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मनोज भट उर्फ गब्बू से पढ़े गणित के ट्यूशन के नहीं दिए गए पैसों का किस्सा

पहाड़ और मेरा जीवन – 57

(पिछली क़िस्त: बारहवीं में दसवीं के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा यूं कमाए मैंने पैसे)

मुझे जैसी याद दसवीं की बोर्ड परीक्षाओं की है, वैसी बारहवीं की परीक्षाओं की नहीं है. बोर्ड परीक्षाओं के तुरंत बाद का घटनाक्रम जरूर अच्छी तरह याद है, मगर पता नहीं क्यों परीक्षाओं की तैयारियों की कोई गहरी याद ही नहीं. Sundar Chand Thakur Memoir 57

पिछले साल ही मेरी बेटी ने भी बारहवीं की परीक्षाएं दीं. परीक्षाएं शुरू होने से दो महीने पहले ही घर में ऐसा माहौल बनने लगा था कि जैसे हम किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हैं और दांव पर हम सबके प्राण लगे हैं. वह तो मेरी बेटी भी मेरे जैसे ‘फिक्र नॉट करो मच इन द लाइफ’ फलसफे की अनुयायी है, इसलिए मैं उस दौरान भी अपनी ध्यान, योगा, रनिंग करता रह सका, वरना मैंने देखा है लोग अपने बच्चों की बारहवीं की परीक्षाओं के दौरान घरों में कर्फ्यू लगा देते हैं.

एक कमरे में बच्चा पढ़ रहा होता है, तो दूसरे कमरे में धीमी आवाज में बात करते माता-पिता तैनात रहते हैं कि कब क्या जरूरत पड़ जाए बच्चे को. मैंने बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं कुजोली गांव में अपने दस गुणा दस फुट आकार के उन दो कमरों में रहते हुए ही दी, जिनमें मैं उसके बाद एक साल तक और रहा. बारहवीं की परीक्षाएं आते-आते मैं भविष्य को लेकर थोड़ा चिंतित होना शुरू हो गया था. ऐसा नहीं था कि मुझ पर किसी ने किसी भी किस्म का दबाव बना रखा था. बल्कि मेरे साथ कहानी उलटी थी. मुझ पर सिर्फ और सिर्फ खुद से अपनी ही अपेक्षाओं का दबाव था. इस दबाव को आप कम न मानें. क्योंकि अब मैं कई बार इस विषय पर चिंतन करने लगा था कि आखिर मैं जीवन में क्या करने वाला हूं, कुछ करने वाला हूं भी या नहीं. Sundar Chand Thakur Memoir 56

मुझे एक दृश्य बहुत याद आता है जब एक बार हम चार दोस्त, मैं, भुवन, प्रवीर और मनोज स्कूल के किसी खाली पीरियड में बगल में सटे डिग्री कॉलेज के ग्राउंड में जाकर घास में लेटे धूप सेक रहे थे. ये वे दिन थे जब हम दोस्त आपस में एकदूसरे से ज्यादा से ज्यादा बातें शेयर करते थे. मैंने जाने क्या सोचते हुए तीनों से कहा कि आज मैं एक भविष्यवाणी करना चाहता हूं. मैंने भविष्यवाणी की – ‘तुम तीनों तो जीवन में इंजीनियर बनोगे और मैं फौज में अफसर.’ इस भविष्यवाणी में ऐसा कुछ न था जिसे लेकर किसी को कोई अचरज होता क्योंकि मैं पढ़ने में बहुत शूरवीर न था और एनसीसी में पिथौरागढ़ से ऑल इंडिया कमांडर बनने वाला उन दिनों तक इकलौता कैडेट था, इसलिए मेरा फौज में जाना स्वाभाविक ही था. बाकी तीनों पढ़ने में बहुत मेधावी थे. गणित और विज्ञान दोनों में उनका दिमाग बहुत चलता था. सो वे इंजीनियर बनेंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता था. लेकिन भविष्यवाणी करने का मेरा असली मकसद खुद को दिलासा देना था कि मैं भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो बन ही जाऊंगा.

