अमित श्रीवास्तव

कोरोना के जाने के बाद चलने वाले तिकोने खेल में आप कहां होंगे?

आपको क्या लगता है कोरोनोत्तर काल कैसा होगा? आपको लगता है कि दुनिया की शक्लोसूरत बदल जाएगी? आपको लगता है कि लोग थोड़े संयमित, थोड़े सहिष्णु, थोड़े उदारमना हो जाएंगे? आपको लगता है कि सूचना विस्फोटकों ने आपको बहुत सारे मत-मतान्तरों के जो असबाब उपलब्ध कराए हैं उनसे किसी दूसरी दुनिया की नींव रक्खी जा सकेगी? Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava

पिछले पाँच-सात सालों के ट्रैक रिकॉर्ड देखिये. जो जहाँ था वहीं है, बल्कि और गहराई से गड़ गया है अपने कूप में, अपने खोदे हुए गड्ढे में. अपनी धारणाओं पर स्थापित, अपनी स्थापनाओं पर जड़ में तब्दील होता हुआ. सहिष्णुता-असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग, राष्ट्रवाद से लेकर नोटबंदी, बेरोजगारी और कोरोना के समय में ताली-दिवाली तक आप किसी भी घटना या विचार को उठाइये बीच में एक लकीर खींचिए और रखिये लोगों को इनके पक्ष-विपक्ष में. शायद ही कोई विचलन दिखाई दे. एक विषय पर सहमत लोग दूसरे पर भी सहमत दिखाई देंगे. ज़्यादातर मुद्दों पर असहमत लोग आपको एक ही खाने में दिखाई देंगे. मसलन जो लोग जेएनयू प्रकरण में सरकारी कार्यवाही के साथ खड़े दिखे थे नोटबंदी की प्रक्रिया को हर संभव तरीके से जायज़ ठहराते दिखे. इसका उल्टा भी उतना ही सच है. पहले भी ऐसा न रहा हो इसका खंडन नहीं किया जा सकता लेकिन इधर का बदलाव दरअसल इस मायने में मानीखेज है कि इसने बीच की पूरी ज़मीन को खा लिया है. अब आप इतने सार्वजनिक हो चुके हैं कि साफ़ दिखते हैं कि फेंस के इधर हैं या उधर. Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava

एक बहुत महीन, मज़ेदार और तेज़ी से नियम बदलने वाला शातिर खेल चल रहा है. कल्पना कीजिये किसी खेल के मैदान की जो त्रिकोण सा आपको अपने में समाहित किये फैला हो. इसमें दो भुजाओं पर कुहनी टिकाए उपस्थित है तकनीक और एक सिरे पर आप खुद खड़े हैं. देखते हैं दो तरफ से तकनीक से घिरे आप कैसे दिखते हैं. `बिग ब्रदर इज़ वाचिंग यू.’ जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास ‘1984’ में ये लाइन बार-बार आती है. यहाँ इसे कोट करने का आशय अलहदा है. यहाँ ब्रदर का मतलब सरकार से नहीं बल्कि इंटरनेट के किसी, या कई, माफिया ग्रुप से लगाइए. ग्रुप कहने से भी बात साफ हो सकती थी लेकिन माफिया क्यों कहा ये जल्द स्पष्ट हो जाएगा. ये आप भी जानते हैं कि इंटरनेट या सीधी बात कहें तो सोशल मीडिया पर आपकी एक-एक एक्टिविटी का रिकॉर्ड रक्खा जाता है. बात फेसबुक से शुरू करते हैं. फेसबुक पर आप किसी पोस्ट पर आए, उसे शेयर किया, लाइक या कमेंट किया या महज़ रुके, कितनी देर रुके, ये सब दर्ज होता है. फिर आपका एक्टिविटी ट्रैक बनाया जाता है और फिर आपके सामने उन चीजों को परोसा जाता है जो आप पसंद कर सकते हैं. Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava

