कला साहित्य

बसंत के बाद वह बुरांस का फूल

बैसाख का आखरी हफ्ता मधुमास का लगभग पूरा अवसान और ग्रीष्म का शैशव काल में पदार्पण. नौकरी लगने के पूरे चौबीस साल बाद उस दिन पूजा के लिए बकरी की खोज में उस पंयार* होते हुए दूसरे गांव जाना हुआ. मन में एक कोतुहल भी था और उमंग भी क्योंकि वह पंयार मेरे सुनहरे अतीत का साक्षी जो था. बांज, बुरांस का वही हरा-भरा जंगल, वहीं ऊंची नीची सर्पीली पगडंडियां, कल-कल करते निर्मल नीर के गदेरे* बांज* के जड़ों से फूटते छव्य्यों* का ठंडा पानी, पहाड़ी यौवना ने आंगन में हिलांसों का विरह कलरव, घुघुतों का लावणी घुर-घुर, बंदर और लंगूरों का हुदंगड़. हाँ सब कुछ वैसे ही तो था! जिन्हें मैं तीस वर्ष पहले अलविदा कहकर जिंदगी को भगा लाया था ईंटों के सघन में. हाँ कुछ कम था तो उन ग्वेरों* का कोलाहल, पशुओं के गले की घंटियों का संगीत व बकरियों के चिनखों का म्यैं म्यैं, और ये इसलिए कम नहीं थे कि बन देवी ने अपनी संपदा छुपा दी हो इसलिए कम था कि मेरे जैसे कई लोगों ने भी टाटा कर दिया था उस काष्ठ जीवन के संतोषी पराभव को. उस मधुप धरती पर पैर पड़ते ही यादों की झमाझम वर्षा शुरू हो गयी और बिसरन की पपड़ी उतरने लग गयी एक के बाद एक. जैसे जैसे आगे बढ़ रहा था, वे उड़्यार* बिसौंणयों* की मुंडेर, पेड़ों के ढौर, वे बड़े-बड़े पत्थरों के डांग और घास के सैणे गैठे* उस धरती की हर एक कृति से कुछ न कुछ यादें जुड़ी थी. (Story by Balbir Singh Rana)

यादों की तह से तम्मना का वेग बढ़ता गया और न जाने कब में मूल गंतव्य इतर दूसरी चढ़ाई चढ़ने लगा हांपम-हॉप!! उस छानी* व अल्वाडों* की ओर जिन्हें पिताजी ने अपनी जवानी के गर्म स्वेद से सींचा था जिस भूमि की आमद ने मुझे पढ़ा-लिखाकर दुनिया देखने के काबिल बनाया था. साथी पथिक न जाने क्यों बिना बातचीत के किसी सम्मोहन की तरह चुपचाप मेरे पीछे चला आ रहा था.

माटी प्रेम की किरण अपनी ओर खींचती चली गयी और मैं पहुंच गया अपनी छानी जहाँ मेरे बाल्य से किशोर तक की हर चौमास* ने मुझे अपनी रुणझुण* से सींचा था. वहां देखकर सुकून हुआ कि आज भी वो खेती बंजर नहीं है किसी अन्य बंधु ने उस भूमि को खैनी* किया है. पिताजी के उस जंगल की खेती से किसी परिवार का आज भी निवाला चल रहा है. ‘जशीली* जो थी वह भूमि’. अपने छप्पर (छानी) की जगह को कुछ जमीनी निशानों की मदद से मुश्किल से पहचान पाया था क्योंकि उस जगह अब बड़ा खेत बन गया था. उस मिट्टी से तिलक कर ही रहा था कि एकाएक मेरी नजर एक ठूंठ किये गये बुरांस के पेड़ के शीर्ष पर पड़ी जिस पर एकलौता बुरांस का फूल पूरी अकड़ और रौब से खिल रहा था, मुझे आश्चर्य हुआ कि अब तो बुरांस का सीजन चला गया ये फूल कैसे? एकाएक याद आया अरे! यह वहीं बुरांस का पेड़ है जो मेरे झंवर्या* के ऊपर तीस साल पहले पिताजी ने रोपा था. दाएं-बाएं की जमीनी आकृतियों का मिलान किया. वही पेड़ था जो पीताजी ने अपने कृषक जीवन के सच्चे साथी झंवर्या बैल के उपर रोपा या यूँ कहें कि बैल की कवर पर. अरे हाँ! यह फूल ही तो मेरा झंवर्या है तभी तो मेरी इंतजारी में अभी तक टकटका हुआ है. हाँ मुस्कराहट जरूर कम थी लेकिन उसके जैसे ही समर्थ सामर्थ्य की जिद से खड़ा था. पूरे जंगल में महीना डेढ़ महीने पहले ही बुरांस के सब फूल झड़ गये थे लेकिन शायद इसे पता था कि मैं आ रहा हूँ, नहीं तो गैर होता तो ये भी गिर जाता.

