को हर वर्ष कैलाश में हाजिरी देनी ही होती है. दूसरा इसके पीछे यह तर्क भी काम करता है कि सावन यानि पूर्ण वर्षा काल और पहाड़ों में भूस्खलन जैसी घटनाएं ज्यादा होती है खड़ी पहाड़ी और उसके रास्तों में चिकनाहट वाली काई जमी रहती है जिससे फिसलन जैसी सम्भवना अधिक रहती है, इसके अलावा साँप या अन्य जहरीले जानवर बिलों से बाहर होते हैं तो लोग देवताओं की अनुपस्थिति के भय से जंगलों और चट्टानों में जाने का दुस्साहस नहीं दिखाते जिससे ऐसी दुर्घटनाएं कम हो जाती है.
(Unique Tradition of Uttarakhand)
– भगवान सिंह धामी
मूल रूप से धारचूला तहसील के सीमान्त गांव स्यांकुरी के भगवान सिंह धामीकी 12वीं से लेकर स्नातक, मास्टरी बीएड सब पिथौरागढ़ में रहकर सम्पन्न हुई. वर्तमान में सचिवालय में कार्यरत भगवान सिंह इससे पहले पिथौरागढ में सामान्य अध्ययन की कोचिंग कराते थे. भगवान सिंह उत्तराखण्ड ज्ञानकोष नाम से ब्लाग लिखते हैं.
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