अगर आप सक्रिय फेसबुक प्रयोक्ता हैं तो ध्यान दिया होगा कि कुछ ही महीनों पहले तक इस कैलकुलेशन को होने में ज़रा वक्त लगता था. शायद अगली बार लॉगिन होने पर लाइकेबल पोस्ट दिखती थीं. पर अब ये एनालिटिक्स इतनी तेज है कि आपके मोबाइल या लैपटॉप स्क्रीन जितनी दूरी बनती है. मतलब ये कि तीसरी या चौथी पोस्ट उसी तरह की होती है जो आपने अभी देखी, पसंद की, कमेन्ट या शेयर की. मसलन अगर आपने किसी स्पॉन्सर्ड म्यूज़िक वीडियो को देखा तो एक-दो पोस्ट के बाद उसी तरह के वीडियो की अनुशंसा आने लगती है. अभी-अभी का विकास ये है कि एक विषय पर दो-तीन पोस्ट एक के बाद एक आने लगी हैं. एक ही लिंक को शेयर करने वाली पोस्ट तो एक साथ आती ही हैं. 

ये प्राययिकता स्पॉन्सर्ड पोस्ट में ज़्यादा होती है बनिस्बत उनकी पोस्ट में जो आपकी या आपके दोस्तों की फ्रेंडलिस्ट में हैं. लेकिन यहाँ भी प्रयोग करके देखिये. आप पाएंगे कि उन लोगों की पोस्ट तेज़ी से और बार-बार आती है आपके पास, जिनकी पोस्ट पर आप ज़्यादा देर ठहरते हैं. दो बातें हुईं ये. वैसी पोस्ट आपतक आने में तेज़ी दिखाती है जैसी आप अमूमन देखा करते हैं और उन लोगों की पोस्ट भी आपतक तेज़ आती है जिन्हें आप अक्सर पढ़ते/देखते रहते हैं. 

अब सोचने का वितान थोड़ा बढ़ाते हैं और इसमें अन्य सोशल और अन्यथा मीडिया को शामिल करते हैं.  जैसे माइक्रो ब्लॉगिंग (ट्विटर), फोटो शेयरिंग (इंस्टा), वीडियो शेयरिंग (यूट्यूब) ऑनलाइन टीवी (नेटफ्लिक्स), मेल (याहूमेल), इंस्टेंट मैसेजिंग (मैसेंजर), लोकेशन सर्विस (गूगल), फोन नम्बर, शॉपिंग (अमेज़ॉन) और हज़ारों की संख्या में एंड्रोयड/आईओएस मोबाइल ऐप. आपके लिए सब अलहदा प्लेटफॉर्म्स होंगे. नहीं, अब ये जुदा-जुदा नहीं रहे.  

अभी-अभी आपको किसी नम्बर से कॉल आई थी, और अभी- अभी उसी व्यक्ति की फेसबुक प्रोफाइल रिकमंडेड फ्रेंड लिस्ट में आने लगी. या अभी किसी ने कोई ग्रुप फोटो अपलोड की, जो आपकी मित्र सूची में भी नहीं है, और आपको नोटिफिकेशन आ गया उस फोटो में ठीक आपके ऊपर बॉक्स बना कर ‘दैट मे बी यू.’ लोकेशन और फेस रिकग्निशन तकनीक, फेसबुक, इंटरनेट और कॉल सर्विस प्रोवाइडर्स सब गलबहियाँ हों तो ये सब सम्भव है. आपने देखा ही नहीं कि टेक्नोलॉजी के साथ-साथ प्लेटफॉर्म कन्वर्जेंस हो चुका है. दरअसल इन सबसे होकर जो ट्रेन गुज़रती है वो आपके दिलो दिमाग़ को सवारी बना ले जाती है. ये अलग-अलग नहीं हैं. सबमें डायरेक्ट या इनडायरेक्ट डाटा शेयरिंग है. इन सब पर आपकी सक्रियता अनजाने में ही आपके बारे में बहुत सी सूचनाएं दे देती है. इन सब सूचनाओं की प्रोसेसिंग के बाद आपका एक ई वर्ज़न, आपका अल्टर ईगो जैसा बनाकर रख लिया जाता है. समझिए कि एक  मिट्टी के लौंदे जैसा. फिर जिस भी कम्पनी को जिस आकार में `आप’ चाहिए उसे स्कूप से काट-काट कर दे दिया जाता है. Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava

ये आज से नहीं हो रहा है. ढाई-तीन दशक पहले जब ईमेल शबाब पर आना शुरू हुआ था तब भी ईमेल आई डी बाज़ार में बिकती थी. अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग के लिए कम्पनियां याहू, रिडिफ, हॉटमेल जैसी इमेल सर्विस प्रोवाईडर से उनके यूजर्स की आई डी खरीदती थीं. अब ये बाज़ार ज़्यादा बड़ा और व्यवस्थित हो गया है. वैश्विक स्तर पर बहुत सी ऐसी एनालिटिकल कम्पनीज़ हैं जो इन प्लेटफॉर्म्स के डाटा को उठाती हैं, उनको एनालाइज करती हैं और फिर जिन कम्पनीज को ज़रुरत है उन्हें बेचती हैं. इसे बाकायदा `सोशल मीडिया माइनिंग’ का नाम दिया गया है. इस दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता तो बाज़ार ही है. मैं एक उत्पादक या बिचौलिया हूँ और किसी ख़ास फीचर की पेन के लिए सम्भावित खरीदार ढूँढ़ रहा हूँ तो मैं इन पेशेवर ठेकेदारों यानि इन माइनिंग फर्म्स के पास जाऊंगा. ये बहुत सारे लोगों के बहुत सारे सोशल मीडिया प्लेटफोर्म पर उनके बहुत सारी गतिविधियों से एकत्र किये हुए बहुत सारे रैंडम डाटा से मेरी आवश्यकतानुसार संभावित उपभोक्ताओं की सूची तत्काल उपलब्ध करा देंगे. सोशल मीडिया एनालिटिकल टूल्स या एल्गोरिदम से उसे ऐसा करने में शायद कुछ ही मिनट लगें.  

1997 में `सिक्स डिग्रीज़ डॉट कॉम’ जैसी पहली सोशल नेटवर्किंग साइट से लेकर आज 2020 के फेसबुक तक जिसका वार्षिक टर्न ओवर 70 बिलियन डॉलर है, महज़ दो दशकों में हम एक ऐसी वर्चुअल दुनिया बुन चुके हैं जिसकी सामाजिकी कई अंधेरी गलियों से गुजरती है जो बहुत दिखाई देती इस दुनिया में दिखती नहीं हैं.  2012 में बनी एक सोशल मीडिया मार्केटिंग कम्पनी एनयूवीआई का उदाहरण लेते हैं जिसने `सॉफ्टवेयर एज़ सर्विस प्लेटफॉर्म’ (सास) बनाया जो रियल टाइम पर बहुत सारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध डाटा को इकट्ठा करके उसे एनालाइज करता है और माँग के अनुसार उपलब्ध कराता है. इस सोशल मीडिया एनालिटिक्स सॉफ्टवेयर फर्म का वार्षिक टर्नओवर 8.5 मिलियन यूएस डॉलर है. इसके जैसी बहुत सी सोशल मीडिया माइनिंग फर्म्स और `कीहोल’, `ब्राण्डवाच’, `एगोरापल्स’, `मेल्टवाटर’ जैसे टूल्स बाज़ार में हैं. इनका समेकित बाज़ार कितना बड़ा हो चला है इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है.   

आपके द्वारा ही उपलब्ध कराई गयी सूचनाओं पर खड़ा ये एल्गोरिदम आपके किसी ज़िंदा रक़ीब से ज़्यादा ओपीनिएटेड है. ये आपकी पूर्व पसंद के अनुसार फिल्टर लगाता है, पिक, चूज़ एंड रिजेक्ट करता है. गेंद त्रिकोणीय मैदान के दूसरे कोने में सरकाता है जहाँ उपस्थित है खेल का दूसरा खिलाड़ी. आप खुद. आपका अपना मनोविज्ञान. इस एल्गोरिदम के साथ आपके मनोविज्ञान का सेलेक्टिव एक्सपोज़र या कन्फर्मेशन बायस यानि अपनी वर्तमान पसंद को मैच करती चीज़ों को ढूंढने की इच्छा या अवचेतन में दबी आकांक्षा की वजह से आप सोशल मीडिया पर आपको परोसी जा रही `पसंद’ की चीज़ों से बहुत जल्दी जुड़ जाते हैं और जुड़े रहना चाहते हैं. ये कन्फर्मेशन बायस आपको उस लूप में ले आता है जिसमें आप अपने विचार से मिलते-जुलते विचारों से बार-बार टकराते हैं और आपका विचार अधिक गाढ़ा, ध्रिड और अपारदर्शी होता जाता है| 