‘बंसत के बाद का वह बुरांस का फूल’ मुझे तीस वर्ष पहले के असाड़ माह में ले चला. पिताजी तीन बीसी के युवा, युवा इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि उस उम्र ने उन पर एक निशान नहीं लगाया था, काले बाल, चटक चाल, काम की रफ्तार और नव दंपत्ति सा रसिक मिजाज सब साठ की उम्र में भी जस का तस. माँ पच्चास के आस-पास की लावण्य प्रौढ़ा, बैलों की एक जोड़ी, दो गाय और एक दुध्यार* भैंस, चार युवा बछड़े, दो नादान बच्छियां बीस के आसपास बकरियों का गौठ* और वह बूढ़ा बैल झंवर्या, खरकचौल* का दिन और मेरी ये पंयार की छानी.

झंवर्या* जानवर इसलिए कि वह हमारे लिए मूक था और बैल था, लेकिन वह अपने आप में घर का सम्पूर्ण गार्जिन, सर्वेसर्वा पूरे गुठयार* का. खूंटे से निकालते ही पूरे गुठयारजनों की घर से जंगल और जंगल से घर तक अगवाई करता, गांव के अन्य गाय बैलों से लड़-भिड़कर सबकी रक्षा करता और सबसे इतर अपना नैतिक कर्तव्य ‘हल का सल’* गांव में मिशाल थी. जिस दिन पिताजी चरवाहा होते उस दिन अस्वस्थ रहता था कि आज गुस्सें* जी सही जगह ले जाएगा चराने के लिए, क्योंकि पिताजी उसका और अन्य सदस्यों के दौंले* पकड़-पकड़ कर भिटे*पाखों* में ले जाते थे जहां अच्छी हरी घास चरने को मिलती थी.

छुट्टी के दिन जब हम नादान चरवाहे होते उस दिन वह पूरी कमांड अपने हाथ में रखता था कि आज कौन से तोक में चरने जाना है, उसको पता रहता कि ये बच्चे किसी तोक के मुहाने पर छोड़कर खुद खेलने में मस्त हो जाएंगे, हमारी नादानी को वह सयाना बधिर खूब जानता था और दिन भर सब जगह चर-चुर करके छाया ढलते ही सबको इकट्ठा कर घर के रास्ते लग जाता. गुणी इतना कि हल के टाइम पर उसे पता होता कि किस खेत में आज जुताई होनी है सीधे अपने ही फांगे* में जाकर रुकता था, ऐसे ही उसका पाली* का जोड़ीदार सरु* भी था. रौंल्यां-पौंल्यां जोड़ी, क्या मजाल सरु अपने बड़े भाई झंवर्या की कहीं बात काट दे जहां बड़ा भाई जाए पीछे-पीछे अज्ञानकारी बन चला जाता था. यह जीवन वृत उस झंवर्या का है जिसने कर्म कर्तव्य और जिम्मेवारी की परिभाषा मुझे मेरे उषाकाल में ही सिखायी थी. पिताजी झंवर्या और सरु को बछडेपन में ही कहीं दूर के रिश्तेदारी से ले आये थे झंवर्या सरु से एक साल पहले आया था इसलिए उसे हम बड़ा मानते और सरु भी. मानना क्या उस जिम्मेवार का बड़पन्न ही मानने लायक था.

