पहाड़ और मेरा जीवन – 65
(पिछली क़िस्त: वो मेरा ‘काटो तो खून नहीं’ मुहावरे से जिंदा गुजर जाना
तेरी बज्म से उठते हुए डर लगता है, ये शहर मुझे अपना घर लगता है
हरेक उसकी आंख में डूबने को है आतुर, उसकी आंख में कोई समंदर लगता है
तेरी नजाकत मेरी हैसियत न पूछे कभी, डर ये सुबह शाम दोपहर लगता है
उफक तक नजरें उठा कौन खवाब देख रहा, अरे ये तो कोई बूढ़ा सुखनवर लगता है
एक लड़की हांफती मस्जिद पर चढ़कर बोली, ये शहर तो हादसों का शहर लगता है
गजल के ये चंद शेर नाचीज की कलम से ही निकले और 5 फरवरी 1990 के दैनिक जागरण के अंक में प्रकाशित भी हुए. इस गजल के लिए जागरण से मेरे पास 25 रुपये का मनीऑर्डर भी आया था. यानी तब तक मैं सिर्फ लिखने वाला कवि और शायर नहीं बल्कि प्रकाशित होने वाला और लिखे हुए से कमाने वाला कवि, शायर बन चुका था. 1989 और 1990 की डायरियां मेरे सामने रखी हैं. अभी कुछ दिनों पहले ही हाथ लगीं. इनके हर दूसरे पन्ने पर कोई न कोई शेर, गजल या कविता लिखी हुई है. मुझे लगता है कि उन दिनों मैं सब कुछ छोड़कर नई-नई रचनाओं को रचने में मशगूल था. 1989 की डायरी में पहले पेज पर शेर लिखे हुए हैं. ये शेर डायरी शुरू होने से पहले बाहर के पहले पेज पर हैं, जिसका मतलब है कि मेरे लिए तब वे शेर कुछ खास मायने रखते थे. खास मायने यूं कि मुझे लगता था कि अगर यह डायरी कभी उसके हाथ लग जाए तो वह पहले पन्ने में मेरी सुंदर लेखनी में लिखे इन शेरों को पढ़कर द्रवित हो उठे, मेरे लिए तड़प ही उठे. ये शेर थे –
आप ही कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब, आपकी इस बात ने उम्र भर हमें रोने न दिया.
कल वो माझी भी था पतवार भी कश्ती भी, आज हरेक से कहता है बचा लो मुझको
गम का सूरज ढला तो दर्द की रात आ गई, कत्ल होते समय बीच में मेरी हयात आ गई
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता, मिटाया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता
मुझे कब कहां सुकूं मिला ये मेरे दिल को पता नहीं, न गिला मुझे किसी बात का तेरी भी इसमें खता नहीं
इन शेरों में कुछ बड़े शायरों के भी हैं और बीच में कुछ नाचीज के भी. थोड़ा झिझक के साथ कह रहा हूं, इसलिए भी कि मेरी याददाश्त कम हो गई है कि इन शेरों में से मेरा कौन-सा है और नामी शायरों का कौन-सा, यह अंतर करना मुश्किल हो रहा है. (इस कोष्ठक में कल्पना कर लें कि मैंने आंख मारने वाला स्माइली या ईमोजी चस्पां किया हुआ है.) ऐसा ही मेरा एक अपना शेर 1990 की डायरी के पहले पन्ने पर दर्ज है – उड़ते हुए परिंदों ने रोक कर मुझसे कहा, तुझे देखा जहां देखा तेरा घर नहीं देखा कहीं. (Sundar Chand Thakur Memoir 65)
यह आखिरी शेर इसलिए भी बहुत बड़ा शेर लगा क्योंकि यह कई सालों तक इस मायने में सच का नुमाइंदा बना रहा कि मेरे पास वाकई कोई घर नहीं रहा. दूसरा यह कि मैं अपने बाज्यू के जिस बेटे भूपाल के साथ रहता था, उन दिनों मैं कुछ भी लिखकर सबसे पहले उसी को जिल्लेइलाही बनाकर उसकी खिदमत में पेश करता था, वह इस शेर को सुनकर बेकदर हंसा, इतनी देर तक कि उसके बाद हम जब भी मिलते हैं मैं शेर सुनाता हूं और दोनों हंसते हैं देर तक.
चूंकि मैं पिथौरागढ़ में रहते हुए इस तरह पत्र-पत्रिकाओं में बतौर कवि, शायर और लेखक प्रकाशित होने लगा था, इसलिए कोई हैरानी नहीं कि जब जनकवि बाबा नागार्जुन उन दिनों खटीमा में रह रहे प्रोफेसर वाचस्पति जी के साथ कुछ दिनों के लिए पिथौरागढ़ रहने आए, तो मुझ तक पहले ही खबर पहुंच गई. वे डॉ. रामसिंह के घर में रुकने वाले थे.