खुद को दिलासा देने के लिए मैं दोस्तों का उपयोग कर रहा था. मेरी भविष्यवाणी पर वे ऐसा तो बोलने वाले नहीं ही थे कि मैं फौज में अफसर नहीं बनने वाला था. और उनके कुछ नहीं बोलने से मैं यह मानने वाला था कि मैं वाकई फौज में अफसर बनने वाला था. बहुत सूक्ष्म सा ही सही पर मुझे इस स्थिति से एक मनोवैज्ञानिक एडवांटेज मिल रहा था, सो मैंने लिया. Sundar Chand Thakur Memoir 56

लेकिन जैसे-जैसे परीक्षाओं के दिन करीब आ रहे थे, मुझ पर दूसरे लड़कों की वजह से दबाव बढ़ता जा रहा था. आप खुद सोचिए कि मेरी कक्षा के इतने होनहार लड़के भी अगर परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन के लिए खास किस्म के प्रयास करने लगे, तो मेरी क्या बिसात. जी हां, मैं बहुत ईमानदारी से बता रहा हूं कि अगर ये लोग ट्यूशन न पढ़ते, तो मैं हरगिज डेढ़-दो सौ रुपया महीने का किसी से घंटा भर पढ़ने के लिए नहीं देता.

वैसे अगर पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज से बीएससी करके बाहर निकले और इन दिनों बंगलौर में सेटल हो चुके बिसाड़ से भट परिवार से संबंध रखने वाले गजब के होनहार और उन दिनों के क्रांतिकारी युवा मनोज भट उर्फ गब्बू गलती से भी मेरा यह संस्मरण पढ़ ले, तो वह सूद समेत अपना बकाया मांग सकता है क्योंकि उसने भी मुझे इन्हीं दिनों कुछ महीने गणित पढाया था. हालांकि वह ट्यूशन जैसा ही था पर मुझे लगता है मैंने आपसी मित्रता का लाभ उठाते हुए उसे अपना लाभ लेने से महरूम कर दिया और पैसे नहीं दिए, हालांकि दिल्ली में जब कुछ वर्षों बाद उसकी आईसीआईसीआई बैंक में नौकरी लगी और वह कनाट प्लेस वाली चमचमाती जीवन भारती बिल्डिंग में एक छोटे से कमरे में बैंक के चार एक्जीक्यूटिवों में से एक बनकर दुरुस्ती से खुद को साबित करने में लगा हुआ था, मैं सोमालिया में भारतीय सेना के संयुक्त राष्ट्र मिशन में शिरकत करने से मिले डॉलर जेब में भरकर भारत वापस लौटा था, मैंने उसके बैंक में पूरे पिचहत्तर हजार रुपये का फिक्स्ड डिपोजिट करवाया था, जो हम दोनों के बीच अगले कुछ सालों तक कभी भी मिलते-बैठते हुए पारस्परिक संवाद के शुरुआती भाग का हिस्सा बना, जिससे जाहिर होता है कि मेरा यूं उसकी ब्रांच में फिक्स्ड डिपॉजिट करना, अपनी नौकरी की प्रारंभिक अवस्था में उसके लिए अपने अर्थ में एक उपलब्धि सरीखा तो था ही. Sundar Chand Thakur Memoir 56

