जब से हमने होश संभाला, कुमांऊनी का गाना – ‘चैकोटकि पारबती तीलै धारू बोला बली, तीलै धारू बोला’ अथवा ‘ओ लाली हो लाली हौंसिंया, बसन्ती लाली तीलै धारू बोला’ जैसे गीत सुनते आये हैं. अब तो रोचक बनाने के नाम पर कई कुमाउंनी व गढवाली गीतों के साथ ‘तीलै धारू बोला’ बोल जोड़ दिये जाते हैं. (Story behind Tile Dharu Bola Song)
यहां तक कि उत्तराखण्ड के प्रख्यात लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी द्वारा ‘तीलै धारू बोला’ टाइटल से एलबम भी जारी की जा चुकी है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि यह ‘तीलै धारू बोला’ की पंक्तियां सर्वप्रथम कहां से आयी और इस का अभिप्राय क्या है? हम बस लकीर के फकीर बनकर गायकी में सौन्दर्य के लिए इसे जोड़ देते हैं. सोचने वाली बात यह है कि क्या इन बोलों में नायिका के प्रति प्रेम प्रदर्शन है या कहीं इस गीत के पीछे पहाड़ी नारी की कोई व्यथा कथा तो नहीं छिपी है? (Story behind Tile Dharu Bola Song)
अधिकांशतः नायिका के प्रति गाये गये इन बोलों में कहीं-कहीं नायक के लिए भी इसका प्रयोग किया गया है. यथा – चैकोटकि पारबती तीलै धारू बोला बली, तीलै धारू बोला. मासी क प्रताप लौंडा, तीलै धारू बोला बली, तीलै धारू बोला. मुझे लगता है कि बिना इन शब्दों के पीछे का अभिप्राय जाने ऐसी परम्परा चल पड़ी कि लोग कुमाउंनी गीतों में इसे एक मुखड़े के रूप में डालने लगे. दरअसल ‘तीलै धारू बोला’ मूलतः नायिका के लिए कहा गया गीत ही लगता है. जब इन बोलों के बारे में चर्चा करें तो जितने मुंह उतनी बातें. लोग अपनी अपनी कल्पनाओं के आधार पर इसका अलग अलग अभिप्राय निकाल लेते हैं.
एक धारणा ये भी है कि यह सर्वशक्तिमान ईश्वर को समर्पित है, जिसमें ईश्वर के प्रति आभार जताया गया है कि तूने हमें यह बोल (वाणी) दी. जब कि कुछ लोगों का मानना है कि ‘बोला’ के स्थान पर भोला शब्द था. इसके पीछे वे तर्क यह देते हैं कि जब राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा मां पृथ्वी पर अवतरित हुई तो भगवान शंकर ने अपनी जटाओं में समाहित करके उसके वेग को कम किया और पृथ्वी के जीवों की रक्षा की, इसलिए भगवान शंकर का आभार प्रकट करते हुए ’त्वीलै धारो भोला ’ कहा गया.
कुछ लोग इन बोलों को तीलू रौतली से भी जोड़ते है, जो उत्तराखण्ड की एक प्रख्यात वीरांगना रही हैं. जिसे गढ़वाल की लक्ष्मीबाई के नाम से जाता है और जिसने सात साल तक लगातार कुमाऊॅ के कत्यूर शासकों से युद्ध कर गढव़ाल क्षेत्र से कत्यूरों को भागने को मजबूर किया. इस तर्क में भी दम इसलिए नहीं है, क्योंकि भले ही आज गढ़वाल क्षेत्र में भी यह मुखड़ा गाया जाने लगा है, लेकिन मूलतः यह कुमाउंनी गीत का ही मुखड़ा है और कुमाउंनी लोग उनके विरूद्ध लड़ने वाली वीरांगना के सम्मान में भला क्यों गायेंगे? दूसरी बात यह भी कि ‘तिलै’ शब्द त्वीलै के अधिक निकट लगता है बजाय तीलू के.
