नदी की तरफ उतरते समय वह किनारे पर कपड़े धोती नजर आती है. हम नदी के तट पर दो-एक घंटे घूमते रहते हैं. वापस आते हैं तो वह काम से फारिग हो पुल की बगल में फुरसत में बैठी घाम तापती दिखती है. (Story of Vijeshwari from Satpuli Garhwal)
हमारा एक साथी पीछे छूट गया है. हम उसका इन्तजार कर रहे हैं.
एक जगह खड़ा देख कर वह हमें गौर से देखना शुरू करती है. उसके चेहरे पर उत्सुकता के भाव पसरना शुरू होते हैं. मैं उसके नजदीक जाकर उसे नमस्ते कहता हूँ. वह मुस्करा कर नमस्ते कहती है और अपने आँचल में बंधी गांठ खोल कर अपने मुठ्ठी में बंधी कोई चीज निकाल कर हमें देती है – भांग के सूखे हुए बीज हैं जिन्हें हमारे इलाके में तमाम तरह के व्यंजनों में इस्तेमाल किया जाता है. किसी तरह का नशा नहीं होता. इन्हें वैसे भी खाया जाता है और गरीब लोग इन्हें खूब खाते हैं. आख़िरी बार कब खाए थे मुझे याद नहीं पड़ता. (Story of Vijeshwari from Satpuli Garhwal)
बीजों को चबाना शुरू करता हूँ दिमाग में बचपन का एक भूला हुआ स्वाद उमड़ना शुरू करता है.
मैं उससे ऐसे ही बात करने लगता हूँ. कहां की रहने वाली है, कितने बच्चे हैं वगैरह. दो चार वाक्यों के बाद उसकी आँखें नम होना शुरू होती हैं.
बारह साल की उम्र में ब्याह हो गया. पति कुछ साल बड़ा था. मजदूरी-दिहाड़ी वगैरह किया करता था. अड़तीस-चालीस का था जब बीमारी से उसकी मौत हो गयी. तब तक चार बच्चे हो चुके थे. तीन बेटियां एक बेटा. चारों की परवरिश की जानी थी. घर पर एक पैसा नहीं बचा था.
पिछले बीस-पच्चीस सालों में उसने मजदूरी, चौका-चूल्हा से लेकर हर तरह का वह काम किया जिससे चार पैसे की कमाई होती हो. बच्चे बड़े किये. चारों की शादी की. लड़कियां हरिद्वार-ऋषिकेश-दिल्ली वगैरह ब्याह दी हैं. लड़का हरिद्वार कम्पनी में लगा है. बहू ठीक नहीं निकली सो दोनों ने मिलने आना छोड़ दिया है. बेटियाँ भी ऐसे ही ही बस कहीं जी रही हैं. पोते-पोतियों के मुखड़े देखे बरसों बीत गए.
वह एक बार अपनी हथेली अपने सूने माथे पर फिराती है और उसकी आँखों में फिर से नमी आना शुरू करती है. उसकी आँखों को गौर से देख सकना नामुमकिन है. वे निहायत सूख चुकी आँखें हैं. उनमें आंसू नहीं आते सिर्फ नमी रिस आती है ठीक जिस तरह सूखी पहाड़ी ढलानों पर कभी-कभार बेमौसम का कोहरा चढ़ता आता है. समय ने उस पर कितने जुल्म किये होंगे ठीक-ठीक बता पाना संभव नहीं होगा. अब उन आँखों में किसी तरह की कोई याचना भी नहीं बची है. कोई ढंग से बात कर ले तो उसे अचरज होता है.
अब मैं वहीं जमीन पर उसकी बगल में बैठ जाता हूँ.
पौड़ी गढ़वाल जिले के चौमासूधार, खैरासैण की मूल निवासिनी विजेश्वरी फिलहाल सतपुली नाम की एक छोटी सी कस्बेनुमा बसासत में रहती है. किराए का एक छोटा सा कमरा लिया हुआ है. उसी में रसोई बना रखी है. गुसलखाने की जरूरतें पूरी करने को नदी का किनारा है, काम के नाम पर महीने में दस-बारह रोज नसीब से हाथ लग जाने वाली दिहाड़ी है और जीने को पहाड़ से बड़ा दुर्दान्त जीवन. (Story of Vijeshwari from Satpuli Garhwal)
भोले-भाले बाबूसाहब की तरह मैं उससे पूछता हूँ क्या कभी सरकार की तरफ से कुछ सहायता मिली. “कभी कुछ नहीं मिला. कुछ मिलता भी कहां है!” – वह कहती है और हमारी तरफ भांग के कुछ और बीज बढ़ाती है.
दोस्त आ गया है. हमें देर हो रही है. बहुत दूर का सफ़र बाकी है अभी. उठते हुए उसकी दरदरी हथेली में कागज़ के कुछ टुकड़े धर सकने के अलावा मैं कुछ भी कर सकने से खुद को लाचार पाता हूँ. इतने भर में किसी अपने से बिछड़ने का उदेक उसके चेहरे पर पता नहीं कहाँ से आ गया है.
विदा लेते हुए मैं ऐसे ही उसकी उम्र पूछता हूँ. वह मुझसे फकत दो साल बड़ी निकलती है.
सतपुली की वह स्त्री और उसके जैसे लाखों-लाख जन जीते नहीं हैं. विजेश्वरी मुझसे सौ गुना अधिक जीवन भुगत चुकी है. वह मेरे पहाड़ की बड़ी बेटी है. (Story of Vijeshwari from Satpuli Garhwal)
पूरी तरह पराजित हो चुकी समूची मनुष्य-जाति की तरफ से तुम से माफी माँगता हूं विजेश्वरी, मेरी बहना, मेरी दीदी, मेरी माँ!
–अशोक पाण्डे
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विजेश्वरी दीदी ही क्यों आज पहाड़ के हर मां बाप का यही हाल है बच्चे मुड के नहीं देखते बात तक करना पसंद नहीं करते