उन्नीसवीं शताब्दी में अल्मोड़ा नगर के दो सगे भाइयों ने अपने क्षेत्रों में ऐसा काम कर दिखाया था जिस पर प्रत्येक कुमाऊनी गर्व कर सकता है. ज्येष्ठ भाई देवीदत्त जोशी ने कुमाऊँ में गेय पद्धति पर आधारित रामलीला का सूत्रपात किया. देवीदत्त जोशी कुमाऊँ के पहले डिप्टी कलेक्टर भी रहे थे. (Srikrishna Joshi Unsung Hero from Kumaon)
उनके कनिष्ठ भ्राता पं. श्रीकृष्ण जोशी विश्व के प्रथम वैज्ञानिक थे जिन्होंने सौर ऊर्जा से वाष्प इंजन चलाकर दुनिया के वैज्ञानिकों को चकित कर दिखाया था. प्रसंगवश जिक्र आया तो बताना पड़ेगा कि ये दोनों भाई कुमाऊँ के उन गिने-चुने लोगों में थे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था. प्रख्यात गायक चंद्रशेखर पन्त ने संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा श्रीकृष्ण जोशी से पाई थी. वे चंद्रशेखर पन्त के नाना थे. ये दोनों भाई अल्मोड़ा नगर के मोहल्ला मकीरी के निवासी थे. इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी अल्मोड़ा में हुई थी. (Srikrishna Joshi Unsung Hero from Kumaon)
श्रीकृष्ण जोशी ने भानुताप (Heliotherm) यंत्र का आविष्कार कर उससे भाप का इंजन चला कर दिखाया था. भानुताप को 15 मार्च 1900 में सर्वप्रथम पेटेंट कराया गया. इसके बाद इसे परिष्कृत कर के जनवरी 1903 में भारत सरकार के कार्यालय में पेटेंट कराया गया.
श्रीकृष्ण जोशी ने जिस समय सौर ऊर्जा को लेकर शोध करना आरम्भ किया उस समय विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की थी. प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने सूर्य के प्रकाश संबंधी शोध इसके बाद किये जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला. श्रीकृष्ण जोशी का राष्ट्रवादी होना और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विभिन्न पात्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना औपनिवेशिक शासकों को नहीं सुहाया. श्रीकृष्ण जोशी की गिनती उन्नीसवीं शताब्दी के उन हुए राष्ट्रवादी नेताओं में की जाती है जिन्होंने गुलामी और तत्कालीन कुमाऊँ (गढ़वाल सहित) में प्रचलित कुली बेगार प्रथा का अपनी प्रखर लेखनी से बार-बार विरोध किया. ‘मॉडर्न रिव्यू’ में प्रकाशित उनके एक लेख से तो तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर हीवेट अपना आपा खो बैठे. यही कारण रहा कि इतनी बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि के बाद अंग्रेज अफसरों ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया और प्रयोगों को जारी रखने के लिए कभी भी आर्थिक सहायता नहीं दी. वे अपने ही संसाधनों से शोध और प्रयोग करते रहे. यह माना जाता है कि श्रीकृष्ण जोशी के शोध और आविष्कार को अगर उस समय विदेशी हुकूमत ने मान्यता दी होती तो वे नोबल पुरस्कार के हकदार होते.
श्रीकृष्ण जोशी का भानुताप बनाने का प्रसंग भी दिलचस्प है. प्रारम्भ में उन्होंने दो उत्तल लेंसों के सहारे सूर्य की किरणों से ऊर्जा प्राप्त करने की कोशिश की पर वे इसमें असफल रहे. शीत ऋतु में जब वे अपने कमरे में बैठे थे तो उन्होंने महसूस किया कि श्वेत दीवारों पर सूर्य की किरणें (यह प्रयोग आइन्स्टाइन से पूर्व का था और उस समय वैज्ञानिक सूर्य के प्रकाश को किरणों के रूप में चलना मानते थे) पड़ रही है और दीवार परावर्तक का कार्य कर रहा है. इससे श्रीकृष्ण जोशी ने निष्कर्ष निकाला कि यदि अच्छे परावर्तक लगाए जाएं तो अधिक ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है. इससे उनमें निरन्तर प्रयोग करने की धुन सवार हो गयी.
श्रीकृष्ण जोशी ने दर्पणों का सहारा लेकर यह कोशिश की कि एक बिंदु पर सूर्य की किरणें केन्द्रित हो सकें. इसमें उन्हें जल्दी सफलता मिल गयी. परेशानी यह थी कि दर्पणों की फोकल लेंग्थ तथा दर्पणों के बीच की दूरी को लेकर उन्हें बार-बार गणना करनी पड़ती थी. इससे निबटने के लिए उन्होंने एक फ्रेम बनाया जिससे दर्पणों के बीच की दूरी और कोणों को स्थिरता मिल सके. शुरुआत में उन्होंने इस फ्रेम को हाथ से घुमा कर प्रयोग किये. सफलता मिलने पर उन्होंने एक स्वचालित यंत्र का आविष्कार किया और इसे ही भानुताप नाम दिया. इस यंत्र के सहारे उन्होंने सूर्य का प्रकाश प्राप्त होने पर हर मौसम में सफल प्रयोग कर दिखाए.
