समाज

नन्दागाथा में सृष्टि निर्माण की सम्पूर्ण कथा

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सृष्टि के आरंभ में पृथ्वी (भूमि) के चारों ओर जल ही जल था. सारी पृथ्वी जलमग्न थी. चारों ओर शोर ही शोर था जल में आलोड़न-विलोड़न, घात-प्रतिघात हो रहा था. आकाश और जल के बीच चारों ओर उत्ताल तरंगों से झाग ही झाग बिखर रहा था. यह फेन संगठित होकर एक विशाल लंबोतरी डलिया जैसा हो गया था. जल मंथन में मथते-मथते डलिया के आकार के उस विशाल फेनराशि ने एक विशाल डंठल का रूप ले लिया था. फिर उस डंठल पर फूल उग आया. वह फूल फल बन गया. फिर वह फल दो टुकड़ों में विभक्त हो गया. उसके भीतर से रक्त का ढेला बाहर निकला. वह रक्त का ढेला जल की तरंगों में लुढ़कने लगा. लुढ़कते-लुढ़कते वह जल में तैरते सूखे पद्म वृक्ष की डाल के निकट पहुंचा, जहां उसे आश्रय मिला. सूखे पद्म की डाल हरी हो उठी. उसमें एक पत्ती उग आई फिर वह डाल दो-तीन-चार पत्तियों वाली हुई. क्रमशः पत्तियों की संख्या बढ़ते-बढ़ते असंख्य हो गई. उस डाली ने एक विशालकाय वृक्ष का रूप धारण कर लिया. उसकी असंख्य शाखाएं प्रशाखाएं फूटती गई. उसके जड़-मूल और तने चारों ओर समुद्र में फैलते गए. उस वृक्ष की सबसे ऊंची डाली आकाश तक ऊंची चली गई.
(Story of Creation of World Kumaon)

चलने की आवश्यकता के अनुरूप उस रक्त के ढेले का पांव उत्पन्न हुआ, वामने की आवश्यकता से हाथ, बोलने की आवश्यकता से मुंह, देखने की आवश्यकता से आंख, सूंघने की आवश्यकता से नाक और सुनने की आवश्यकता से कान उत्पन्न हुए. इस प्रकार सृष्टि के प्रथम प्राणी के रूप में सोने के पक्षी का जन्म हुआ. वह पक्षी पद्म वृक्ष की डाल पर आ बैठा.

वह सुनहरा सोने का पक्षी कभी ऊपर की डाली में जाता और कभी नीचे की डाली में आता. ऊपर की डालों की ओर बढ़ता बढ़ता वह उस पेड़ की सबसे ऊंची डाली की फुनगी पर जा बैठा. फुनगी पर बैठकर वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं की ओर मुंह कर क्रम-क्रम से चीत्कार करने लगा. उसने चारों और दृष्टि घुमाई. उसे चारों ओर जल ही जल दृष्टिगत हुआ. उसे सृष्टि की नीरवता, निस्तब्धता और सृष्टि में अपने एकाकी प्राणी होने का सोच होने लगा. वह सोचने लगा – इस नीरव सृष्टि में मैं अकेला प्राणी क्या करूंगा? चारों ओर जल ही जल है. धरती का कहीं अता-पता नहीं है.

ऐसा सोचते-सोचते वह सबसे ऊंची फुनगी से नीचे की शाखों पर उतरने लगा. उतरते-उतरते वह सबसे निचली शाखा पर आ बैठा. सोने के पक्षी ने द्वैत की आकांक्षा से उस डाल से नीचे उतरकर बावड़ियां उत्पन्न की. किसी बावड़ी का जल खट्टा था, किसी का गदबदा और किसी का कसैला. सोने का पक्षी उन बावड़ियों में नहाने लगा. पक्षी के स्नान जल से सोने की पक्षिणी उत्पन्न हुई. फिर पक्षी और पक्षिणी पद्म की डाली पर आ बैठे. नीचे की शाखों से वे क्रम-क्रम से ऊपर की शाखों की ओर चढ़ते गए और अंत में वृक्ष की सबसे ऊंची फुनगी पर जा बैठे. पक्षिणी, पक्षी की पीठ पर जा बैठी. पक्षी कहने लगा – मेरी पीठ पर कौन बैठा है पक्षिणी बोल उठी तुम्हारी पीठ पर बैठी हुई हे नर पक्षी! मैं तुम्हारी नारी हूं. अतः पुरुष जैसी नहीं हूं. इस पर पुरुष पक्षी कहने लगा – इस बात का क्या प्रमाण है? जब तुम्हारा वचन सत्य होगा, तभी हम नारी और पुरुष होंगे. तब पक्षिणी ने अपने नारी होने का प्रमाण दिया. उसका वचन सत्य हुआ. तब सृष्टि में प्रथमतः नारी और पुरुष का उन्मेष हुआ. नारी और पुरुष का समागम हुआ. सृष्टि परिपूर्ण हुई.