फोटो: सुधीर कुमार

बछड़े से जब बौड़े हुए तो पिताजी ने उन्हें हल पैटाने के साथ अन्य काम की भी ट्रेनिंग दी. अपने पाली* लगना, घर से जंगल चरने जाना, आने के बाद अपने किले पर जाकर बंधने का इंतजार करना, दैं* में रेंगना, खेत में जाने कर चुपचाप जुआ* कंधे पर रखने का इंतजार, और गुस्सें की भाषा समझना आदि. एक ओ… हो… हो…! की हुंकार पर ही बिना सेंटकी* के तिर्वाल* ढिस्वाल* मैसी* पर एक लय के साथ जुताई पर जुट जाना, कितना आज्ञाकारी होता है सच्चा बैल, हमारे पहाड़ में बैल बनना एक सौगंध भी होती है. कि! बल अगर ये जन्म मा तेरु कर्ज नि दये सक्लो त अगला जन्म मा तेरु बल्द ह्वलू (इस जन्म में तेरा कर्ज ना उतार पाऊं तो अगले जन्म में तेरा बैल बनूंगा).

सच्ची भी बैल होना निम्न कर्मफल की परिणीत है या मात्र संयोग/आम लेकिन कार्य महान है जिसके कंधों के बल धरती माँ को अन्न उपजाने लायक बनाया जाता, उसके कंधों बल से संसार पलता है, झोपड़ी से बंगले व अट्टालिकाओं तक. गुणि सर्वत्र पूज्यते, एक जानवर होने पर भी पिताजी अपने बैलों की माथमपुर्सी सारे गांव करते फिरते और वे भी अपने मालिक के दुलार का सिला उसी मूक संघर्षों के रूप में देते थे. बौड़ेपन* का जीवन भी बहुत उन्माद में काटा दोनों भाईयों ने, सरू तो थोड़ा सीधा-साधा था लेकिन झंवर्या नम्बर एक का फोंदर्या* व रसिक, अपनी संतती भी खूब बड़ाई थी उसने. पिताजी की स्पेशल डाइट दिन में एक भदयाली* झंवोरे* का पींडा* भरपूर चारादाना गुड़ भेली आदि बलिष्ठ, ताकतवर न्यूट्रिशन उनके आहार का हिस्सा था ‘पौंठे फर्का* चलते थे’. मंखलसार* में उनका खूब हुदंगड़ जलवा रहता था. मेरा काम तो उन्हें किसी के भी बैल से भिड़ा कर मजे लेना और उनके मालिक के बच्चों के ऊपर अपनी धौंस जमाना होता था. कि देख मेरे झंवर्या ही गांव का चैम्पियन है, पूरे गांव में हमारे बैलों की हाम थी. दस खेत ऊपर से फुफ्यान्ट* और डुकर्ताल* के साथ लड़ने जाना आम था. किसी के गाय के मौसमी हालात पर लड़-भिड़कर आगे की पंक्ति में थोबड़ा टिकाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था. उनकी जवानी का उलार* देख पूरा गांव मोहित था. अपनी खेती की जुताई के साथ मौ* मदद भी बराबर हौसले से निभाता था, लेकिन एक आदत थी उनकी थोड़ा एकहत्या* थे होना भी लाजमी, ‘स्वामी भक्ति कहो या प्रेम परिणीत’ पिताजी के अलावा औरों के पास नाड़* भी जाते थे इसलिए पिताजी उनकी वजह से खेती के समय ज्यादा बंधे होते थे. समय के साथ झंवर्या सरु बौड़े से बल्द बन गए यानी नसबंदी हो गयी अब वयस्कपन का धीर धैर्य लक्षित होने लगा था.

