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जब साग-सब्जियों का मौसम नहीं होता तब ठेठ पहाड़ी उपयोग में लाते हैं सुखौट

बेमौसम जब साग सब्जी खेतों में नहीं उगती या फिर मौसम की गड़बड़ी से दूसरी जगह से सागपात लाना मुमकिन न हो तब पहाड़ में ‘सुखौट ‘से काम चलाया जाता. सुखौट का मतलब हुआ धूप में सुखाई सब्जियां. लौकी, मूली, कद्दू को धो-धा कर इनके छिलके चाकू से अलग कर धूप में डाल दिये जात . जब इनका पानी पूरा सूख जाए तब इनको सूपे, डाले में बटोर कुछ समय हवा लगने के बाद डिब्बों में भर लेते. इन्हें ही ‘सुखौट ‘या ‘खौरी’कहा जाता है. Sukhaut Traditional Vegetables in Uttarakhand

साबुत सब्जियों जैसे गड़ेरी, पिनालू, गोल मूली, अदरख, बड़े निम्बू को छायादार स्थानों में बने गड्डों में डाल दिया जाता. इनके ऊपर मडुए का भूसा डाल कर छोप देते. अदरख, पिनालू, गड़ेरी व हल्दी के भुड़ को पुवाल के ढेर में बांध एक स्थान में ढेर रख देते जिसे धुचका भी कहते. लहसुन की गांठों को समूचा उखाड़ आपस में बांध हवादार जगह पर लटका देते या रख देते.  ककड़ी जब पूरी तरह पक जाती और उसका छिलका पीला भूरा हो जाता और बाहर की परत में चिमड़े पड़ने शुरू हो जाते, तब उसे उसी पेड़ पर लटके रहने देते या डंठल सहित तोड़ कर लटका कर रख देते.

गोल कद्दू भी जब हरे से पीला पड़ने लगे तो डंठल सहित काट कर छत की पटाल में रख देते. लौकी, कद्दू ककड़ी जब ‘ब्य्ल’, ‘लगिल’ या  बेल में सूखने लगे, मुरझाने लगें अंदर से फफूँद भी होने लगे और उनमें चिमड़े पड़ने लगे तो वह खराब होने के लक्षण होते. इसे ‘कपसीन’ या ‘कपसीण’ कहते. ऐसे पिलपिले पड़ों को बेल से हटा देते हैं. बेलों पर चाकू दराती का प्रयोग भी ठीक नहीं माना जाता, इसलिए इन्हें तोड़ कर अलग कर देते.

मेथी, पालक, चमसुर या हालंग, लाही जैसी हरी पत्तियों को अच्छी तरह धो धा काट कर सूखा लिया जाता.  कद्दू, कद्दू की मुलायम फली या ‘रौड़’  भी टीप  कर सुखाये जाते. पिनालू के पत्तों को काट कर सुखा लिया जाता,  जिसको “करकोल” कहते. करकोल की टपकी  दाल-भात के साथ बहुत स्वाद लगती. इसी तरह पिनालू के तने भी छोटे छोटे टुकड़े काट सुखा इसके नौल बनाये जाते. उर्द या मांश की दाल को पीस कर इन नौलों के साथ मिला बड़ी भी बनाई जाती. Sukhaut Traditional Vegetables in Uttarakhand

मूली को भी टुकड़ों में काट सुखा लिया जाता जो मूली के ख्वैड़ कहे जाते. मूली को मोटा-मोटा कोर कर भी सुखाते. सूख जाने पर इन्हें आलू वगैरह के साथ डाल सब्जी बनती. इन्हें पल्यो या झोली में भी डालते. पहाड़ी ककड़ी को कोर कर निचोड़ कर कटोरी के आकार में डाल सुखा लेते. सूख जाने के बाद बेमौसम में इसे रायते के लिए उपयोग में लाते. हल्दी को उबाल कर इसके ख्वैड़ धूप में खूब सुखा लेते. फिर इन्हें सिल लोड़े में पीस कर मसाले की तरह प्रयोग में लाया जाता.