स्त्री धर्मा होने के कारण पक्षिणी नारी पुष्पवती हुई, गर्भवती हुई, उसका गर्भ दिन पर दिन बढ़ता गया. ग्यारहवें दिन उसने लत्ते-कपड़े धोए, सिर धोया और स्नान किया. खाजों (चावल) का कलेवा किया. पक्षिणी को गर्भवती हुए एक मास हुआ. होते-होते दस मास बीते. गर्भ का भरपूर मास आ गया. पक्षिणी बोली – हे स्वामी! मेरा प्रसव समय निकट आ गया है, कोई ठीक समय देखकर चट्टानों के बीच कोई घर ढूंढ डालो, जहां मैं प्रसव कर सकूं. पक्षी बोला – पक्षिणी! यहां तो मनुष्य के नाम पर मक्खी भी नहीं है. मैं क्या करूं? मैं दाई का काम भी स्वयं करूंगा. तुम चिन्ता न करो. तुम्हें जो भी पीड़ा होगी, उसे दूर करने का प्रयत्न करूंगा.
(Story of Creation of World Kumaon)

पक्षिणी को पहली प्रसव पीड़ा हुई, जो उसने सिर के द्वारा सहन की, दूसरी पीड़ा उसने बांह द्वारा सहन की, तीसरी पीड़ा में उसकी जंघा खिसक गई. अंडा बाहर निकल पड़ा. अंडे के फूटकर तीन खंड हुए. एक टुकड़ा स्वर्गलोक फेंका, एक टुकड़ा नागलोक और केशरयुक्त टुकड़ा बीच के लोक में फेंका. इन्हीं से तीन लोक बने-स्वर्ग-लोक, पृथ्वी-लोक और पाताल लोक. पक्षी कहने लगा – स्वर्ग लोक में देवता, पाताल लोक में नाग और पृथ्वी लोक में मनुष्य रहेंगे. प्रसवास्था में पक्षिणी अचेत हो गई. पक्षी द्वारा सेवा किए जाने पर वह चैतन्य हुई. वह स्वर्ण पक्षिणी कहने लगी – हे स्वामी! मेरा पैदा हुआ शिशु कहां है? स्वर्ण पक्षी बोला – हे स्वर्ण पक्षिणी! तुमसे अंडा पैदा हुआ. अंडे के फूटकर तीन खंड हुए, स्वर्ग-लोक, भू-लोक और पाताल लोक. इसलिए अब तुम तीनों लोकों की स्वामिनी हो. स्वर्ण पक्षिणी कहने लगी –दस महीने मैंने उसे गर्भ में ढोया, सेंता, पाला-पोसा, मुझे क्या मिला ? प्रसव के समय लहू की नदी बहाई, यह सब करके मुझे क्या मिला? पक्षी बोला – हे पक्षिणी! तुम तीनों लोकों की स्वामिनी हो गई हो, तुम्हें क्या नहीं मिला? पक्षिणी कलपते हुए बोली – नहीं पक्षी! मुझे कुछ नहीं मिला, मैंने रक्त की नदी बहाई, हिमालय से गंगा बहाई, केनारी, कैली, सरस्वती, गोमती, कौशिला, साईया, रहप जैसी पवित्र नदियां बहाई कैलासी, केदारी, बद्री, द्वारिका, गीघाटी, गोड़ीहाटी, हरिद्वारी, गया गंगा काशी-गंगा व गंगासागर जैसी पावन नदियां उत्पन्न कीं. सारी अन्य तमाम नदियां बहाई, मुझे क्या मिला?