गौवंश की ज्यादा से ज्यादा उम्र अठ्ठारह से बाईस वर्ष मानी जाती है, सरु कुछ पहले यानी पंद्रह की उम्र में जंगल चरने जाते वक्त मेरे सामने पहाड़ी से निचे गिर चल बसा था, उस दिन के मसाण* की देनदारी मुझे 15 साल बाद देनी पड़ी. झंवर्या पूरा बाईस साल में बैकुण्ठवासी हुआ. पिताजी के जीवन में एक बीसी समयावधि इन बैलों के सहयोग से प्रगति रही थी. ये बैल जोड़ी उनके जीवन की दोपहरी से छाया ढलक* तक के हमसफ़र रहे. इस जीव प्रेम कहानी के अतुल्य प्रेमाभिव्यक्ति का असली मौड़ अब शुरू होता है. सरु के मरने के बाद पिताजी के साथ झंवर्या भी टूट सा गया था घर में पाली पर आते ही वह रेंगता, सरु के किले को चटता और अनमने मन से घास चारा खाता कुछ महीने बाद पिताजी हल जोतने के लिए एक इक्वाण* को उसका साथी बना ले आये थे कुछ दिन तो वह अनमना रहा लेकिन समय को नियति मान अपनी बुढ़ापे की स्यूं* सामर्थ्य से खिंचता रहा, लेकिन उसका साथ भी कुछ दिन का ही रहा वह बैल भी मर गया और उस बेचारे को पाली ट्व्कू* (अभागे) होने का अभियोग सहना पड़ा. अब पिताजी ने उसके बुढ़ापे को देखते हुए उसे आराम देना उचित समझा और घर में एक नयीं बौडों की जोड़ी ले आये अब झंवर्या केवल मार्गदर्शक की भूमिका में उन नवाणो को जंगल, खेत और चौक में दैं तक ले जाने मात्र की ड्यूटी करता. गांव के कई लोग कहते कि यार भाई तू बूढ़े इक्वाण* को क्यों सैंत* रहा है छोड़ दे जंगल अपने आप मरेगा या बाघ खाएगा. पिताजी को लोगों की ये बाते किसी गाली से कम नहीं लगती थी, वे गीता के श्लोक गुणि सर्वत्र पूज्यते से उन्हें तर्क देते थे. क्योंकि उनके जीवन के सुनहरे काल का वह साक्षी जो था. नमक अदायगी की सदाचार प्रवृति प्राकृतिक गुण सभी जीवों होता ही है.

समय गुजरता गया हमारी गृहस्ती में नएँ बैलों की जागीरदारी में चलने लग गयी. झंवर्या अब अपने बुढ़ापे की दिन मालिक के प्यार के वशीभूत काट रहा था. झंवर्या के जीवन का 22वां बसग्याल शुरू हो गया, असाढ़ की पैली रगड़-बगड़ हो गयी थी, समय पंयार जाने का हो गया था क्योंकि उससे पहले वहां पानी नहीं होता था असाढ़ के लास्ट तक ही उस पहाड़ी चारागाह में पानी के छव्य्या फूटते थे. खर्कचौल का दिन आया पिताजी ने सुबह नहा-धोकर नैवैद्य बनाया ईष्ट देवों को दिवा-धुपेणा* किया, गौ-गुठयार* की पूजा की, सभी पसुओं को पिठायीं* लगाई, धुपैणा दिया. आज झंवर्या के मुखमंडल पर वह आभा नहीं थी जो होती थी. पिताजी भांप गए और माँ से बोले यार गुस्याणी* झंवर्या पंयार मुश्किल पहुंच पायेगा, पिताजी के ऐसे बोलते ही उस बेजुबान की आंखें टबराणी* लग गयी थी. किसी भी जीव का पर धरती से विदायी के कुछ न कुछ लक्षण जरूर नजर आने लगते है. पिताजी ने उसे दुलार किया और आश्वस्त किया कि तुझे जरूर पंयार ले जाऊंगा. हम सब परिजनों ने खरकचौल किया. किसी ने छोटी बछिया पकड़ी, किसी ने घर के किले का घरबध्या* भैंस. पीछे-पीछे बिल्ली भी चली, कल्या कुत्ता पूरी मुस्तैदी से बकरियों के झुंड के कभी आगे, कभी पीछे चलते हुए ड्यूटी करते चल रहा था. सबकी पीठ पर समर्थ अनुसार लत्ता-कपड़ा, सामल और भांडे बर्तनों का बोझ था. एक दो गाँव वाले भी खरकचौल में मददी आये थे ऐसे बड़े कामों में तब एक-दूसरे का हाथ बांटना आम था, आज मेरी कल तेरी बारी. मदद टू वे प्रोसेस, जितना आउटपुट उतना इनपुट.