यानी अगर वह मेरा ये आलेख पढ़ने के बाद मुझे पढ़ाने का हिसाब लगाकर उसके पैसों का दावा करता है, तो मेरे उस फिक्स्ड डिपोजिट से उसकी साख को हुए फायदे की वजह से उसने कालांतर में जो तरक्की की और आज अपनी ही एक कंपनी खोल सांसारिक सफलता का जो परचम उसने फहराया है, इस सबका मूल्यांकन कर इसमें मेरे योगदान का पैसों में मूल्य निकालने के बाद ही अंतिम हिसाब किया जाएगा. जाहिर है गब्बू को यह जोखिम भरा समीकरण लग सकता है और वह मुझ पर ट्यूशन पढ़ाने की ऐवज में किसी भी तरह के मौद्रिक दावे पर आजतक कायम चुप्पी को आगे भी बरकरार रखने में ही अपनी भलाई समझ सकता है. खैर मुझे उसकी चिंता कम है, लेकिन ट्यूशन की बात पर मुझे इंटर में अपने गणित के मास्साब कोठ्यारी जी की याद आ रही है. मैंने उन्हें दो सौ रुपया प्रतिमाह की दर से भुगतान करते हुए दो महीने ट्यूशन पढ़ा था. मैं भूला नहीं कि परीक्षाओं के ठीक पहले उनके पास ट्यूशन पढ़ने वालों का तांता लग गया था.

एक बैच में तीस-तीस लड़के रहते थे. मुझे याद है मैं लड़के गिनता था और फिर बैचों के बारे में पता करता था कि पूरे दिन में कितने बैच पढ़ाते हैं और पाई गई संख्याओं को गुणा करके ट्यूशन से होने वाली उनकी आमदनी का एक मोटा-मोटा अंदाज लगाता था. मुझे तब वह धंधा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि गुणा करके प्राप्त गुणनफल को साठ से गुणा करने पर समझ आता था कि पांच साल में वे अकेले ट्यूशन से ही अठारह लाख कमाने वाले थे, इस दौरान पगार में मिलने वाले पैसों से जो बचाया सो अलग. ऐसा हिसाब लगाते हुए मैंने थोड़े बेमन से ही ट्यूशन पढ़ा. कोठ्यारी सर सिगरेट बहुत पीते थे और शराब भी शायद अच्छी खासी. हालांकि उन्हें मैंने साक्षात बैठकर पीते कभी नहीं देखा, लेकिन उनके चेहरे से बयां हो जाता था. उनका चेहरा मुझे अपने पिताजी जैसा चेहरा लगता था. इसलिए मुझे कई सालों बाद उनके इंतकाल की खबर मिलने पर दुख तो हुआ, पर सदमा नहीं लगा. उनकी मृत्यु में उनकी जीवनशैली की निश्चित भूमिका थी. Sundar Chand Thakur Memoir 56

मैंने न सिर्फ उनसे बल्कि शहर में उन दिनों भौतिक शास्त्र पढ़ाने के लिए बहुत चर्चित सुधीर जोशी सर से भी ट्यूशन पढ़ा. वहां भी सिर्फ दो ही महीने. सुधीर सर भी कुछ साल पहले कैंसर से हारकर चले गए, पर उनके घुंघराले बाल और उनका पढ़ाने का अंदाज मुझे याद है. सब याद है पर अपने पढ़ने का अंदाज जरा भी याद नहीं आ रहा. हां यह जरूर याद आ रहा है कि बारहवीं की परीक्षाओं का जब रिजल्ट आया, तो मेरे आत्मविश्वास को जबरदस्त धक्का लगा था क्योंकि कहां मैं सोच रहा था कि पैंसठ पर्सेंट तक तो आ ही जाएंगे और कहां मैं महज एक नंबर से साठ पर्सेंट नहीं ला सका. ये बात अलग है कि मैंने सीने पर पत्थर रखकर तीन सौ रुपये फीस देकर अपना हिंदी का पेपर फिर से चैक करवाया और मेरा एक नंबर बढ़कर भी आया.

इस तरह मैं कालांतर में बारहवीं के रिजल्ट के बारे में बताते हुए सबको फख्र से बताते पाया गया कि मैं प्रथम श्रेणी में पास हुआ. एक को भले ही मैंने फीस नहीं दी और दो को फीस देते हुए मुझे बहुत कोफ्त हुई, पर अपनी प्रथम श्रेणी के लिए मुझे ट्यूशन पढ़ाने वाली इन तीनों ही विभूतियों का मैं हमेशा आभारी रहूंगा.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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