उत्तराखंड राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं के बदहाल होने की बात सर्वविदित है. राज्य के अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी, चिकित्सा केंद्रों में पर्याप्त सुविधा न होने और इस सब के चलते रोगियों-आम नागरिकों को होने वाली परेशानियों की बातें स्थानीय मीडिया में लगातार उठती रहती हैं.
(Terrible Health Facilities Uttarakhand)
देशभर में महिला और नवजात सुरक्षा को ध्यान में रख कर चलाई जा रही योजनाओं के बावजूद भी उत्तराखंड राज्य में पिछले वर्षों में मातृ और नवजात मृत्यु के आँकड़े लगातार बढ़े हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नवीनतम आँकड़ों (NFHS-5) के मुताबिक़ उत्तराखंड देश के उन चुनिंदा राज्यों में से है, जहाँ नवजात शिशु मृत्यु दर में वृद्धि हुई है. नवजात शिशु मृत्यु दर से आशय प्रति एक हज़ार जीवित शिशुओं के जन्म में से नवजात शिशुओं के मौत की संख्या से है.
वर्ष 2015-16 में जहाँ उत्तराखंड के लिए नवजात शिशु मृत्यु दर 27.9 थी, वहीं वर्ष 2019-21 में यह दर बढ़कर 32.4 पर पहुँच गयी जबकि इसी दौरान राष्ट्रीय औसत में गिरावट देखने को मिली. भारत की नवजात शिशु मृत्यु दर 2015-16 के 29.5 के स्थान पर 2019-21 में घट कर 24.9 रह गयी.
वर्ष 2016-17 में उत्तराखंड में कुल 84 मातृ मृत्यु हुई, वर्ष 2017-18 में उत्तराखंड में मातृ मृत्यु की संख्या में 104% की वृद्धि दर्ज की गयी और इस वर्ष 172 महिलाओं की प्रसव के दौरान (अथवा प्रसव संबंधी जटिलताओं) के चलते मौत हुई. इसके बाद के वर्ष यानि वर्ष 2018-19 में भी मातृ मृत्यु की संख्या में वृद्धि का क्रम जारी रहा और 4.6% की वृद्धि देखने को मिली और इस वर्ष 180 महिलाओं की मौत हुई. वर्ष 2019-20 में भी मातृ मृत्यु की संख्या 175 रही. वर्ष 2020-21 में मातृ मृत्यु की संख्या पाँचों वर्षों में सर्वाधिक 187 रही. वर्ष 2020-21 में हुई मातृ मृत्यु की संख्या वर्ष 2016-17 की तुलना में 122.6% अधिक रही.
(Terrible Health Facilities Uttarakhand)
उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों और जनसंख्या के छितरे होने के कारण गाँव-गाँव तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच अभी भी एक बड़ा मुद्दा बनी हुई है. सड़क सुविधाओं की दुर्गम क्षेत्रों तक सम्पूर्ण पहुँच न हो पाने के कारण मरीजों को डोली से स्वास्थ्य केंद्रों तक ले जाते परिजनों की खबरें आम हैं.
प्राथमिक स्तर के चिकित्सा केंद्रों में पर्याप्त सुविधाएं न होने और उच्च चिकित्सा केंद्रों के ज्यादा दूरी पर स्थित होने के कारण उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में आकस्मिक चिकित्सा वाहनों (108) पर निर्भरता बहुत बढ़ जाती है.
(Terrible Health Facilities Uttarakhand)
सीमांत और दुर्गम क्षेत्रों के आस पास स्थिति चिकित्सा इकाइयों (प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य के केंद्रों) में पर्याप्त सुविधाओं के न होने के कारण मरीजों की बड़ी संख्या सीधे ही उच्च चिकित्सा केंद्रों ( उपजिला चिकित्सालय और जिला चिकित्सालय) का रुख करती है, या अधिकांशतः प्राथमिक/सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से उच्च केंद्रों को रेफर कर दी जाती है.
आकस्मिक चिकित्सा अवस्थाओं में यह स्थिति और भी खराब हो जाती है. प्रसूति संबंधी मामलों में आकस्मिक चिकित्सा जरूरतों और इन मामलों की गंभीरता व जटिलता के कारण कई बार महिलाओं को गंभीर स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जो जानलेवा भी साबित होती हैं.
108 सेवाओं की परिकल्पना के पीछे एक बड़ी वजह यह थी कि समय पर गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुँचाया जा सके और इस तरह सांस्थानिक प्रसवों को बढ़ाया जा सके. मातृ मृत्यु की संभावना को कम करने के लिए यह अहम था कि सुरक्षित प्रसव को सुनिश्चित किया जा सके. सांस्थानिक प्रसवों को बढ़ावा देने की नीतियों के पीछे प्रसव को जच्चा-बच्चा के लिए सुरक्षित बनाना ही था.
(Terrible Health Facilities Uttarakhand)
उत्तराखंड में 108 एम्बुलेंस में हो रहे प्रसवों की खबरें आए दिन अख़बारों में पढ़ने को मिलती हैं. अगर 108 एम्बुलेंस में हो रहे इन प्रसवों के सालाना आँकड़ों को देखा जाए तो एक चिंताजनक तस्वीर उभरती है. हर वर्ष बड़ी संख्या में 108 एम्बुलेंस में प्रसव हो रहे हैं.
हर ग्राम सभा में आशा कार्यकर्ता होने के बावजूद भी समय पूर्व गर्भवती महिलाओं का चिकित्सा केंद्रों में न पहुँच पाना महिला और नवजात मृत्यु के खतरों को लगातार बढ़ा रहा है ज्ञात हो कि पिछले कुछ सालों में देश में घट रही महिला/नवजात मृत्यु के आँकड़ों के विपरीत उत्तराखंड में यह आँकड़ा लगातार बढ़ रहा है.
अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं भारत सरकार के मातृत्व संबंधी विविध मानकों व गाइडलाइंस को देखा जाए तो यह स्पष्ट समझ आता है कि सांस्थानिक प्रसवों (चिकित्सा इकाईयों में होने वाले प्रसव) को ही सुरक्षित प्रसव की श्रेणी में रखा जा सकता है. गैर-सांस्थानिक प्रसव में माँ और नवजात शिशु के जीवन को खतरा होता है और इसलिए इसे असुरक्षित माना जाता है. इसीलिए, सांस्थानिक प्रसव को बढ़ावा देने के लिए ही भारत सरकार द्वारा विगत दशकों से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत जननी सुरक्षा योजना जैसे कार्यक्रमों का संचालन किया जा रहा है.
इस सब के बावजूद 108 एम्बुलेंस में प्रसवों का होना यह बताता है कि अब भी बड़ी संख्या में असुरक्षित प्रसव हो रहे हैं और उससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि इन प्रसवों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. 108 एम्बुलेंस में हो रहे इन प्रसवों के आँकड़ों से हमें पता चलता है कि लगभग पिछले तीन वर्ष में (मई 2019 से जनवरी 2022) 108 वाहन में 1625 प्रसव हुए हैं. इन आँकड़ों को गौर से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि इन प्रसवों की संख्या में तीनों ही वर्ष में लगातार वृद्धि हुई है. मई 2019 से मार्च 2020 के बीच जहां कुल 465 प्रसव, वहीं वर्ष 2020-21 में इनकी संख्या 559 रही और वर्ष 2021-22 (जनवरी 2022) तक कुल 601 प्रसव 108 एम्बुलेंस में हुए. इसका मतलब है कि वर्ष 2019-20 में 108 में प्रतिमाह औसत प्रसव की संख्या 42 थी, वहीं वर्ष 2020-21 में यह संख्या बढ़ कर 46 हुई और वर्ष 2021-22 में यह संख्या बढ़ कर 60 पहुँच गयी. दूसरे शब्दों में, जहां वर्ष 2019-20 में प्रत्येक माह 108 एम्बूलेंस में होने वाले प्रसवों की संख्या औसतन 42 थी, वर्ष 2020-21 में यह संख्या बढ़ कर औसतन 60 के क़रीब पहुँच गयी.
ज़िला | ‘108’ में हुए कुल प्रसव (मई 2019 से जनवरी 2022) |
अल्मोड़ा | 95 |
बागेश्वर | 57 |
चमोली | 132 |
चंपावत | 55 |
देहरादून | 244 |
हरिद्वार | 149 |
नैनीताल | 158 |
पौड़ी गढ़वाल | 130 |
पिथौरागढ़ | 148 |
रुद्रप्रयाग | 90 |
टिहरी गढ़वाल | 80 |
ऊधम सिंह नगर | 162 |
उत्तरकाशी | 125 |
1625 |
राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त मानव संसाधन और मूलभूत सुविधाओं के न होने के कारण जिले भर की जनसंख्या के लिए चिकित्सा सेवाओं का दबाव जिला चिकित्सालयों पर आ जाता हैं, जो पहले से ही अपनी क्षमता से अधिक जनसंख्या का दबाव झेल रहे हैं.
सूचना का अधिकार (आर.टी.आई.) के तहत जनवरी 2022 में प्राप्त जानकरी के मुताबिक़ राज्य के समस्त सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सी.एच.सी), उप जिला अस्पताल/बेस अस्पताल एवं जिला अस्पतालों में गायनाकोलॉजिस्ट के कुल 167 पद सृजित हैं और इसमें से वर्तमान में 74 पद रिक्त हैं. प्रत्येक सी.एच.सी में गायनोकोलॉजिस्ट का 1 पद सृजित है. राज्य के कुल 79 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में सृजित 79 गायनाकोलॉजिस्ट के पदों में से 27 पद रिक्त हैं. यानी राज्य के 27 सी.एच.सी बिना गायनोकोलॉजिस्ट के हैं.
(Terrible Health Facilities Uttarakhand)
–शिवम पाण्डेय की पिथौरागढ़ से रपट.
शिवम पाण्डेय युवा शोधार्थियों के स्वतंत्र समूह ‘उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप’ से जुड़े हैं. ‘उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप’ द्वारा उत्तराखंड की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं ( विशेषकर ज़िला चिकित्सालयों एवं ज़िला महिला चिकित्सालयों की स्थिति) पर स्टेटस रिपोर्ट तैयार की जा रही है. बीते महीनों में राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं के हालात से जुड़े आँकड़ो को सार्वजनिक करते हुए कुछ फ़ैक्ट-शीट्स उत्तराखंड रिसर्च ग़्रुप द्वारा सार्वजनिक की गयी हैं.
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शिवम पाण्डेय एवं उत्तराखंड रिसर्च ग्रुप का ये शोध सराहनीय है . ये उन लोगों ख़ास नेता लोगों को भी एक्स्पोज करता है जो अपने छोटे - बड़े इलाज के लिए दिल्ली जनता के टैक्स के पैसे खर्च करने जाते हैं औरपहाड़ की जनता को बुरे स्वास्थ्य सेवाके ढाँचे के भरोसे तड़पने - मरने छोड़ देते हैं . आशा है ये शोध देहरादून में बेठे लोगों को सोचने को मजबूर करेगा और आम जनता के स्वास्थ्य सेवा का स्तर बढाने को मजबूर करेगा, ऐसे ही जन जीतेगा वरना जेब भरुवा नेताओं के जीतते - जीतते पहाड़ की जवानी , खनन व वन और पानी की लूट के सिवा पांच सालों में होता भी क्या है ?