आज उस गुठयार की कमाण्ड हमारी सबसे पुरानी गाय काली* ने थाम ली थी. वह सीधे रस्ते पर आगे की गाइड बनी हुई थी इसलिए कि झंवर्या के बाद वही गुठयार की सयानी मेम्बर थी, सयाना यानी अनुभव समझ और निर्णय में परिपक्वता. ‘बल मनखियों से ज्यादा अकल ग्वैरू पर’ * छानी तक टोटल आठ से दस किलोमीटर का रास्ता था. वह भी कहीं सैणा* कहीं लादो तो कहीं खड़ी चढ़ाई वाला, चार-पांच किलोमीटर तक झंवर्या सबके साथ ठीक चला लेकिन जैसे ही थोड़ी चढ़ाई लगी उसका अति बुढापा हौसले पर भारी पड़ने लग गया, अब समस्या ये थी कि शाम होने से पहले लावलश्कर के साथ छानी पहुंचना जरूरी था अंधेरे में बकरियों को बाघ का डर, छोटी बछियां का झंझट. उन्हें कहीं-कहीं गोदी में चढाई की गलियां पार करानी होती थी. इसलिए पिताजी ने झंवर्या को कुछ समझाया और उसे पीछे छोड़ तेज गति से सबको हकाते आगे पहाड़ी की खड़ी ढलानों पर बढ़ाने लगे. झंवर्या बेचारा गुर्त गुर्त* पीछे-पीछे आने लगा. मैंने कहा पिताजी झंवर्या को बाघ खायेगा और उसे रास्ता कौन दिखायेगा पिताजी बोले बेटा अपना पूरा जीवन उसने इन्हीं पगडंडियों पर चलते गुजारा है आज वह अपनी आखरी पंयार यात्रा कर रहा है इस बाइसवीं यात्रा को वह जरूर पूरा करेगा उसे पूरा रास्ता पता है. आने दो उसे आराम से अपनी सक्या* से आता रहेगा. हमारा पूरा जत्था छाया ढलने पर छानी पहुंच गया था.

आज साल भर बाद छानी खुशी से झूमने लग गयी थी, उस विराने में बहार आ गयी एक तरफ बछड़ों की भैं-भैं, एक तरफ बकरियों के चिनीखौं* की म्यैं म्यैं. एक तरफ नयी बैलों की डुकरताल* सभी मवैसी पंयार की मखमली घास पर चिपट गये, जैसे साल भर की धीत कुछ घंटों में ही पूरा करने का इरादा हो. उस विराने घनघोर काळाबण* में उनके गले की घटियों की गमड़ाहट मानो उत्सव गीत गा रही थी. हम बच्चे शाम के पानी लकड़ी आग का जुगाड़ में जुट गए, ब्वै बाबा गाय भैंसों के बांधने के किले गाड़ने पर व्यस्त थे. अब समय गौधुली का हो गया और बांज के पेड़ों से निन्यारों का भजन शुरू हो गया, यह संकेत कुछ मिनटों में अंधेरा होने का था, झटपट हमने गाय भैंसों को उनके किलों और बकरियों को उनके खोड़े में डाल दिये. अब दूध निकालने की तैयारी चल रही थी कि तभी भौं की आवाज आई पिताजी बोले आ गया रे झंवरयां बेचारा और वह छानी के गेट पर खड़ा हो गया, वह बृद्ध आमात्य अंदर इस लिए नहीं आ पाया कि लकड़ी का गेट लगा था और उस बूढ़े में इतना सामर्थ नहीं था कि उसे ऊपर से लांघ पाए, ऊपर से दिन भर चलने से शक्तिहीन हो गया था. मंजिल पर पहुंचने की जिद्द ने चरने का मौका ही नहीं दिया, न ही उसे सुध रही होगी. पिताजी गए और उसे गेट से अंदर ले आये लेकिन तभी मां ने कहा इसका किलव्ड़ा तो बनाया ही नहीं कहाँ बाँधेंगे इस बेचारे को आज , इतने में वह बेजुबान छानी के बाहर गुर्त कर पड़ गया. या तो इस हताशा पर कि आज आपने मेरा किला नहीं गाड़ा, क्योंकि आप भी मेरे अंत की इंतजारी कर रहे थे या इस तसल्ली पर कि वह अपनी बाईस वर्ष के सतत पंयार यात्रा की आखरी मंजिल पर पहुंच गया. उत्तराखण्ड का एक गुमनाम पर्यावरण मित्र