बाहरी मुल्कों में सोशल मीडिया की वजह से कन्फर्मेशन बायस को लेकर बहुत से प्रयोग किये जा रहे हैं| ऐसा ही एक प्रयोग 2016 में अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में ट्विटर इस्तेमाल करने वाले 27 हज़ार से ज़्यादा लोगों के ऊपर `ईको चैंबर’ प्रयोग किया गया. ईको चैंबर से तात्पर्य किसी ख़ास तरह की विचारधारा और कैंडीडेट से सम्बन्धित ट्वीट्स इन लोगों को बार-बार भेजे गए. इसका परिणाम चौकाने वाला था. बहुत हद तक स्पष्ट हो गया कि तकनीक और कन्फर्मेशन बायस वाले मनोविज्ञान के रसायन से चुनावी पोलराईजेशन आसानी से किया जा सकता है.  Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava 

इसी चुनाव के सन्दर्भ में केम्ब्रिज एनालिटिका का प्रसंग काफी प्रकाश में आया था. केम्ब्रिज एनालिटिका एक राजनैतिक सलाह देने वाली फर्म है जो प्रेजिडेंट ट्रम्प की सलाहकार थी उसने चुनाव में प्रेसिडेंट ट्रंप के पक्ष में माहौल बनाने में फेसबुक से डाटा हार्वेस्टिंग की. इस सन्दर्भ में मार्क जुकरबर्ग का अमरीकी सीनेट को दिया जवाब रोचक है जिसमें वो फेक न्यूज़, चुनाव में विदेशी प्रभाव, निजता और अभद्र भाषा (हेट स्पीच) के प्रयोग से इनकार नहीं करते बल्कि उसके लिए माफी भी मांगते हैं. आशय यह है कि आपसे इकट्ठा की गयी आपकी जानकारी आपको अभिमत के एक ऐसे ककून में बाँध देने के लिए प्रयोग में लाई जाती है जिसके रेशे आपकी लार से ही बुने हैं.     

प्रश्न ये उठता है कि अगर हम स्वयं चौकन्ने हों और किसी विषय को अलग-अलग नजरिये से जानना चाहें तो? हो सकता है कि आप कन्फर्मेशन बायस को तोड़कर खुद उन स्थानों पर ढूँढ-खोज करें. लेकिन यहाँ भी एक तकनीकि झोल है. सर्च इंजिन भी किसी न किसी एलोगरिदम पर काम करता है. एक जैसी चीज़ खोजने पर उन पन्नों को तरजीह देते हुए पहले दिखाता है जो सबसे ज्यादा खोजे गए हैं. गूगल की व्यक्तिगत खोज भी है जो आपकी पुरानी खोज को कुकीज़ के रूप में स्टोर करके रखती है और आगे आप को उन्हें या मिलती-जुलते पन्नो को दिखाती है. यही नहीं ये पर्सनलाइज़्ड सर्च इंजिन आपके बारे में उपलब्ध अन्य सूचनाओं जैसे लोकेशन, पूर्व इंटरनेट इतिहास को मिला कर आपको एक तरह के इंटेलेक्चुअल आइसोलेशन में ले जा सकता है. मतलब यह कि आप उन जानकारियों से महरूम होते जाते हैं जो आपकी धारणाओं को सहमति नहीं देतीं. इस खतरनाक प्रक्रिया को `फ़िल्टर बबल’ का नाम दिया गया है.    

