कला साहित्य

कहानी : निपल्ट है जो

सारा सामान राधे ने सार कर सड़क पर पंत की दुकान तक पहुंचा दिया था. शंभुवा बैग लेकर खड़ा था उस के इंतजार में. उसने चूअ वाले दरवाजों को ठेलकर सांकल लगाई और ताला लगाकर धेई पर सिर रख दिया. शंभुवा के बाबू, ज्यू-बुवज्यू की इस पितर कुड़ि में कभी इस तरह ताला लगाने की नौबत नहीं आयी थी. वह भी क्या करती उसे शंभुवा की बात माननी ही पड़ गई. चार बेटियों के बाद ये शंभुवा हुआ था. अमा-बुबू का प्यार-दुलार तो इसे खूब मिला ही, बहनों ने भी खूब नखरेबाजी सही थी. खूब लहलहाते दिन थे. पांच बच्चे, वे दो पति-पत्नी और सास-ससुर. भरा पूरा परिवार था. उस को तो सुबह से शाम तक फुर्सत नहीं रहती थी.
(Story From the Mountain)

भैंस का घास, कूड़ा व दूध निकालने से शुरू हुई दिनचर्या रात को खाये-पिये के बर्तन मांझने के बाद ही निवृत होती थी. हालांकि लड़कियों के थोड़ा बड़े होने पर उन्होंने भी हाथ बंटाना शुरू कर दिया था पर उनका अपना स्कूल आना-जाना भी हुआ ही. शंभुवा के बाबू भी हल-पटेले, खेती-बाड़ी के अलावा थोड़ा बहुत रोजगार कर ही लेते थे. घर में साग, सब्जी, खाने लायक अनाज हो जाने वाला हुआ. भैंस गोठ में हुई तो दूध, दही, घी हो ही जाने वाला हुआ. मिर्च, खुमानी, सेब, नारंगी बेचकर साल भर का खर्चा निकल ही आता था. दैल-फैल तो खैर नहीं हुई पर कोई कमी है ऐसा भी नहीं लगने वाला हुआ.

इस शंभुवा ने भी मेहनत की कमाई की इज्जत रखी. पढ़ने में मन रमाता रहा, द्वाराहाट से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली अपने मामा के पास गया तो फिर भूमिया बूबू मेहरबान रहे. आज अच्छी कम्पनी में अच्छी तनख्वाह पर काम करने लगा है.

बखत की मार ठैरी. रहना वैसे भी हमेशा किसी ने भी यहां ठैरा नहीं. समय बीता— शंभुवा के अमा, बूबू स्वर्गवासी हो गये. बैंणियों के हाथ भी पीले होते गये. अब  घर पर वे दोनों ही अकेले रह गये. कभी-कभार एकाध हफ्ते को दिल्ली शंभुवा के पास भी रह आते थे. पर मन उनका यहीं लगने वाला हुआ. बाद में शंभुवा ने भी वहीं दिल्ली में अपनी पसंद की लड़की से ब्या कर लिया, तब खूब नाते-रिश्तेदारी में चहल-पहल रही थी. वे दोनों भी पूरे पन्द्रह दिन वहीं रहे थे. ब्वारी भी आ गई. बात-व्यवहार की अच्छी तो हुई ही सलीकेदार तो खूब ही हुई. पर पहाड़ उसने देखा नहीं ठैरा पहाड़ में रहना छोड़ो. उसे तो यहां हगने-मूतने में भी असज आने वाली हुई. शंभुवा हालांकि चाहता था कि वे भी उसके साथ ही रहें, पर उन्होंने उसकी नहीं सुनी. पितर कुड़ि के द्वार ढंकना उन्हें कतई अच्छा नहीं लगा. फिर उनको तो वैसे भी यहीं सज आने वाली हुई. शंभुवा खर्चा भेजता रहता था. उन्होंने भैंस, खेती सब टंटा छोड़ दिया. बस चार टिक्कर बना कर खाते, मजे से आग-घाम तापते.

अहा रे! बखते की मार, अचानक शंभुवा के बाबू की तबियत खराब हो गई. चार दिन भी बीमार नहीं रहे और चले गये. साथ-साथ कौन गया यही सोचकर उसने मन मजबूत किया. एक कुकुर पाला, उसकी भौं-भाँ सुनकर उसका टाइम कट जाता था. घर में एक और है का अहसास बना रहता. लेकिन शंभुवा ने उस से दिल्ली चलने की जिद पकड़ ली. कहने लगा— “ईजा तू चल तो सही मन नहीं लगेगा तो फिर आ जाना वापस.” तब वह भी एक थैले में अपना लट्टरपट्ट भर कर उसके साथ दिल्ली चली गई थी. बाप रे! दिन काटने भारी पड़ गये उसको. वहां, हर बखत कपड़े ऐसे पहन के रहो जैसे कहीं ब्या में शामिल होने जा रहे हों. टट्टी करने जाओ तो अलग चप्पल, घर में रहो तो अलग चप्पल, बाहर आओ अलग चप्पल. पोते-पोती को खेलने का तक टाइम नहीं ठैरा, उससे कहां बतियाते. स्कूल, कोचिंग, होमवर्क, कम्प्यूटर, कभी डांस स्कूल, बस. बिजी ठैरे दोनों बच्चे. ब्वारी बोलती तो बहुत मीठा हुई, पर ठैरी बहुत होशियार. शंभुवा के सामने कुछ और उसके पीठ पीछे कुछ और. वैसे वहां सुविधा सब हुई, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहने की.  कमी किसी बात की नहीं ठैरी, पर मुंह सिल कर रहना ठैरा. उतनी बड़ी बिल्डिंग, न जाने कितने परिवार होंगे. पर सब अपने-अपने घर में बंद. काम से काम बस. उसे लगने लगा जैसे वह घर नहीं जेल में रह रही है. शंभुवा उसका पूरा ख्याल रखता, पूछता रहता. पर उसे कतई सज नहीं आ रही थी. जैसे-तैसे दो महीने काट कर “बहुत गर्म हो गया है यहां,” का बहाना बना कर के पहाड़ लौट आयी और मन ही मन तय कर लिया कि अब चाहे कुछ हो जाय इस पितर कुड़ि में ही रहूँगी. जीऊंगी यहीं, मरूंगी यहीं. उसने शंभुवा की तरफ से भी माया-ममता मार दी. ब्वारी और पोते-पोती तो खैर उसके अपने जैसे हुये ही नहीं थे.