श्रीकृष्ण जोशी ने भानुताप से इलाहाबाद में जलेबी तैयार कर दी. यह समाचार देश में चर्चित हुआ. उस समय विश्व में ईंधन की समस्या आज की तरह जटिल नहीं थी इसके बावजूद प्रभावशाली लोगों में इस यंत्र के प्रति उत्सुकता बढ़ने लगी. तत्कालीन पोरबंदर राज्य के दीवान मनीलाल अजीत राय ने इस यंत्र की सूचना राज्य के प्रमुख राणा भवसिंह को दी. उन्होंने श्रीकृष्ण जोशी को विशेष आग्रह करके बुलाया और श्रीकृष्ण जोशी ने वहां सात भानुताप बनाए. इनमें से छः पोरबंदर को दे दिए गए. भानुताप के प्रयोगों से पोरबंदर के लोग भी आश्चर्यचकित रह गए. 20 दिसंबर 1902 को पोरबंदर के दीवान की इस सम्बन्ध में की गयी अंगरेजी टिप्पणी का सारांश निम्न है:
“अल्मोड़ा के श्रीकृष्ण जोशी ने यहाँ सात भानुताप बनाए और 6 पोरबंदर राज्य को दे दिए. इसके परिणाम अत्यंत उत्साहजनक हैं. भानुताप के प्रयोगों से 110 पाउंड पानी नवम्बर माह में आठ घंटे में वाष्प में बदल गया. एक पौंड जिंक को 26 वर्ग फीट शीशे द्वारा पिघला दिया गया.”
भानुताप द्वारा 1902 में लखनऊ में वाष्प इंजन चला कर दिखाया गया. इस अनोखी वैज्ञानिक घटना पर तत्कालीन समाचार पत्रों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की. लखनऊ से प्रकाशित होने वाले ‘एडवोकेट’ की अंगरेजी टिप्पणी का सार यह रहा –
“पंडित श्रीकृष्ण जोशी ने भानुताप में काफी सुधार कर दिया है. उन्होंने इसके सहारे वाष्प इंजन चलाकर दिखाया ठीक उसी तरह जैसे कि उसे कोयले से चलाया जा रहा हो.”
भानुताप के प्रयोगों का प्रदर्शन अहमदाबाद, दिल्ली और कलकत्ता में भी हुआ. इन उपकरणों को बनाने में पंडित श्रीकृष्ण जोशी की भरी धनराशि व्यय हुई और कहीं से भी आर्थिक सहायता न मिलने के कारण इस यंत्र को बेहतर बनाने का प्रयोग उन्हें छोड़ना पड़ा.
प्रतिभा के धनी पंडित श्रीकृष्ण जोशी ने भानुताप का निर्माण करने के बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अल्मोड़ा वापस आ गए. वे कुमाऊँ में व्याप्त गरीबी और साधनहीनता से परेशान थे. उन्होंने वैज्ञानिक रूप से अध्ययन करके एक ऐसी योजना तैयार की जिससे कोसी नदी से बिजली उत्पादित कर अल्मोड़ा नगर में बिजली-पानी पहुंचाई जा सकती थी. इसी योजना के तहत हवालबाग में एक ऊनी कारखाना स्थापित कर नागरिकों को रोजगार देना भी प्रस्तावित था लेकिन इसके लिए तत्कालीन अंग्रेज शासन और नगरपालिका ने वांछित धन देने का प्रावधान नहीं किया. इस योजना को खरीदने के लिए बंबई के करोड़पति भी आये लेकिन पंडित श्रीकृष्ण जोशी ने यह कहकर इस योजना के वैज्ञानिक शोध को नहीं बेचा कि वे पहाड़ को कुलियों का देश नहीं बनने देंगे.
मोहल्ला मकीरी के रामकृष्ण जोशी के चौथे पुत्र पंडित श्रीकृष्ण जोशी को देशभक्ति, आयुर्वेद विद्याज्ञान आदि विरासत में मिला हुआ था. इस परिवार में विभिन्न विषयों की पुस्तकों का विषद संग्रह भी था.
सरकारी सहायता न मिलने पर पंडित श्रीकृष्ण जोशी बहुत दुखी रहे लेकिन अंग्रेजों के आगे कभी नहीं झुके. प्रयोगों और शोध पर उन्होंने अपना जीवन और धन अर्पित कर दिया.
कुली बेगार प्रथा का अंत हालांकि 1921 में हुआ था लेकिन इसे एक अमानवीय प्रथा के रूप में देश की बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपवाकर प्रचारित करने का काम पंडित श्रीकृष्ण जोशी ने किया. वे अपने जीवन के आख़िरी समय तक ब्रिटिश हुकूमत के कट्टर विरोधी रहे.
5 जून 1924 को अल्मोड़ा में उनका देहांत हुआ. उनकी मृत्यु पर कूर्मांचल-केसरी बदरीदत्त पांडे ने लिखा था – ” यह परमात्मा की गलती थी कि उनका जन्म पराधीन देश में हुआ. पराधीन देश में जन्म लेकर भी उन्होंने नाम और यश कमाया. यदि वे स्वतंत्र देश में पैदा होते तो न मालूम क्या कर देते.”
इसे भी देखें – लिम्का बुक ऑफ़ रेकॉर्ड्स में भी दर्ज है श्रीकृष्ण जोशी की ऐतिहासिक उपलब्धि
-शिरीष पाण्डे
(यह महत्वपूर्ण आलेख ‘पुरवासी’ के रजत जयन्ती अंक 2004 से साभार लिया गया है.)
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इस प्रसंग को हम लोगों तक पहुँचाकर आपने हमें आत्मगौरव का क्षण उपलब्ध करवाया है । धन्यवाद ।
इस पोस्ट के लिए हृदय से धन्यवाद ।