केशव भट्ट

पौधों से एक बुजुर्ग का अजब प्रेम

महानगरों के साथ ही अब तो पहाड़ों में भी जमीन गायब हो मकान ही मकान बनने लगे हैं. बहरहाल अब ये कोई नई बात नहीं है, हर कोई यह सब जानता ही है. पहाड़ों में तो खेती बंजर होती चली जा रही है. खेती के बारे में गांव में किसी से जिक्र भर कर दो, फिर तो उससे आधेक घंटे तक जंगली जानवरों के साथ ही सरकार के लिए ‘गाली पुराण’ बिना सुने आप वहां से टल नहीं सकते. उनका दर्द भी वास्तव में असहनीय है.
(Suresh Chandra Upadhyay Pithoragarh)

दिन-रात की मेहनत पर वन महकमे का जंगली परिवार दादागिरी करते हुए सब तहस-नहस कर देता है. वन महकमे के इन निर्दयी डाकुओं को आप सिर्फ गाली ही दे सकते हैं, गोली नहीं. वरना महकमे के सारे कानूनों की आप पर बारिश कर दी जाएगी. ये जंग अभी जारी ही है. अकसर इस मुद्दे पर सिर्फ कोरी बयानबाजी ही होती है. ग्रामीणों की सुध तो सरकार और विभाग द्वारा सिर्फ कागजों में ही ले ली जाती है. इनसे कुछ नहीं होने का.

बहरहाल! एक बार जयपुर जाना हुआ तो सुरेश चन्द्र उपाध्याय के घर ठहरना हुआ. जयपुर के मानसरोवर कॉलोनी में उनके तीन मंजिले मकान के आंगन में छुईमुई, बोनसाही से लेकर दर्जनों पौधों को एक साथ देख सुखद आश्चर्य हुवा. कुछ गमलों में तो कुछ आटे की खाली थैलियों, मटकों, प्लास्टिक की छोटी बाल्टियों में मस्ती से साथ रहते-रहते ये सब एक-दूसरे से हिलमिल कर आलिंगनबद्व हो झूमते से दिखे. एक नन्हा पौधा तो फुटबाल में ही अपना घर पाकर खुश था. बगीचे में पाकड़ के बौने पेड़ की दो पत्तियों को आपस में बड़ी ही कलाकारी से गूंथकर एक नन्हीं सी चिढ़िया ने उसमें अपना आशीयाना बनाया था. मैं उस नन्हीं चिड़िया की कलाकारी देख सोच रहा था कि ये भी अपने परिवार को पालने में कितने जतन से लगे रहते हैं. अपनी छोटी सी जिंदगी में हर पल मेहनत कर खुश रहते हैं, जबकि मानव प्रजाति हर रोज अपनी छोटी सी उलझन को बड़ा मान, उदासी की जकड़न में फंसते चले चली जाती है.

‘ये पाकड़ का बोनसाही पन्द्रह साल का हो गया है, देखो तो चिढ़िया ने अंडे भी दिए हैं, ये राम तुलसी है इसे मैं सिक्किम से लाया था.’ 71 वर्षीय बुजुर्ग सुरेश चन्द्र उपाध्यायजी की आवाज सुनकर मैं अपने कल्पना लोक से बाहर निकला.
(Suresh Chandra Upadhyay Pithoragarh)

उपाध्याय मूलतः उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग से हैं. इलाहाबाद बैंक में वर्षों नौकरी कर मैनेजर के पद से वो रिटायर्ड हुए. पौंधों के प्रति उनका लगाव बचपन से ही था. बाद में वनस्पति विज्ञान से ही पन्तनगर से डिग्री ली. नौकरी में वह जब तक रहे तो किराए के मकान में रहना होता था. ट्रांसफर होने पर खटिया-बिस्तर के साथ ही नन्हे पौंधे भी उनके साथ-साथ चलते रहे. रिटायर होने के बाद वो जयपुर में ही बस गए. हंसते हुए कहते हैं कि अब मकान तो अपना हो ही गया जैसे-तैसे लेकिन इन पौंधों को अभी भी मैं यहां जमीन नहीं दे पाया.