इस प्रकार पक्षिणी को प्रसव हुए एक दिन बीता, दो दिन बीते. तीसरे दिन उसने घर के चारों कोनों को लीपा-पोता, फिर यमुना के किनारे आकर स्नान किया, कपड़े-लत्ते धोए. फिर वह देवभूमि पहुंची. पांचवे दिन घर को लीप-पोतकर उसने फिर यमुना के तट पर जाकर स्नान किया और नहा-धोकर वह घर आई. उसने कपिला गाय उत्पन्न की. उसके गोमूत्र को सब जगह छिड़का, उसके दूध को छिड़का, देवभूमि पवित्र बनाई. दसवें दिन उसने पुनः पक्षी के साथ यमुना में जाकर स्नान किया. नहा-धोकर वे यमुना तट के ऊंचे-नीचे पत्थरों पर बैठे. सोने के पक्षी ने स्फटिक के चार पत्थर चुने और पूजा में बैठकर वह जाप करने लगा. पूजा पूरी हुई. यमुना में बहकर आती हुई लकड़ी की टेढ़ी शाख देखकर पक्षिणी ने पक्षी से उसे लाने के लिए कहा. पक्षी उसे जल से खींच लाया, कंधे में शाख रखकर वह तट पर आ गया और पत्थरों पर लोट-पोट लेने लगा. सानन की लकड़ी की परौटी (मथने का पात्र), कनौली बांस की मथानी और कालीनाग की रई बनाकर वह पक्षी मृत्यु-मंडल के तोल को देखने लगा. पहले मंथन में धरती छोड़ उत्पन्न हुए. दूसरे मंथन में मानिक ओड़ (मिस्त्री) पैदा हुआ. तीसरे में तैंतीस कोटि देवता. चौथे में चार चक्र, पांचवें में पंचनाम देवता, छठे में छटकुली नाग, सातवें में सात विनायक, आठवें में अष्टनंदा, नवें में नौ गृहों के स्वामी, दसवें में दशशीश, ग्यारहवें में पृथ्वी तनया सीता और बारहवें मंथन में बारह आदित्य उत्पन्न हुए. बारहों आदित्य तपने लगे, तेज बिखेरने लगे. वे सभी एक साथ तैयार हुए और एक साथ घर लौटे.

बारह सूर्यों के ताप से गंगा-यमुना सूख गई. देवताओं का नहाना-धोना छूट गया. गाय बछियों की घास सूख गई. सद्यः प्रसविनी का दूध सूख गया. मधुमक्खियों के छत्तों का मधु सूख गया. वनस्पतियां झुलस गई. प्राणी और मनुष्य कुकुरमुत्ते के समान कुम्हला गए. पत्थर, ढेले आदि जलकर भट के काले दाने जैसे उछलने लगे. बारह आदित्य साथ ही तैयार हुए, साथ ही घर लौटे. पंचनाम देवताओं की सभा बैठी. बारहों आदित्यों को महीने बांटे गए, कोई आदित्य किसी माह आएगा, कोई आदित्य किसी माह फागुन में गोविन्द आएगा, चैत में चतुराभुज, वैशाख में माधव, जेठ में खिलूणिया, आसाढ़ में सियाधर, सावन में दामोधर, भादों में बाईघन, आसोज में कुंवर, कार्तिक में कन्यावर, मार्गशीष में मधोधरी, पौष में रिखेशर और माघ में धरात्री आएगा. बारहों आदित्यों की स्तुति हुई तब सब अजीत (आदित्य) क्रम-क्रम से आए. तेरहवें मंथन में तेरहवां अजीत उत्पन्न हुआ. उसे कोई महीना नहीं मिला. पंच-देवता कहने लगे कि हे तेरहवें अजीत! तुम अपनी पैतृक सम्पत्ति में रहो. वह बाईस हाथ की उछाल मारने लगा. तेरहवें अजीत ने बाईस हाथ की उछाल मारकर अल्मोड़ा शहर की थात रची, कटारमल की स्थापना की, कटारमल की स्थापना करके वह बड़े राजा के हाथ की पूजा लेने लगा.

चौदहवें मंथन में चौदह चंद्रमा निकले. उनके हिस्से भी कोई माह नहीं आया. चौदह चंद्रमा अस्त-व्यस्त हो गए. अमावस्या के दिन चंद्रमा मर गए, पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जीवित हो उठे. द्वितीया के दिन चंद्रमा देवताओं के द्वार (क्षितिज) पर प्रकट हुआ. तृतीया के चांद को लोगों ने देखा, नरलोक ने देखा. चौदहों चंद्रमाओं की स्तुति हुई. पंद्रहवें मंथन में पन्द्रह तिथियां उत्पन्न हुई. सोलहवें में सोलह श्राद्ध, सत्रहवें में सत्रहवां अजीत, अठारहवें में मीन, उन्नीसवें में शून्य और बीसवें में विष का भार उत्पन्न हुए.