जाड़ों के दिन भली-भांति आ नहीं पाये थे कि उसकी भी तबियत खराब हो गई. उसने तो खबर नहीं दी पर शंभुवा को खबर लग ही गई. बेचारा नौकरी की परवाह किये बगैर दौड़ा चला आया. रानीखेत में डाक्टर को दिखाया. ठीक इलाज मिलने पर वह जल्दी ठीक भी हो गई. अभी परसों की ही तो बात है, शंभु खाना खुद बनाने लगा. शिकार लाया था, रोटियां भी उसी ने बनाई. दोनों साथ-साथ खाने लगे. शायद उस ने गोठ में जाकर एकाध घूंट भी लगा ली थी. कहने लगा— “ईजा तू मेरे साथ दिल्ली चल. यहां ताला लगा देते हैं. अब तेरा यहां रहना ठीक नहीं है.” “मैं तो दिल्ली छोड़ कर यहां रह नहीं सकता, यहां रहने गुजारे लायक कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकती है. यहां काम धंधा कुछ नहीं  ठैरा स्कूल, अस्पताल के हालत भी ख़राब हैं. जब उस ने कहा कि मैं कहीं नहीं जाऊंगी, यहाँ मरूंगी, खपूंगी पर तेरे बूबू-बाबू की इस पितर कुड़ी को, इस धरती को नहीं छोडूंगी, तो शंभुवा रोने लगा. कहने लगा ईजा क्या ये मेरी जनम भूमि नहीं है. मुझे भी तो इससे प्यार है मेरा मन भी तो यहीं रहने को करता है. पर क्या करूँ? यहां घर-गृहस्थी चल ही नहीं सकती, अब पहले जैसे दिन नहीं रहे ईजा. मैं तुझको यहां अकेले कैसे छोड़ सकता हूँ. यहां अगर कभी तुझे कुछ हो गया और मुझे पता तक नहीं लगा तो कितना बड़ा अकलाकंठ लगेगा मुझे. लोग कहेंगे— अपनी मां को भूलकर अपने बच्चों में मस्त था शंभुवा. दिल्ली में तुझे कुछ होगा भी तो कम से कम मेरी गोद तो होगी तेरे आखरी टैम पर.
(Story From the Mountain)

उसे शंभुवा के बाबू की याद आ गई. “शंभुवा को बुलाओ रे!” कहते-कहते ही उनकी आंखें पथरा गई थी.

उसके बाद दो दिन तक उसे नींद तक नहीं आई. मन औचाटी रहा. सोच-विचार चलते रहे कि ये पहाड़ इतने बेकार कैसे हो गये बच्चों के लिए. उसने कल्पना की कि अगर शंभुवा दिल्ली नहीं जाता, अपने बाबू की तरह ही पहाड़ में अपनी गृहस्थी बसाता तो… यह सुखद कल्पना उसे थोड़ी देर में ही डरावनी लगने लगी. तल्ली बाखली के शेरुवा-पिरमुवा और राधे की गृहस्थी उसके सामने आ गई. ये सब शंभुवा के बचपन के दोस्त थे, जो पहाड़ में ही रह रहे थे. बीड़ी के सुटकारे, शराब और ताश में मस्त रहना ही उनकी दिनचर्या थी. काम-काज कुछ नहीं, बस मां बाप की वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा की सौ दिन की अनिवार्य मजदूरी और बीपीएल के राशन के सहारे गुजर हो रही थी उनकी. ब्वारियां जरूर गाय-भैंस, बकरी पालने वाली हुईं, बाकी खेती-बाड़ी, पेड़-पौधे तो सूअरों व बंदरों का घर हो गये.

आज सुबह उसने उठते ही शंभुवा से कह दिया— “हिट पै च्यला, धर सामान, हिटनूं त्यर दगड़ि.” उसने सामान बाँध लिया. धेई पर रखे सिर को झटके से उठाया, भर नजर उस पितर कुड़ि को देखा और शंभुवा के साथ चल पड़ी. उसके होंठों में बुदबुदाहट थी— ‘निपल्ट’ है जो अब.
(Story From the Mountain)

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यातायात सहकारी संस्था से लेखाकार के पद से सेवानिवृत्त निखिलेश उपाध्याय मूल रूप से रानीखेत के रहने वाले हैं वर्तमान में रामनगर, नैनीताल में रहते हैं.  

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Sudhir Kumar

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  • "निप्टल है जो"आज के हालातों पर सटीक कहानी.

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