(पिछली क़िस्त: और मैं बन गया एनसीसी गणतंत्र दिवस कैंप में ऑल इंडिया कमांडर )
पिछले दिनों बेटी को आगे की पढ़ाई के लिए छोड़ने अमेरिका गया. एक समय था जब अमेरिका जाने की कल्पना करना भी अटपटा लगता था. शायद इसलिए कि तब हमारी आर्थिक हालत बहुत खराब हुआ करती थी. आर्थिक हालात तो अभी भी कोई ऐसे नहीं कि अमेरिका की यात्रा करना सहज लगे, पर हां, योजना बनाकर चार-पांच साल पैसा बचाकर और थोड़ा बहुत उधार मांगकर फिर भी जाया जा सकता है, जैसे कि मैं इस बार गया. लेकिन वहां जाकर यह नहीं लगा कि मैं अमेरिका आया हूं, बल्कि लगा जैसे घर आया हूं.
शिकागो एयरपोर्ट पर, जहां मैं उतरा बेटी के साथ, बाहर मेरा जीआईसी पिथौरागढ़ का सहपाठी आशुतोष खड़ा था, उसके चेहरे पर बरसों बाद मिलने का उत्साह चमक भरी मुस्कान बनकर पूरे चेहरे पर फैला हुआ था. वह शिकागो के पास करीब डेढ़ घंटे के ड्राइव के फासले में रहता है. हम डेढ़ घंटे में ही उसके बेहद शांति भरे चारों ओर हरियाली से घिरे खूबसूरत घर पहुंच गए, जहां हम उसकी पत्नी इंदू जी और दो बेटियों से मिले. इंदू जी भी हलद्वानी की रहने वाली हैं. मेरा अगले दिन ही जन्मदिन था. सुबह मेरे उठने तक इंदू जी ने पुए, पूड़ियां, आलू के गुटखों वाली सब्जी, रायता जाने क्या-क्या मेज पर सजा रखा था. जैसे अपने घर पर जन्मदिन नहीं मनाया जाता वैसा सात समंदर पार मनाया जा रहा था.
बहरहाल दो दिनों तक आशुतोष और इंदू जी मुझे और मेरी बेटी को घुमाते रहे. दो दिन बाद हमें ब्लूमिंगटन, इंडियाना निकलना था जहां हम बस से जाने वाले थे. आशुतोष को उस दिन ऑफिस जाना था पर वह सुबह पांच बजे उठ गया कि पहले हमें बस में बिठा आए. क्योंकि वह मेरे स्कूल का साथी था. आशुतोष के साथ बातें करते हुए मैं बार-बार अपने स्कूल के दिनों की ओर लौटा. मैं पहले भी बता चुका हूं कि स्कूल में नवीं दसवीं में हम चार दोस्त थे भुवन, प्रवीर, मनोज और मैं. आशुतोष ग्यारहवीं में हमारे साथ आया. हम पांचों में से बाकी चार पढ़ने में बहुत होशियार थे. भुवन और प्रवीर दोनों सरस्वती शिशु मंदिर से आठवीं करके आए थे. आठवीं में भी वे टॉपर ही थे शायद.
कुछ ऐसा हुआ कि नवीं दसवीं में हम चारों की बहुत छनी. हमारे बीच सहज ही एक आपसी समझ विकसित होती गई. मैं प्रवीर और भुवन के तो घर भी अक्सर जाता रहता था. मनोज के घर भी दो-चार बार तो गया ही हूं. वह शायद भूल गया हो, पर मैं नहीं भूला. वह शतरंज का जबरदस्त खिलाड़ी हुआ करता था. उसके घर में भी हमने शतरंज का एक गेम खेला, जिसमें उसने मुझे मात देने में देर नहीं लगाई. बाद के सालों में भुवन प्रवीर और मैं फिर भी आपस में एकदूसरे की जानकारी लेते रहते थे, पर मनोज लंबे समय तक गायब रहा. कॉलेज से निकलने के बाद उससे मैं दिल्ली में दरियागंज में मिला था, जहां वह किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता था.