मेरी तब तक डॉ. रामसिंह के परिवार से खूब घनिष्ठता बढ़ चुकी थी. डॉ. रामसिंह महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते थे लेकिन उनकी रूचि का विषय इतिहास था. उन्होंने कुमाऊं के ऐतिहासिक धरोहरों पर बहुत काम किया था. जहां तक मुझे याद है मैं दसवीं ग्यारहवीं के दिनों से ही उनके घर जाने लगा था. उनका छोटा बेटा जीतू यानी जीतेंद्र मेरे ही स्कूल में था. उनकी छोटी बेटी जीवरत्न प्रभा मुझसे सीनियर थी, पर उसने भी बारहवीं मेरे स्कूल से ही की, जहां साइंस की कुछ लड़कियों को भी पढ़ने की इजाजत मिली हुई थी. मैं शायद पहली बार ग्यारहवीं के दिनों में उनके घर गया था. उस दिन शरदोत्सव में हमारा कोई नाटक था. वह साल का अंतिम दिन यानी नए साल की पूर्वसंध्या का दिन था.
नए साल के आगमन को खास बनाने के लिए मैं उनके घर गया क्योंकि वहां टीवी पर प्रोग्राम देखने को मिलने वाले थे. हम लोगों ने चाय-कॉफी पीते हुए टीवी पर कार्यक्रम देखे और इस तरह नए साल की पूर्वसंध्या का लुत्फ उठाने के अपने ढंग से बेहद संतुष्ट भी हुए. उन दिनों डॉ. राम सिंह के बड़े बेटे भरत जीवित थे. मैं समझता हूं मेरा इस परिवार से परिचय बड़े भाई की वजह से हुआ क्योंकि डॉ. राम सिंह की बड़ी बेटी विमलप्रभा शायद बड़े भाई की सहपाठी थी. और सबसे बड़ी बेटी डॉ. नीरप्रभा स्वयं भी कॉलेज में इतिहास की लेक्चरार थी. डॉ. रामसिंह की पत्नी को मैं ईजा पुकारता था. वे बहुत ही स्नेहिल थीं. उनकी आवाज में अपनत्व की ऐसी मिठास रहती थी कि वे अगर आसपास रहें, तो आप उस मिठास को अपने अस्तित्व के बोध में घुलते हुए महसूस कर सकते थे. लेकिन इस परिवार के साथ एक के बाद एक इतने हादसे हुए हैं कि सोचने से ही मन घबराने लगता है.
सबसे पहले डॉ. रामसिंह जी के बड़े बेटे का निधन हुआ. वे टनकपुर, खटीमा के पास कार दुर्घटना में मारे गए. उसके बाद डॉ. जीवरत्न प्रभा, जिन्होंने लखनऊ से डेंटिस्ट की पढ़ाई की थी और जिनके सान्निध्य में मुझे लंबा वक्त गुजारने का अवसर मिला था क्योंकि सभी लोगों में वे ही मेरी हम उम्र थीं, वह भी बहुत युवा उम्र में एक दुर्घटना का शिकार हो गईं. वह पिथौरागढ़ से गंगोलीहाट जा रही थीं. रास्ते में जीप पहाड़ से नीचे गिर गई. और अभी कुछ वर्ष पहले तीसरी संतान के रूप में डॉ. नीरप्रभा, जो कई वर्षों तक रानीखेत में थीं, अचानक छोड़कर चली गईं.
डॉ. राम सिंह बहुत कर्मठ थे पर उम्र के अंतिम वर्षों में उन्हें भी परकिंसन ने जकड़ा. वे भी कुछ वर्ष पहले लड़ते-लड़ते विदा हुए. पर मैं जिन दिनों की बात कर रहा हूं उन दिनों यह परिवार पूरी तरह आबाद था. बल्कि इन्हें देखकर कोई भी सोचता कि वाह क्या भरापूरा परिवार है, किसी की नजर न लगे. एंचोली से ऊपर थलकेदार की ओर जाने वाले रास्ते में एक पहाड़ की चोटी पर चारों ओर फलदार वृक्षों से घिरा हुआ इनका खूबसूरत घर था. बड़े भाई भरत अक्सर एक बुलेट पर दिखते थे. उन दिनों बुलेट की अपनी अलग ही शान होती थी. वे बहुत ही मृदुभाषी थे. मैं लगातार तीन साल नए साल की पूर्वसंध्या पर डॉ. रामसिंह के घर जाता रहा.
