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माता की मृत्यु के बाद शिशु सुमित्रानंदन पन्त को भी मरा मान चुके थे परिजन

उत्तराखण्ड के वर्तमान बागेश्वर जिले में स्थित मनोरम पर्यटन-स्थल कौसानी में वर्ष 1900 में आज ही दिन यानी 20 मई को एक मध्यवर्गीय कुमाऊनी ब्राह्मण गंगा दत्त पन्त के घर जन्मे थे भारतीय काव्य की छायावादी परम्परा के प्रतिनिधि कवि सुमित्रानंदन पन्त (Sumitra Nandan Pant Birthday).

जन्म के कुछ ही घंटों के बाद उनकी माता जी का देहांत हो गया और उनकी शुरुआती परवरिश के बारे में एक किस्सा प्रचलित है. माता के देहांत के बाद घर के सभी लोग अंतिम संस्कार की व्यवस्था में व्यस्त हो गए और नवजात बालक की सुध लेने वाला कोई न था. प्रसव कराने आई दाई ने बालक को एक कपड़े में लपेट कर एक तरफ रख दिया. कुछ समय बाद लोगों को बालक की याद आई तो ढूंढ-खोज शुरू हुई. चूंकि दाई तब तक अपने घर जा चुकी थी बालक किसी को नहीं मिला. बाद में दाई के आने पर ही बच्चे का पता चला (Sumitra Nandan Pant Birthday).

राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के हाथों सम्मानित होते सुमित्रानंदन पन्त

इस घटना से प्रभावित होकर उनके दादाजी ने पहले बालक को एक स्थानीय ब्राह्मण को दान किया और उसके बाद कुछ रकम देकर उसे वापस खरीदा क्योंकि वे उसे मरा मान चुके थे. इस बालक का नाम गुसाईं दत्त रखा गया और उसकी दादी ने उसका लालन-पालन किया.

सात वर्ष की आयु से ही कविता लिखना शुरू कर चुके इस बालक को अपना नाम शुरू से ही पसंद नहीं था और किसी समय उसने अपना नाम बदल कर सुमित्रानंदन रख लिया. शुरुआती शिक्षा अल्मोड़ा से लेने के बाद वे अपने बड़े भाई के साथ बनारस आ गए जहां के क्वींस कॉलेज से उन्होंने आगे की पढ़ाई की. यह 1918 की बात है. इसके आगे इन्टर की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद आये लेकिन महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच ही में छोड़ दी.

स्वाधीनता संग्राम में शिरकत करने के अलावा उन्होंने अनेक समकालीन कवियों से संपर्क बनाए. इलाहाबाद उन दिनों हिन्दी साहित्य का बहुत बड़ा गहवारा हुआ करता था. यहीं उनकी मुलाक़ात महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा जैसे साहित्यकारों से हुई. इसी दौरान उन्होंने स्वयं ही हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला साहित्य का गहरा अध्ययन भी किया.

सुमित्रानंदन पन्त की हस्तलिपि

बचपन में मातृप्रेम से वंचित हो गए सुमित्रानंदन पन्त ने प्रकृति में ही अपनी माता को देखा और यह अकारण नहीं था कि यही प्रकृति जीवनपर्यंत उनकी कविता की आत्मा के मूल में रही. भारतीय साहित्य में उन्हें निराला और महादेवी के साथ छायावाद की त्रिमूर्ति में से एक गिना जाता है. उनकी कुछ प्रख्यात रचनाएं हैं – चिदम्बरा, वीणा, उच्छावास, पल्लव, ग्रंथी, मधुज्वाला, गुंजन, लोकायतन, ऋता, मानसी, वाणी, युगपथ और सत्यकाम आदि. चिदम्बरा के लिये उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरुस्कार दिया गया., सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार पद्मभूषण जैसे बड़े सामानों से भी उन्हें नवाजा गया.

काव्यपाठ करते हुए

आज उनके जन्मदिन पर पढ़िए उनकी एक प्रसिद्ध रचना:

भारत माता
ग्रामवासिनी.

खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल,
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी कि प्रतिमा
उदासिनी.

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
अधरों में चिर नीरव रोदन,
युग युग के तम से विषण्ण मन,
वह अपने घर में
प्रवासिनी.

तीस कोटि संतान नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
नत मस्तक
तरु तल निवासिनी!

स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
राहु ग्रसित
शरदेन्दु हासिनी.

चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
आनन श्री छाया-शशि उपमित,
ज्ञान मूढ़
गीता प्रकाशिनी!

सफल आज उसका तप संयम,
पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
जग जननी
जीवन विकासिनी.

(जनवरी 1940)

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