हमारी अगली मुलाकात कुछ सालों बाद हलद्वानी में हुई जहां मैं पत्नी के साथ उत्तराखंड की पीसीएस परीक्षा देने आया था. मनोज भी यह परीक्षा दे रहा था. पर उसके बाद वह परिदृश्य से गायब ही हो गया. उसे अभी कुछ ही महीनों पहले मैंने फेसबुक की मदद से खोज निकाला. वह इन दिनों किसी प्राइवेट कंपनी में काम कर रहा है और हरिद्वार में रहता है. उसकी पत्नी और दो बच्चे अल्मोड़ा में हैं. मनोज पढ़ने में जितनी तीव्र बुद्ध का था और अन्यथा भी वह जितना शार्प और हंसमुख था, उसके मुताबिक उसे सांसारिक स्तर पर ज्यादा बेहतर स्थिति में होना चाहिए था, पर स्कूल के दिनों में हम जैसा सोचते हैं, ठीक वैसा ही कहां होता है. और जीवन का आनंद तो इसी में है कि वहां अनहोनियां बनी रहें.
एक दोस्त के रूप में मेरे लिए ज्यादा अच्छी खबर यह है कि मनोज आज भी उतना ही हंसमुख है और उसका दिमाग उतना ही शार्प. सांसारिक सफलता जीवन में खुशियों की उपस्थिति और दिमाग की प्रखरता दोनों में से किसी का भी पैमाना नहीं.
मनोज को फेसबुक से खोज लेने के बाद मैंने महसूस किया कि मैं जीवन में पीछे की ओर लौटने का ज्यादा सुख ले रहा हूं. कुछ दिनों पहले भुवन से भी बातें की. भुवन इन दिनों बिहार में है. वह एनटीपीसी में इंजीनियर है. कई सालों तक वह ऊंचाहार में था. दो साल पहले ही उसका बिहार में ट्रांसफर हुआ. उसकी दो बेटियां हैं. एक बारहवीं में और एक नवीं में. उनकी पढ़ाई के चलते ही परिवार अभी भी ऊंचाहार में ही है.
भुवन ने दिल्ली में मेरे घर से ही एनटीपीसी का मेडिकल टेस्ट दिया था. उस टेस्ट के लिए मैंने उसकी खास तैयारी करवाई थी, पर उसका ब्यौरा उसके रिटायरमेंट के बाद ही दिया जा सकता हे. अमेरिका यात्रा के दौरान तीसरे दोस्त प्रवीर से भी फोन पर लंबी बातें हुई. वह कई सालों से कैलीफोर्निया में ही है. वह एचबीटीआई से इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद जब मुंबई में था, तो एक बार मैं उससे मिलने आया था. यह हमारे संघर्ष के दिन थे. उसने एक छोटा-सा कमरा किराए पर लिया हुआ था, जिसमें टॉयलेट आकार इतना था कि खांस पड़ों, तो हवा दीवार से टकरा मुंह पर वापस लगती थी. मेरा मुंबई आना ऐसा ही था जैसे देहात से कोई शहर में आए. उससे पहले मैं हद से हद दिल्ली तक गया था.
मुंबई में वह मुझे बैंड स्टैंड ले गया जहां उन दिनों होटल सीरॉक हुआ करता था. बैंड स्टैंड में अपने-अपने साहस और आराम के मुताबिक एकदूसरे से करीबी दिखाते हुए प्रेमी-प्रेमिकाओं की कतार थी. मैं ऐसी जगह से आ रहा था जहां साथ चलती लड़की की उंगली भी छू जाने पर कई दिनों नींद नहीं आती थी. और यहां तो. खैर पिथौरागढ़ रहते हुए हम चारों दोस्त लगभग एक साथ ही किशोर वय को पार कर रहे थे. हमारे शरीर के भीतर उम्र के हिसाब से हार्मोंस का कारनामा वाजिब ही था. लेकिन हम बहुत शरीफ लड़के थे. उन दिनों पढ़ाई में साठ पर्सेंट से ऊपर पाने वाले लड़के शरीफ ही होते थे. हमने और कोई काम तो नहीं किया पर हम ग्यारहवीं बारहवीं में बाजार बहुत घूमे.