हम सबने उसे उठाने की कोशिश की लेकिन वह उठ नहीं सका. पिताजी ने उस गौधुली पर पानी से उसका अभिषेक किया अर्ध्य दिया. एक परात में पानी और साथ में कुछ नरम बुग्याली घास डाल दी. उसने दो तीन चुस्की पानी की ली और मालिक के हाथ का आखरी तृण घास का जीभ से लपका लेकिन जुगाली न कर पाया और घास मुंह पर ही अटक गई. पिताजी उसकी हालात देख भावुक हो गए और जीवन की आखरी पारी तक साथ निभाने वाले उस साथी का शुक्रिया अदा करने लग गए. पिताजी के आँसुओं के साथ उस बेजुबान के भी दो आंसू टपक पड़े और उसने गर्दन जमीन में छोड़ दी.

उस सांझ को फिर बणदयों* के लिए नैवैद्य बना. शाम की पूजा हुई. हम बच्चों ने तो छक के हलवा और रौंट* खाया, दूध पिया, हाँ!ने  माँ और पिताजी झंवर्या के लिए छाड़* छोड़ दी थी. रात को पिताजी छिलकु* जला बैठे रहे और रात्रि के दूसरे पहर उसकी सांसें पहाड़ की ठंडी बयार के साथ निमग्न हो गयी. कालू (कुत्ता) पास में रखवाली करता रहा और पिताजी सुबह तक नजदीक ही सुस्ताते रहे, क्योंकि बिस्तर पर नहीं जा सकते थे छौं* जो हो गयी थी.

सुबह मैंने और पिताजी ने उसके लिए सामने के ही अल्वाड़े* (आलू का खेत) में गड्ढा किया और सूरज की पहली किरण के साथ उस धरती पुत्र की मिट्टी को असली मिट्टी के नीचे दबा दिया. नहाने के बाद झंवर्या की पुत्री झंवरी गाय के गौमूत्र से शुद्ध हो गए. कुछ दिन बाद पिताजी ने उसके ऊपर एक बुरांस का पेड़ रोप दिया जो कुछ सालों में उस झंवर्या के जैसे हष्ट-पुष्ठ झकमकार हो गया था. एक दो साल बाद ही उस बुरांस के पेड़ ने फूल दिए होंगे लेकिन तब तक मेरे परिवार ने निजी कारणों से उस मधुवन की तीन माह वाली जीवनचर्या को हमेशा के लिए छोड़ दिया था.

आज वह अकेला बुरांस मुझे उस अतीत में ले गया जिसे मैं अब लाख रुपयों से भी नहीं खरीद सकता हूँ, पाने की बात तो दूर. मेरी आँखें नम थी, तभी साथ गए भाई ने झकझोरा ए सुबेदार साब! कहाँ खो गया? बकरा ढूंढने नहीं जाना है क्या?

