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दानै बाछरै कि दंतपाटी नि गणेंदन्: मातृभाषा दिवस विशेष

ऊंकू बामण बिर्तिकु काम छाई. कौ-कारज, ब्यौ-बरात, तिरैं-सराद मा खूब दान मिल्दु छाई. बामण भारि लद्दु-गद्दु बोकिक घौर लौटद छा. खटुलि, धोती, आटू, चौंळ, छतुरू. पैंसा दीण म नन्नी मोर जांदि छै. बरतण्या सामान जादातर निकमु निकळ जांदू छाई. बणिया बि पाल्टी तै सिकौंदू-भकलौंदु रैंदु छाई- “दानौ त चयेंदु, ऊ ना, यु वाळु ल्हिजावा, सस्तु-मस्तु लगै द्योलु.”
(Story in Garhwali Lalit Mohan Rayal)

त ऊंक घौर मु खटुलु-बिस्तर, भांडी-कूंड्यों कु ध्यौ लग्यूं रौंदु छाई. जादाई कट्ठि ह्वैजांदु छाई. पंच-भांडि, छतरु-जुत्तौंन त ट्रंक क ट्रंक भर्यां रौंदा छा. हां, नर्यूल़ जरूर ऑर्जिनल होंद छा. किलैकि ऊ फैकर्ट्यों मा नि बण सकदि छा. वैकु डुब्लिकेट कखन पैदा कर सकद छा मर्द का बच्चा.

त यनु ह्वाई कि, बामण करौं तै एक यनु फोल्डिंग पलंग मिल्यूं राई कि वेफर मैन्युफैक्चरिंग डिफॉल्ट राई. कुछ दिन बर्तिक ऊंन या छ्वीं जाण साकि. डिफैक्ट इन छाई कि, वै खटुला तैं कैन जरासि बि टच क्या कार, त ऊ सटाक फोल्ड ह्वैजांदू छाई. स्यूं रजै-गद्दा.

ऊंकि कुटुमदारि वै खटुलै कि सार जाणदि राई. ऊ वेफर सुरक् उठद-बैठद छा. वैथैं एक खास स्टैल मा बर्तद छाई. जु फोल्डिंग तैं पता ना चलु. वैथैं कान्नू-कान खबर ना ह्वाउ.

एकदिन क्या ह्वै कि, ऊंक घौर एक जजमान जि ऐग्येन. जजमान जि रुमकि दां पौंछिन. ऊंन सौ-सल्ला कैरि. छ्वीं-बत्त ह्वांद-ह्वांद रात पौड़ि ग्याई.

खलै-पिलैकि जजमान जि ढिस्वाळै कि क्वठड़ि मां सिवाळे ग्येनि. बाई चांस क्या ह्वै कि ऊ वीं फोल्डिंग मा सिवाल्ये ग्येन. ह्यूंदै कि रात. खुखटण्या जड्डू. ऊंन लम्फू (हरिकैन लैम्प) बुझाई अर झगुलि-ट्वपलि उतारिक सिर्वाणि पर धैरि सुनिंद पड़िग्येन.
(Story in Garhwali Lalit Mohan Rayal)

एक निंद पूरी करिक ऊं थैं लघुशंका जाणै कि जरूरत महसूस ह्वाई. भैर जाणु पड़्याई. भैर जुन्याळ रात लगीं छै. ऊ छज्जा बटेकि आराम सि सीड़ि उतरिन अर फारिग ह्वेक वापिस ऐन.

क्वठड़ि मा पौंछिन त ऊंन स्वाच, हे ब्वै यू कन चंबु ह्वेग्याई. खल्ला कख च. सिर्वाणि-डिस्वाणि समेत गैब. ऊंन अंध्यारा मा जलक-डबक कैरिन. ऊंड-फुंड जबकाई. जजमान जि खौळ्येक रैग्येन. क्या ह्वे होलु. खटुलि कख ह्वाई होलि छां-नि-छां.

ऊ भैर ऐनि. ऊन स्वाच, ‘‘यन त नि ह्वाई हो, कि मि हैक्कि क्वठड़ि मा पौंछग्यों ह्वाऊ.’’ डिंडाळ मा ऐ त ग्येन, पर हौर क्वठड्यों मा जाणै कि हिकमत नि पड़ी. यन न ह्वाऊ कि हौर क्वठड्यों मा जैकि ज्वाड़-जुत्त खये जाऊन. ऊं पर चतरघंटि बीतग्याई. थ्वड़ा देर भितर-भैर कर्द रैन. विचार कर्द रैन, खटोलि स्यूं झगुलि-ट्वपलि कख हर्चि ह्वालि.
(Story in Garhwali Lalit Mohan Rayal)

भौत देर तक जब ऊंक बिंगण मा कुछ नि आई, त ऊ भैर जैकि जांदरि मा बैठ ग्येन. घड़ेक वखिम रैन खुखटाणा.

ब्वारि-ब्यटल रतब्याणि मा उठ जांद छाई. पैलि काम- रैंदु छाई जांदरि मा नाज पिसणौ कु. जांदरु मु जैकि ऊंन देखि. ऊ हकबक रैगिन. वेफर त जजमान जि थरप्यां छा. वालु गाड़िक ब्वारिन् ब्वाल, ‘‘हे जि! तुम रतब्याणि मा उठि जांदैं मिजाण.’’

जजमानजिन स्वाच-तोलिक ब्वाल, ‘‘ना बाबा! ना, बात इन छाई कि हम त अधरात्ति मां बीज जांदौं.’’
(Story in Garhwali Lalit Mohan Rayal)

ललित मोहन रयाल 

इसे भी पढ़ें: मनुभाई और उनका मनसुख

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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