जंगलों में खुम्ब भी काफ़ी उगते इन्हें च्यूं या च्यों भी कहा जाता. ग्रामीण इनकी पहचान कर गुच्छी, पैरासोल, टयूवर जैसी जानी पहचानी किस्मों को अक्टूबर-नवंबर तथा मार्च-अप्रैल में टोकरियों में इकट्ठा कर लेते फिर इनको सुखा कर माला बना कर लम्बे समय तक खाया जाता.

फल लम्बे समय तक ताजे रहें और जल्दी ही खराब न हो जाएं इसलिए उन्हें डंठल सहित तोड़ कर रख लिया जाता. इसी तरह धूप में ज्यादा तपे फलों को खाना इसलिए ठीक नहीं माना जाता क्योंकि इससे छेरुवा या दस्त होने का खतरा होता. हिसालू को तो सूर्योदय से पहले ही तोड़ कर रख लेते. खुमानी को काट कर सुखा लेते. ऐसे ही पहाड़ में होने वाले अखरोट भी खूब सुखा लिए जाते.

दाड़िम को बीज निकाल कर भी सुखाते या पूरे दाने को भिंण  या डंडी सहित सुखा लेते . पेड़ की डंडी फांग हुई. पेड़ से फांग या डंठल सहित तोड़े ना जाने पर दाड़िम सड़ने लगता है. दाड़िम के बीजों से चूक भी बनता है जो पेट के लिए खास कर पेट के कीड़े या जोके दूर करने के लिए दवा की तरह भी प्रयोग होता , चटनी तो स्वाद होती ही. दाड़िम के साथ ही बड़े निम्बू और जामिर का रस पेर  कढ़ाई में उबाल गाढ़ा कर बोतल में भर लिया जाता . यह सालों साल खराब नहीं होता.

गाड़ गधेरों के साथ ही पहाड़ की नदियों में विभिन्न  प्रकार की मछलियां भी पकड़ी जातीं. माना जाता कि मछली के सर वाले हिस्से को खाने पर आँखों की  रौशनी बढ़ती है. छोटी मछलियों को पकड़ने के बाद वहीं भून भान के खाने का अलग ही कौतुक होता. मछलियों से माछेन दूर करने और इन्हें संरक्षित करने को पेट चीर कर आंत और गुद्दड़ मुददड़ निकाल लूण हल्द का लेप लगा देते. बाद में इन्हें भून भान, तल  या रसदार बना खाते. महाशीर तो सबसे स्वाद होती ही इसके साथ अन्य बहुत किस्में, पहाड़ के गाड़ गधेरों के साथ छोटी बड़ी नदियों, ताल -खाल व  झीलों में मिलतीं. जानवरों में खस्सी बकरे, बकरी, भेड़  व छोटी बकरी झप्पू का शिकार भी मसाला लग कर सुखाया जाता.

सीमांत इलाके में तो प्रवास करते समय मीट के टुकड़ों या साफ सूफ किये जानवर पर हल्दी, नमक, लाल खुस्याणी के साथ स्थानीय रूप से मिलने वाली कुछ वनस्पतियों व मसालों का लेप लगा देते. छोटे टुकड़ों की माला बना लीं जाती. बड़े टुकड़े लटका दिये जाते. इन्हें अँधेरे गोठ में रख लकड़ी का धुवां कर द्वार बंद कर देते. ठंड का मौसम बीत जाने के बाद जब गाँव में वापसी होती तब तक सूखा शिकार तैयार होता जिसका मसाले के साथ बना खमीरा और लकड़ी के धुवें की ख़ुशबू अलग ही स्वाद देती. इन्हें भून पका कर खाया जाता. Sukhaut Traditional Vegetables in Uttarakhand

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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