विष के भार से असह्य पीड़ा हो उठी. वह विष पंच-देवताओं को व्याप गया. देवताओं का दल विष के प्रभाव से मूर्च्छित होने लगा. उन्होंने अपने शरीर का मल निकालकर भूमि पर फेंका उससे धर्मदास उत्पन्न हुआ तांबे का विजेसार (ढोल) उत्पन्न हुआ, सोने की अठुली (बजाने का डंडा) उत्पन्न हुई. धर्मीदास ने तांबे का ढोल गले में डाल, सोने की अदुली हाथ में ली और वह पंच-देवताओं का विष झाड़ने लगा. धीरे-धीरे विष का प्रभाव कम होने लगा, उसकी सभा बैठी. वे सोचने लगे – इस विष के भार की क्या काट होगी? उन्होंने अपने शरीर का मल पुनः भूमि पर गिराया, उससे कलिया दाज्यू उत्पन्न हुआ. कलिया ने देवगणों को प्रणाम किया. देवगण उससे विनती करते हुए कहने लगे – कलिया दाज्यू तुम हमारे लिए शीशे की खुकुरी बना दो, विष का भार हम कैसे दूर करेंगे? उन्होंने शीशे के गोले निकालकर कलिया को सौंपे. लोहे का सब्बल कलिया को सौंपा. कलिया कलियाकोट गया. वहां जाकर उसने शीशे की खुकुरी बनाई उसे लेकर कलिया दाज्यू देवताओं के पास आया और उसने शीशे की खुकुरी देवताओं को सौंपी. पंच-देवता अत्यन्त हर्षित हुए. उन्होंने कलिया को पुरस्कार देकर विदा किया. शीशे की खुकुरी से उन्होंने विष का भार काट डाला.
(Story of Creation of World Kumaon)

उस विष के भार से थोड़ा विष सिंह ने लिया, थोड़ा भालिन ने लिया, थोड़ा बाघिन ने लिया, थोड़ा सांप ने, थोड़ा पीली बर्रों ने, थोड़ा चीटियों ने और थोड़ा विष नाखूनों ने लिया. देवताओं ने थोड़ा विष अन्न और थोड़ा विष पानी में डाला. विष का भार फिर भी शेष रह गया. उन्होंने ठुणकिया विष शौकाण की ओर फेंका, झुणकिया विष हूणदेश की ओर फेंका, धदूरिया विष पहाड़ों की ओर फेंका, तमकिया विष तम्बाकू में डाला. थोड़ा विष सीधी खड़ी चट्टानों से नीचे बहाया. विष का भार फिर भी शेष रह गया. फिर शेष विष उन्होंने गड्ढे में दबाया, वहां से संखिया का कंद निकला. इस प्रकार विष के भार को उन्होंने पूर्ण समाप्त कर दिया. फिर देवताओं की सभा बैठी.

मानव भूमि अभी टलमल करती रही, जैसे थाल के तले में पानी, जैसे अरबी के पत्ते पर पानी की बूंद हो. कलिया दाज्यू ने देवताओं को लोहे के खंभे दिए. देवगण जलमग्न मानुष भूमि को स्थिर स्थापित करने लगे. उन्होंने चारों दिशाओं में चार दिग्गजों द्वारा चार खंभे स्थापित कर पृथ्वी को स्थिर किया. फिर बीच का खंभा स्थापित किया. मानुष भूमि अपने किनारों पर ठहर गई, स्थिर हुई. फिर देवताओं ने सोने की (लगभग ढाई सेर माप का पात्र) नाली उत्पन्न की, वे उसे हिला न सके. फिर तांबे, पीतल, जस्ते, लोहे और कांसे की नाली क्रम-क्रम से उत्पन्न की, पर वे उन्हें हिला न सके. उन्होंने झोल (धुएं से एकत्रित, कालिख) की नाली उत्पन्न की, वह भी नष्ट हो गई. पेठे की नाली उत्पन्न की, वह फट गई. मिट्टी की नाली उत्पन्न की, वह फूट गई. अंत में उन्होंने लकड़ी की नाली उत्पन्न की, वह चलन में आ गई. काठ की नाली में जी भरे, उसके ऊपर मिट्टी का दीपक रख, तिल का तेल डाला, कपास की बाती बनाई, दीपक जलाया. वीण नामक जंगली फल जिससे लाल चंदन निकलता है, की रोली मस्तक पर लगाई, मासी नामक सुगंधित पर्वतीय वनस्पति की धूप जलाई. इस प्रकार नर-नारायण के घर चलन शुरू हो गया. सृष्टि का आरंभ हुआ, सृष्टि चल पड़ी.

