जून के महीने की भरी दोपहरी. इतना भरा पूरा गांव आराम की मुद्रा में था. इसलिए चारों ओर खामोशी सी पसरी थी. इस खामोशी को अगर कभी-कभी तोड़ रहे थे तो वे तीन प्राणी थे— अम्बर, धरा और कालू नाम का भोटिया कुत्ता जिस पर पूरे गांव का हक़ था. (Pahad Ki yaad)
रोज़ाना दोपहरी में कालू गांव के निकास पर रास्ते के किनारे खड़े वर्षों पुराने पीपल के पेड़ के नीचे आकर सुस्ता लिया करता. इससे उसे ठंडक भी मिलती और गांव के रास्ते पर आने-जाने वालों पर उसकी नज़र भी रहती. किसी भी आहट पर वह ज़ोर-ज़ोर से भोंकने लगता.
अम्बर और धरा गांव के रास्ते के दोनों ओर लगे आम के बड़े-बड़े पेड़ों पर छोटे-छोटे पत्थर मार कर आम तोड़ने का प्रयास करते पर कामयाब नहीं हो पा रहे थे. ये उनका रोज़ का काम था.
अम्बर और धरा इस गांव में अपनी नानी के घर आये हुए थे, गर्मियों की छुट्टियों में.
अम्बर और धरा के पिता मेरठ में नौकरी करते हैं. इसलिए उनका परिवार वहीं बस गया. ये दोनों बच्चे पहली बार नानी के गांव आये थे. उन्हें बड़ा अच्छा लग रहा था. उन्हें पहली बार पता चला था कि हमारे आसपास ईंट-सीमेंट के जंगलों से इतर हरे-भरे पेड़ों से लदे बड़े-बड़े पहाड़ और नदियां भी होते हैं.
कच्चे आमों पर निशाना साधने के फेर में नन्हीं धरा एक बार जब नीचे गिरी तो कालू पीपल के चबूतरे से छलांग मार कर दौड़ता हुआ उसके पास पहुंच उसके चारों ओर चक्कर काटने लगा. मानो पूछ रहा हो-‘चोट तो नहीं लगी ?’
दोनों बच्चे थोड़ी देर चुप खड़े रहे. कालू ने भौंकते हुए दूर तक दौड़ लगायी और फिर उसी फुर्ती से वापस आकर पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया. ऐसा लगा मानों उसने अम्बर और धरा को ये सुनिश्चित कर दिया हो कि तुम दोनों अपने खेल में मगन रहो. मैं तुम्हारी सुरक्षा में लगा तो हूँ.
दोनों बच्चों ने पेड़ पर फिर निशाने साधने शुरू कर दिए.
एक पेड़ पर पत्थर मारने के बाद जब वे कोई आम नहीं गिरा पाते तो दूसरे पेड़ पर आजमाइश करने लगते. सूरज अपनी तपिश के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा था. घड़ी की सुइयों ने कब दो घंटों का सफर पूरा कर डाला पता ही नहीं चला.
अम्बर और धरा थक चुके थे. दोनों आम के पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गए.
अम्बर ने देखा काले चींटों की एक लंबी कतार ज़मीन में बने बिल से निकलकर आम के पेड़ पर चढ़ रही है. उसने एक सूखी डंडी उठायी और चींटों के रास्ते में ज़मीन पर गहरी रेखा खींचकर अवरोध पैदा करने लगा. चींटे अपना रास्ता छोड़ इधर-उधर भागने लगे. ये सब देख धरा ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. बहिन को खुश देख अम्बर ने अपनी शैतानी और बढ़ा दी और खुद भी हंसने लगा.
यूँ चींटों को ज़्यादा परेशान करते देख धरा ने अम्बर का हाथ पकड़ते हुए कहा—’रुको भैया! उन्हें तंग मत करो. जाने दो.‘
धरा भाई के हाथ से डंडी छीन पाती उससे पहले अम्बर ने दोनों हाथों से उसे मोड़ा और दो टुकड़े कर दूर उछाल दिया.
‘ले! तू खुश रह.‘ कहता हुआ अम्बर खड़ा होकर निक्कर की जेब में भरी अम्बियां निकाल कर ज़मीन पर रखने लगा.
‘एक… दो… तीन… चार…पांच… और छै…‘
‘बस इत्ती सी?’ धरा ने पूछा और उन्हें उठाकर वापस भाई की जेब में रखने लगी.
‘हां! चल अब घर चलते हैं. रात में नानी से बोलेंगे कि इनकी चटनी बना दें. नानी कच्चे आमों की खट्टी-मीठी चटनी बहुत अच्छी बनाती है.‘ अम्बर ने बहिन का हाथ पकड़कर खींचना शुरू किया.
वो अभी कुछ ही कदम चले थे कि धरा ने अम्बर से कहा—‘भैय्या! प्यास लगी है.‘
बहिन की बात सुन अम्बर ठिठक गया. उसने अपने निककर की दायीं जेब पर हाथ मारा तो उसे अहसास हुआ कि इसमें तो आम भरे हैं. उसने फिर बायीं जेब पर हाथ मारा तो वह मुतमईन हो गया. उसे नानी ने दुकान से कुछ लेकर खाने के लिए कल ही पांच रुपये का सिक्का दिया था. जो अभी भी उसकी जेब में था. उसने पैसे रखी जेब को ज़ोर से मुट्ठी में भींच लिया. वो धरा से बोला—’फ्रूटी पिएगी?
‘मगर…’ धरा ने कुछ कहना चाहा. शायद वह जानती थी कि बिना पैसों के फ्रूटी नहीं पी जा सकती.