फ़िल्टर बबल को पुरजोर फूंक मारता है इस खेल के तीसरे कोण पर खड़ा तीसरा लेकिन सबसे शातिर खिलाड़ी. फेक न्यूज़. जाली खबरों का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी ने फोटो शॉप, वोईस ओवर, वीडियो एडिटिंग टूल्स के जरिये इसे नए मुकाम तक पहुंचा दिया है. ये सारे उपक्रम होते तो तकनीकि के खेल हैं लेकिन यहाँ से तकनीक पिलियन सीट पर आ जाती है. आप आश्चर्य न करें. होता सबकुछ तकनीक के सहारे ही है लेकिन आदमी की मालाफाइड इंटेंशन, बदनीयत करवाती है. एंड यू नो फ्रॉम योर चाइल्डहुड दैट साइंस इज़ अ गुड सर्वेन्ट. अब दोनों का डेडली कॉम्बीनेशन देखिये. आप उस ट्रैप में होते हैं जिसकी जालियाँ इतनी बारीक हैं कि परिंदा क्या हवा भी पर नहीं मार सकती. इतनी बारीक बुनावट है झूठ के इस जाल की कि धीरे-धीरे आपके कॉमन सेन्स को साँस आनी बंद हो जाती है और विश्वास के उस स्तर पर उतर आते हैं जब आप किसी अजीब सी दिखती महिला की फोटो को लैला की फोटो होने पर विश्वास कर लेते हैं, आप मान लेते हैं कि ब्रह्माण्ड में अनवरत कोई ॐ चैंटिंग चल रही है और कोविड-19 का इलाज शिवपुराण में लिखा हुआ है.

फेक न्यूज़ का कारोबार वैश्विक स्तर पर बहुत बड़ा है. इसे मापना आसान नहीं है तब जबकि इसका उद्देश्य बाज़ार से बाहर ज्यादा है. कहने का आशय यही है कि इसे औजार के रूप में इस्तेमाल करने वाली सबसे बड़ी खिलाड़ी राजनीति है. इसने `पोस्ट-ट्रुथ पॉलिटिक्स’ को खड़ा करने में बहुत मदद दी है. `पोस्ट-ट्रुथ पॉलिटिक्स’ वाक्यांश भी अभी-अभी की राजनीति को परिभाषित करने के लिए के लिए गढ़ा गया है जिसमें सारा राजनैतिक डिस्कोर्स, जनता के साथ सारा संवाद, सारी अपील तथ्यात्मक यथार्थ पर नहीं बल्कि भावनात्मक आधार पर होती है. पिछले कुछ सालों में अपने ही देश में नहीं वरन विश्व के बहुत से देशों में इसका होना दर्ज किया जा रहा है. फेक न्यूज़ के खतरे देखते हुए इनकी जांच यानि फैक्ट चेक, सोशल और मुख्यधारा मीडिया का सबसे बड़ा कारोबार होता जा रहा है. जिस तरह से फेक न्यूज़ के कारोबार का आगणन मुश्किल है वैसे ही इसकी लाउन्डरिंग के कारोबार का भी.  Speculations on a Post Corona World Amit Srivastava   

त्रिकोणीय मैदान पर खेले जा रहे इस खेल की विशेषज्ञता, अंदाज़ और तकनीक सोशल मीडिया के हाथ में है. ये खेल को अपने बनाए `टर्म्स एंड कंडीशंस’ पर खेल रही है. खेल खेला आपसे जा रहा है लेकिन आप एक तरह से `नॉन प्लेयिंग प्लेयर’ की भूमिका में आते जा रहे हैं. सभ्यता के इस पायदान पर आप मैदान छोड़कर भाग भी नहीं सकते, एक तरह से इस खेल को खेलने के लिए अभिशप्त हैं. कोरोना जैसी महामारी के दौरान भी इस खेल के नियमों में कोई बदलाव नहीं दिखता बल्कि ये कहना ज्यादा सही है कि ऐसी जटिल परिस्थितियों में खेल उरूज़ पर पहुँच चुका है. महामारी के दौरान समाज का हालिया रिस्पोंस तो यही दर्शाता है. आने वाले समय में सामूहिक मृत्यु-बोध से ही कोई बहुत बड़ा टेक्नो-सोशल आंदोलन खड़ा हो जाए तो बात और है. आन्दोलन, जो इस त्रिकोण को तोड़ सके, इसके शातिर खिलाड़ियों पर नकेल कस सके, खेल के नियमों में बड़े रद्दो-बदल कर सके. आन्दोलन जो समाज की विभाजक रेखाओं के बीच कुछ गलियारे पनपा सके जिनसे होकर लोगों की दुतरफा आवाजाही की शुरुआत हो या कुछ नहीं तो इतनी साँस आ सके कि वहाँ, बीच में, खड़े हो सकने की गुंजाइश बन सके.

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

-अमित श्रीवास्तव

लेखक को यहाँ भी पढ़ें: बार-बार नहीं आते अरविन्द डंगवाल जैसे थानेदार

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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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