पक्षी बूढ़ा हो चला. उसके घुटने मुड़कर कमर से सट गए, कमर झुककर भंडार गृह के तालू जैसी हो गई, दाढ़ी बढ़कर गौरेया के घोंसले जैसी हो गई, गाल लटककर कंधे तक पहुंच गए, सिर कांस के फूल की भांति सफेद हो गया. सोने का पक्षी कहने लगा – हे पक्षिणी! हमने त्रिलोक उत्पन्न किया, नौखंड भुवन उत्पन्न किये, पंच देव उत्पन्न किए, प्राणी और मनुष्य उत्पन्न किये, पेड़-पौधे, लताएं, पर्वत, पत्थर, नदी, जंगल और बड़े पहाड़ उत्पन्न किये, इस वृद्धावस्था में मेरी ऐसी जर्जर दशा हो गई.

पक्षिणी जेवनार बनाने लगी, उसने पक्षी को भोजन कराया. फिर पक्षिणी ने अपनी मैणा-पिटारी खोली, वस्त्रादि निकाले, उन्हें पहना, फिर ‘दूदापीनी’ छुरी निकाली. दोनों नारी-पुरुष भिकूपन नामक स्थान पर पहुंचे. वहां उन्होंने घुटनों-घुटनों तक रीठा बिछाया, बाईस हाथ ऊंचा खंभा गाड़ा. फिर सोने का पक्षी बाईस हाथ लंबे खंभे को लांघने लगा. उसने दूदापीनी छुरी आकाश की ओर उछाली, बादलों की ओर जाकर वह लौटी, वह अन्त में पक्षी के हृदय कंठ में उतर गई. उसका स्वर्गवास हो गया. पक्षिणी चीत्कार करने लगी. उसने देवताओं को पुकारा. देवगण भिकूपन पहुंचे. पक्षी व पक्षिणी को कंधों में रखकर सतीचौरी लाए. पतिव्रता पक्षिणी सतीचौरी में अपने पति के साथ सती हो गई.
(Story of Creation of World Kumaon)

पंच-देवताओं ने स्नान किया. फिर वे कैलास की सेवा में पहुंचे पक्षी-पक्षिणी को मरे हुए एक दिन हुआ, क्रम-क्रम से दस दिन हुए. दसवें दिन देवताओं ने स्नान किया, कपड़े धोए और सुखाए. बारहवें दिन उन्होंने पक्षी और पक्षिणी की बारहवीं की. जेवनार किया. सोने के पक्षी-पक्षिणी पितरों के रूप में पूज्य हो गए.

नोट – छानीग्राम अल्मोड़ा के भीमराम आदि गायकों द्वारा गाई जाने वाली परंपरागत लोक महाकाव्यात्मक ‘नंदा गाथा’ में जल प्रलय और सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन. वरिष्ठ लेखक डॉ. देवसिंह पोखरिया की पुस्तक ‘उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य’ से साभार लिया गया है.

डॉ. देवसिंह पोखरिया

डॉ. देवसिंह पोखरिया ने कुमाऊं विश्व विद्यालय, अल्मोड़ा में हिन्दी विभाग में कार्यरत रहते हुए वर्षों सेवा दी. अपनी पर्याप्त व्यस्तताओं के बावजूद प्रो. देवसिंह पोखरिया ने हिमालयी लोक संस्कृति पर विशद अध्ययन किया है जिसका एक उदाहरण उनकी कृति ‘उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य’ है. डॉ. देव सिंह पोखरिया ने लगभग 30 पुस्तकों की रचना की है. ‘उत्तराखंड लोक संस्कृति और साहित्य’ इस लिंक के माध्यम से खरीदी जा सकती है.

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