‘अरे चल ना…’ कहते हुए अम्बर ने गांव की एक मात्र दुकान की ओर दौड़ लगाई तो धरा भी उसके पीछे-पीछे हो ली. दोनों बच्चों को दुकान की ओर दौड़ते हुए देख कालू भी दुम हिलाता हुआ उनके पीछे भाग पड़ा.
दुकान में रबिन्दर लाला कुर्सी पर बैठे ऊँघ रहे थे.
अम्बर ने ज़रा ज़ोर से पूछा—-’फ्रूटी है?’
लाला हड़बड़ा गए.
‘फु… रु… टी..?’ कहते हुए मेज पर रखे पांव नीचे किये. फ्रूटी के दो टेट्रा पैक निकाल मेज पर रखते हुए बोले—’ले बेट्टा.‘
अम्बर जेब से पांच रुपये का सिक्का निकाल मेज़ पर रखते हुए बोला—’नहीं मेरे पास पांच रुपये हैं बस एक दे दो.‘
इसी बीच दुकान के फर्श पर बोरी बिछाकर दोपहर की नींद निकाल रहे गमलु दा की नींद उचट गयी. वो उठकर बैठ गए. आंखों के ऊपर हथेली से ओट की और गौर से दोनों बच्चों को देखते हुए रबिन्दर लाला से बोले—’ भुला रब्बी! यि….हरशू का नाती-नतणा भरि दुफरा मा क्य कन्ना यख?
‘हरशू का नाती?’ रबिन्दर लाला ने आश्चर्य से चौंकते हुए अम्बर का हाथ पकड़ते हुए कहा— ‘अरे बेट्टा तू रोशनी का लड़का है क्या?’
‘हां.‘
‘अरे गमलु दा! रोशनी के बच्चे इतने बड़े हो गए?… ले बेट्टा, दोनों ले जा. पी लेना दोनों जने.‘
रबिन्दर लाला ने अम्बर के हाथ में दोनों पैकेट फ्रूटी के रख दिये.
‘नहीं. मेरे पास और पैसे नहीं हैं.‘ अम्बर ने हाथ पीछे खींच लिए.
‘पैसे नहीं तो क्या हुआ. और क्या है तेरे पास?’ लाला ने मज़ाक किया.
‘मेरे पास…’ कहते हुए अम्बर ने बाल सुलभ अंदाज़ में अपनी निक्कर की जेब में रखे छह के छह कच्चे आम लाला की मेज पर रख दिए.
ये सब देख रबिन्दर लाला ज़ोर से हंस पड़े. वे कुर्सी से उठे. कच्चे आमों को समेट कर अपने गल्ले में डाला और दुकान से बाहर आ गए. उन्होंने सबसे पहले मेज पर रखा पांच रुपये का सिक्का उठाया और उसे अम्बर की निक्कर की जेब में डाल दिया. फिर फ्रूटी का एक पैक उसकी दायीं जेब में और दूसरा बायीं जेब में डालकर बोले—’जा बेटा हो गया तेरा मेरा हिसाब बराबर. अब दोनों भाई-बहिन पी लेना.‘
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कच्ची अम्बियों के रूप में फ्रूटी का दाम चुका कर अम्बर और धरा घर की ओर चल पड़े.
गमलु दा इस घटनाक्रम को बड़े गौर से देख रहे थे. बच्चों के चले जाने के बाद उन्होंने रबिन्दर लाला से बड़ी बेताबी के साथ प्रश्न किया—’अरे भुला! और तो जो हुआ सो हुआ, पर छै कच्चे आम के बदले… भई मेरी समझ से परे है ये बात.‘
‘कुछ बातें ऐसी होती है दादा. जिन्हें कभी समझने की ज़रूरत ही नहीं होती या फिर वर्तमान से हटकर दूर भविष्य की सोचकर समझने की ज़रूरत होती है.‘ लाला अपनी बात कह चुके थे. लेकिन गमलु दा के माथे पर उभर आई सिलवटें बता रहीं थीं कि वे अभी कुछ समझ ही नहीं पाए.
लाला ने लोटा उठाया. पानी पिया और फिर अपनी बात कहनी शुरू की—‘दादा! मैं चाहता तो पांच रुपये लेकर एक फ्रूटी देकर अपने दुकानदारी के फ़र्ज़ को निभा लेता या फिर उन बच्चों को वो सब मुफ्त में भी दे देता. आखिर वो भी तो इस गांव से खून के रिश्तों से जुड़े हैं… मगर आज की इस घटना के बहाने मैं उनके अंदर ज़िंदगी भर के लिए एक अहसास जगाना चाहता था… ये बच्चे बड़े होकर बेहतर ज़िंदगी की तलाश में जब दूर शहरों की भीड़ में कहीं गुम हो जाएंगे तब अगर उन्हें सुकून के पल तलाशने होंगे तो उसके एवज में उन्हें सिर्फ गांव ही याद आएगा. तब वे समझ पाएंगे कि दौलत के पीछे दौड़ते-दौड़ते जिस जगह को वो पीछे छोड़ आये हैं असली रिश्ते वहीं बसते हैं. कच्चे आमों वाले वो पक्के रिश्ते.‘ रबिन्दर लाला गल्ले में पड़े उन छह कच्ची अम्बियों में एक को निकालकर अपनी हथेली में रख सहलाने लगे. मानो वो भी अम्बर और धरा के बीच अपने रिश्तों को और गहरा कर रहे हों.
मूल रूप से गांव डाबर, पौड़ी-गढ़वाल के रहने वाले उपान्त डबराल फिलहाल दिल्ली में डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर और न्यूज प्रोड्यूसर हैं.
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