*गढ़वाली शब्दों का हिंदी भावार्थ

पंयार – उन्नत पहाड़ी चारागाह. ग्वेरों – चरवाहा, गदेरे – बारामासा पहाड़ियों से बहते पानी के नाले. बांज – ओक का बृक्ष जिसे पहाड़ों का सोना भी कहा जाता है. छव्य्या – पहाड़ी से निकलते पानी के छोटे जलस्रोत. उड्यार – गुफाएं. बिसौंणयां – आराम करने की सुनिश्चित जगह. गैठे – समतल तपड़. रुणझुण – हल्की वर्षा के फुहारें. खैनी – आबाद करना. अल्वाड़े – आलू की खेती. जशीली – यस देने वाली. झंवर्या – रंग के अनुरूप बैल का नाम (सफेद काला मिक्स रंग) . दुध्यार – दूध देने वाली. खर्कचौल – पूरी गृहस्थी के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाने का उपक्रम. गौठ – काफी जानवरों का समूह. गुठयार – गौशाला . गुस्सें – मालिक. गुस्याणी – मालकिन. बौड़ेपन – लड़कपन. भीटे पाखे – पहाड़ियों का आकार, जहां सहज या असहज रूप से चढ़ सकते

या काम कर सकते. मंखलसार – फसल कटाई के बाद खेतों में पशुओं चुगाने की छूट. पाली – बंधने का स्थान या हल पर जुतने की सुनिश्चित दिशा और जगह. तिर्वाल ढिस्वाल – सीड़ी नुमा खेतों की अंदर और बाहर का किनारा. बल – एक लयात्मक शब्द जो आम बोली भाषा में प्रयोग होता जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का बोध भी कराता है. भदयाली – कड़ाई. पींडा – अन्न का चारा. पौंठे फर्का – चूतड़ों को मटका के चलना . फुंफ्याट – गाय बेलों की गुस्से में नाक आवाज. डुकर्ताल – डुकरना. उलार – उतराई. एकहत्या – केवल एक ही आदमी की मानने वाला. नाड़ जाना – अकड़ जाना. मसाण – मसान. छा ढलक – छाया ढलना यानी दोपहरी के बाद का समय. इक्वाण – अकेला जिसका कोई जोड़ीदार न हो. स्यूं – हल की सीं. टव्कू – टोकने वाला. धुपैणा – धूप जलाने वाला यंत्र. खर्कचौल – एक जगह से दूसरे जगह जाने का उपक्रम. आंख टबराणा – आंखे डबडबाना. घरबध्या – घर में बंधने वाला. गैवेरु – गायें. गुर्त गुर्त – मुश्किल से चलपाना. सक्या – समर्थ. कालाबण -घनघोर जंगल. बुग्याल – मखमली घास के चारागाह. बणद्यो -बनदेवता. छिलकू – तेलीय चीड़ की लकड़ी. छाड़ छोड़ना – किसी प्रिय के मरने के बाद एक दिन के लिए अन्न जल त्यागना. रौंट – घी में बनी पूजा की रोटी. छौं – सूतक.

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‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ को जीवन सूत्र मानने वाले बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’ ग्राम-मटई (ग्वाड़) चमोली, गढ़वाल के रहने वाले हैं. गढ़वाल राइफल्स के सैनिक के तौर पर अपने सैन्यकर्म का कर्मठता से निर्वाह करते हुए अडिग सतत स्वाध्याय व लेखन भी करते हैं. हिंदी, गढ़वाली में लेखन करने वाले अडिग की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं.     

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Sudhir Kumar

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  • बहुत सुंदर। मुझे अपना बचपन याद आ गया जब मैं गर्मियों की छुट्टियों में अल्मोड़ा म् अपने गाँव जाता था और अपने गाय बैलों को चारनेबले जाता था। हमारे भी दो बैल बिल्कुल झवर्या और सुरु की तरह के थे। इनके नाम प्यारु और खैर थे। दोनों भी बहुत लड़ाकू थे। गाँव के सभी बैल उनसे डरते थे। और तो और लंबे चौड़े भभरी बैलों को भी ये दोनों पहाड़ी बैल मार भागते थे। पँर प्यारु तो इतना प्यार था कि जहां पर मैं बैठा होता वहीं पर आ कर मेरे सिर को चाट चाट कर प्यार दिखता थे। मैं उसके ऊपर बैठ भी जाता तो भी वह शांत खड़ा रहता और गिराता नहीं था। खैर जरा शैतान था और अपनी धुन में रहता था।

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