यह बात भी अपनी जगह सोलह आने सत्य है कि उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था में यहां की श्रमसाध्य नारी रीढ़ की हड्डी है और ज्यादातर पुरूष महिलाओं की अपेक्षा निठल्ले ही दिखते हैं. घर गृहस्थी का पूरा जिम्मा अधिकांशत पहाड़ी महिलाओं के कन्धों पर ही रहता है और यह भी सभी जानते हैं कि ‘बौल’ शब्द पहाड़ में शारीरिक श्रम के लिए प्रयुक्त होता है. बहुत संभव है कि पर्वतीय नारी की इसी त्याग, समर्पण व जीवटता की प्रशंसा में ‘त्वीलै धारो बौला’ कहा गया हो.
यों ‘मुण्डे मुण्डे मतिः भिन्नाः’ का कारण यही है कि इसका कोई प्रामाणिक साक्ष्य नही हैं. हां, ‘कुमाउंनी शब्द संपदा’ नाम से फेसबुक पेज पर रिस्की पाठक बताते हैं कि पं0 बद्रीदत्त जोशी लिखित ‘कुमांऊ का इतिहास’ में एक प्रसंग आता है – कत्यूर वंश में वीरदेव नाम के एक राजा हुआ करते थे, जिनके लिए हरथला (वर्तमान कौसानी) से स्रोत का ठण्डा जल लाया जाता था. कहा जाता है कि यह नौला आज भी कौसानी में अस्तित्व में है और वामदेव ब्रह्मदेव नौले के नाम से जाना जाता है. उनके बारे में तो यहां तक लिखा गया है कि उनके लिए दासों द्वारा पानी लाने के लिए कतारें लगी रहती थी. राजा गांव भ्रमण को डांडी से आता था, डांडी वालों के कन्धों को छेदकर और उसमें लोहे का कड़ा डालकर उसमें डांडी के डण्डों को फंसाया जाता था. इनके शासन काल में किस तरह का अत्याचार था, उस समय प्रचलित यह उक्ति स्वयं स्पष्ट करती है :
बांजा घट को भाग उचैनीं
गाभी गै को दूध छीनी
उल्टी नाली भर दीनी
कणक बतै लीनी
राजा के अत्याचार की परकाष्ठा यहीं तक नहीं रूकी यहां तक कि उसने जबरन अपनी सगी मामी तिलोत्तमा से शादी करनी चाही, लेकिन जब तिलोत्तमा ने इससे इन्कार किया तो राजा ने विरोधस्वरूप प्रजा को और अधिक प्रताड़ित करना शुरू किया. प्रजा के कष्ट से तरस आकर अन्ततः तिलोत्तमा ने राजा के अत्याचार से प्रजा को मुक्ति देने के लिए शादी की हामी भर दी. तभी से रानी तिलोत्तमा द्वारा अपनी जनता के कल्याण के लिए दिए गये बलिदान की प्रशंसा में गाया यह मुखड़ा ‘तीलै धारू बोला’ आम लोगों में प्रचलन में आया.
कहा तो ये भी जाता है कि मूल मुखड़ा था – ‘मामी! तीलै धारू बोला’ लेकिन मामी शब्द हटाकर लोगों ने कभी लाली शब्द का इस्तेमाल किया, जैसे ‘ओ लाली हो पधानी लाली, तिलै धारू बोला’ और कभी ‘तिलै धारो बोला’ तक ही सीमित रखा गया. हो सकता है कि मामी से विवाह का प्रसंग सुनकर आने वाली पीढ़ी में इसका गलत संदेश न जाय, इस कारण भी जानबूझकर मामी शब्द हटा दिया गया हो.
खैर, जब तक अन्य कोई प्रामाणिक साक्ष्य न हों तो हमें ‘कुमांऊ का इतिहास’ में वर्णित इसी प्रसंग को स्वीकार करना पड़ेगा, जो वास्तविकता के ज्यादा करीब भी प्रतीत होता है.
– भुवन चन्द्र पन्त
लेखक की यह रचना भी पढ़ें : फतोड़ना कि गदोरना – अद्भुत है कुमाऊनी भाषा का शब्द भण्डार
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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