पिथौरागढ़ की बाजार के एक ओर जिला पुस्तकालय था. हम इस पुस्तकालय से लेकर दूसरी ओर भाटकोट तक जाते थे, जहां से डूबते हुए सूर्य को नजरबद्ध किया जा सकता था. भुवन मैं प्रवीर और मनोज, ज्यादातर हम चारों ही होते. हालांकि हमने आपस में कभी इस बारे में बात नहीं की और संभव है मेरे बाकी मित्र मेरी बात से असहमत हों, इस बाजार भ्रमण का एक आकर्षण वे नवयुवतियां भी होती ही थीं, जो रंगबिरंगे परिधानों में हमारी ही तरह बाजार भ्रमण पर निकलती थीं.
कभी-कभी हम उन दिनों नए खुले मेघना नाम के रेस्टोरेंट में बैठकर कॉफी भी पी लिया करते थे. मेघना में बैठकर कॉफी पीना तब एक स्टेटस सिंबल समझा जाता था. पर यह तभी होता, जब हम कुछ सेलिब्रेट कर रहे होते. जन्मदिन के दिन हम एकदूसरे को आर्चीज का कार्ड देते थे. उस कार्ड में बहुत मन से और रंगीन पैन से मन की बातें भी लिखते. प्रवीर और मेरे बीच तो लंबे समय तक पत्राचार भी चला. कुछ दिनों पहले उसने ही मुझे दसवीं कक्षा की मेरी एक तस्वीर भेजी, जो मेरे पास भी नहीं थी. पिछले दिनों ग्यारहवीं और बारहवीं में हमें भौतिक विज्ञान पढ़ाने वाले गुरूजी जीवन चंद्र पांडे जी, जो छात्रों के बीच जीब दा के नाम से ज्यादा लोकप्रिय थे, का अचानक फोन आया.
1987 में बारहवीं किया था मैंने और उसी वर्ष उनसे आखिरी मुलाकात रही होगी. यानी एक तरह से बत्तीस साल बाद उनका फोन आया और उन्होंने हम चारों के बारे में तफ्तीश से पूछताछ की. जीब दा इन दिनों हलद्वानी में रहते हैं. पता चला कि अमेरिका से आशुतोष जोशी ने उन्हें मेरा नंबर दिया था.
हम चार दोस्त स्कूल से निकलने के बाद कभी एक साथ नहीं मिले. पर मुझे लगता है कि हम मिल सकते हैं. बल्कि आशुतोष को भी हम शामिल कर सकते हैं. प्रवीर और आशुतोष दोनों ही हिंदुस्तान आते रहते हैं. और आते हैं तो दिल्ली में रहते भी हैं. मैंने प्रवीर को कहा है कि वह अगली बार इंडिया आए तो दो-तीन महीने पहले ही अपना प्लान साझा करे. इतने पुराने दोस्तों का इतने लंबे समय बाद आपस में मिलना कैसा होगा- सोचकर ही मन में उल्लास भर जाता है.
अपनी दोस्ती के बारे में सोचता हूं तो यह भी सोचता हूं कि जिला पुस्तकालय से भाटकोट तक कई-कई चक्कर लगाते हुए उस भविष्य की बात करना जिसे हमने कभी नहीं देखा था, उसकी कितनी बड़ी भूमिका थी उस दोस्ती को गहरा करने में और फिर उन पलों के बारे में भी तो सोचने लगता हूं जब हम सभी उस कल्पना वाले अज्ञात भविष्य को जी चुकने के बाद फिर उसी पुस्तकालय से भाटकोट वाले रास्ते पर वैसे ही हंसते गपियाते घूमने निकलेंगे, तो कैसा समां होगा- वही शहर, वही राह, वही सूरज, सब कुछ एक उम्र के बराबर पका हुआ.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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