मुझे याद है जब मैं अपने बड़े भाई के साथ सद्गुरू निवास के किराए के कमरे में रहता था, एक शाम जीवरत्न प्रभा किसी काम से मिलने आई थी. उस दिन मुझे दिन के बहुत से बर्तन धोने थे. उसे जब मालूम चला, तो वह सारे बर्तन धोकर गई. ऐसे घनिष्ठ, घरेलू संबंध की वजह से ही यह हुआ कि डॉ. वाचस्पति जब बाबा नागार्जुन को लेकर उनके घर पहुंचे, तो तुरंत मुझ तक खबर पहुंचा दी गई और मैं बिना वक्त खोए वहां पहुंच गया. उस घर में अन्यथा भी जाने का अलग ही सुकून मिलता था और अभी तो हिंदी कविता के सबसे फक्कड़ और सबसे लोकप्रिय बाबा पधारे हुए थे. मैंने अपनी वही डायरी ली, जिसमें सुंदर लाल बहुगुणा का इंटरव्यू लिया था और बाबा के सामने पहुंच गया. तब तक मैं बाबा जी की अति लोकप्रिय कविताएं तो पढ़ चुका था, पर मैंने ज्यादातर कविताएं नहीं पढ़ी थीं.
बाबाजी से मिला तो उन्होंने पास बुलाकर बैठाया. सिर पर हाथ फेरा. गाल छूए. मैंने बिना समय गंवाए उनसे अपने हिसाब से सवाल पूछे और हमने लंबी बातचीत की. उन्होंने मुझे अपनी कविता आमि मिलिटारिर बुड़ो घोड़ा सुनाई –
आमि
मिलिटारिर बुड़ो घोड़ा
आमाके ओरा कोरबे निलाम
कोनो चतुर ताँगाबाला
निये जाबे आमाके
बोसिए देबे चोखेर धारे
रंगीन खोलश
बलते धाकबे :
सामने चल बेटा
सामने चल
सामने…
यह कविता उन्होंने इतना डूब के सुनाई कि कविता सुनते हुए मैं कविता में आने वाले उस बूढ़े घोड़े को देख रहा था और कविता पूरी होने तक मेरा मन उस घोड़े के प्रति बेतहाशा संवेदनाओं से भर चुका था. बांग्ला में कविता सुनाने के साथ वे इसका हिंदी रूपांतरण भी करते जा रहे थे. कविता सुनाने की उनकी अदा में कुछ ऐसी बात थी कि मैं इस कविता को कभी न भुला सका. बाबा का जब भी जिक्र हुआ, मुझे सबसे पहले उनकी यही कविता याद आई.
बाबा ने मुझसे बहुत देर बातें कीं. इस दौरान वे जीव रत्न प्रभा से मजाक करते रहे. वे उसकी नाक यूं पकड़ रहे थे जैसे वह तीन साल की छोटी बच्ची हो. अगले दिन बाबा जी का नगरपालिका के हॉल में कविता पाठ था. कविता पाठ के लिए लोकल कवि भी आमंत्रित थे, जिनमें इस नाचीज का भी नाम था. मैंने वहां कौन-सी कविता सुनाई याद नहीं, लेकिन मुझे बाबा जी का रस ले-लेकर अमल धवल गिरि के शिखरों पर/ बदाल को घिरते देखा है कविता सुनाना कभी न भूला. जितना झूम-झूम कर उन्होंने यह कविता सुनाई उसी अंदाज में झूम-झूमकर श्रोताओं ने उन्हें सुना. मैंने पहली बार देखा कि कवि अनजाने श्रोताओं के बीच भी कैसा समां बांध सकता है. तब से ही मन में कभी उनकी तरह ऐसी ही छंदबद्ध कविता लिखकर श्रोताओं के बीच वैासे ही झूम-झूमकर कविता सुनाने का एक अरमान मैंने पाला हुआ है.
बाबाजी से मिलने मैं दो बार डॉ. रामसिंह जी के घर गया. दूसरी बार जब गया, तो उन्होंने मेरी डायरी में अपना दिल्ली का पता लिखा. दिल्ली में वे सादतपुर में रहते थे. सुंदर लाल बहुगुणा की तरह ही बाबाजी से मेरा साक्षात्कार भी उत्तर उजाला में प्रकाशित हुआ. मैंने उसकी कतरन काटकर उन्हें भेजी. उन्होंने जवाब में पोस्ट कार्ड भेजा. बाबाजी से मेरी दोबारा मुलाकात नहीं हो सकी लेकिन वह पोस्ट कार्ड हमेशा मेरे खजाने का हिस्सा रहा. आज भी है. मुझे याद है बाद में जब में साहित्य की दुनिया के भीतर घुसा और बहुत से नामी कवियों के बीच मेरा उठना-बैठना हुआ, तो बाबा का जिक्र आने पर मैं भी उन्हें बहुत फख्र से अपनी मुलाकात के बारे में बताता था. यह भी संयोग ही था कि बाबा उस घर में रुके जिस घर में मेरा ऐसा आना जाना था कि उन्होंने तुरंत मुझे बाबा से मिलने बुला लिया. आज उन्हें यूं याद करते हुए मैं कह सकता हूं कि बाबा नागार्जुन के तीन दिनों के उस सान्निध्य ने मुझे निर्णायक तौर पर साहित्य की ओर खींच लेने का काम किया. ( Sundar Chand Thakur Memoir 65)
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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