इस छोटे से बगीचे में अनगिनत पौंधे हैं. आसाम की अरबी, दक्षिण भारत का सफेद दानों वाला अनार, चंपावत में मायावती आश्रम का पीला गुलाब, चंढीगढ की तीखी मिर्च, ईरानी खजर व मालू, हरिद्वार में जैनियों के आश्रम से लाए खीरनी, केरल की नर्सरी से हरा बैगन व लेमन ग्रास, सिक्कम की राम तुलसी, बागेश्वर में ओशो आश्रम से लाए एसपरगस जिसका मेडिशनल यूज होता है.

बरामदे रूपी बगीचे में जामुन, पीपल, पाकड़ व बरगद के बोनसाही पेड़ अपनी ओर खींचते से हैं. इनकी उम्र करीब 15 साल हो चुकी है. इसके साथ ही मीठा नीम, सन फलावर, लहसुन की पत्तियों की तरह दिखने वाला धुंवार, कैकटस, गिलोई का फल, पहाड़ी लाल टमाटर की तरह दिखने वाला एक फल मकोई, माल्टा, फालसा जो कि काफल की तरह दिखता है, मनीप्लांट, बादाम, सफेद व लाल चम्पा, अश्वगंधा, सौंफ, किमू, पोदिना, अजवाइन, हाजरी, पोनिस टेल, चंडीगढ़ की तीखी मिर्च, अमरूद, डायबिटीज के मरीजों के लिए काम आने वाला पौधा स्टीबिया, काला शहतूत, गुलाब, तिमुल, रेगिस्तानी गुलाब जिसे डिजर्ट रोज भी कहते हैं के अलावा शकरकंदी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी.
(Suresh Chandra Upadhyay Pithoragarh)

उन्होंने बताया कि, शकरकंदी तो हर साल दस किलो तक हो जाती है. एक बार चंढ़ीगढ़ गया तो वहां पता लगा कि हिमांचल भवन में हर साल प्रदर्शनी लगती है तो प्रदर्शनी के वक्त वहां चला गया. बहुत सुंदर था वहां तो, कई जगहों से लोग आए थे. अफगानिस्तान से आए एक पठान से ईरानी खजूर लिया. अब बाद में फिर कभी चंढ़ीगढ़ गया तो प्रदर्शनी में जरूर जाउंगा. अपनी पहली मानसरोवर यात्रा में वो तकलाकोट से गोभी के बीज लाए और उन्हें गांव में उगाए. गांव वालों को भी उसके बीज दिए. गांव में खूब गोबी हुई.

उपाध्याय अपने में विविध रूप धारण किए हुए हैं. उन्हें हिमालयी क्षेत्रों में पथारोहण का बहुत शौक है. रिटायमेंट के बाद तो उन्होंने अपने शौक को पूरा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. पहली बार जब वो उत्तराखंड के बागेश्वर में स्थित कफनी ग्लेशियर गए तो फिर उसके बाद उनके कदम रूके नहीं. दो बार कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर आए हैं. पहली बार दिल्ली से कुमाऊं में हल्द्वानी, धारचूला, बूंदी, गर्ब्यांग, गुंजी, कालापानी, नाभीढांग होते हुए लिपुलेख दर्रा पार कर तकलाकोट से गए. और दूसरी बार पत्नी के साथ दिल्ली से सिक्किम में नाथुला दर्रे से हो आए. बड़े उत्साह से बताते हैं कि, ‘वैसे कैलाश यात्रा का लिपूलेख पास से होते हुए ही आनंद आता है. पैदल चलने में प्रकृति के साथ ही साथियों के साथ गपसप का मजा ही कुछ और ठैरा हो… नाथुला वाले मार्ग से तो बस में बैठे ही रहना हुआ.’

उनके पास अनगिनत किस्सों का खजाना है. अब फिर कभी उनसे मुलाकात होगी तो कुछ किस्से फिर आपसे जरूर बाचूंगा.
(Suresh Chandra Upadhyay Pithoragarh)

केशव भट्ट 

इसे भी पढ़ें : साठ के दशक में हिमालय अंचल की यात्रा से जुड़ी यादें

बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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