छुट्टियों में गांव गया था तो पता लगा कि कुछ दिन पूर्व ही पड़ोस में ही रहने वाले महेश दा का लड़का हुआ था. मैं भी बधाई देने पहुंच गया. सब लोग बहुत खुश थे. बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ था. आने वाले मेहमानों को मिठाइयां बांटी जा रही थी. चाय नमकीन से स्वागत हो रहा था. महेश दा और भौजी भी अपनी खुशी पर काबू नही पा सक रहे थे. परिवार का पहला बच्चा जो ठहरा. ताऊ जी ताई जी भी बहुत खुश थे. आमा बूबू बनने की खुशी जो ठहरी. मैं भी उनके साथ बैठ गया. मेरे लिए भी एक प्लेट में मिठाई, नमकीन और एक चाय आ गई थी.
अनौपचारिक बातचीत चल ही रही थी. दिल्ली के हाल, गांव के हाल वगैरह. तभी महेश दा ने आवाज लगाते हुए अपने पास बुलाया और पूछा, “भाई कुछ लेगा क्या”. मैंने कहा “नहीं सब ठीक है बस एक गिलास पानी पिला दो” वो फिर बोला “शरमा मत. दिल्ली वाला हुआ. कुछ तो लेता होगा” मैंने कहा “नहीं”. फिर पूछा “अभी तक शुरु नहीं की क्या”. मैंने मुस्कुरा दिया. “गजब है यार” वो बोला. खैर यह संवाद यहीं ख़त्म हो गया. अनौपचारिक बातें पुनः शुरु हुई और बातों-बातों में बताया गया कि चार दिन बाद नवान (नामकरण) संस्कार का समारोह होगा. मुझे भी आना है. कुछ देर और बैठकर फिर निकल गया घर की तरफ.
बचपन की यादें ताजा होने लगी थी. कैसे कहीं से प्रीतिभोज का आमंत्रण आने पर मन में लड्डू फूटा करते थे. अगर पूरे परिवार के लिए निमंत्रण न हो तो भाईयों में आपस में बहस. कहासुनी भी हो जाती थी कि मैं जाउंगा. कौन जायेगा. पिछली बार कौन गया था इत्यादि. वास्तव में सही बताऊं तो बचपन में प्रीतिभोज में जानेके दो-तीन फायदे थे. चटपटा भोजन, दोस्तों के साथ मौज मस्ती और ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार “दक्षिणा”. पैदाइशी ब्राह्मण जो हुए. हालांकि उस समय यह राशि बहुत ज्यादा नहीं होती थी. 10-20 रूपये ही मिलते थे लेकिन एक छोटे कस्बे के हिसाब से पर्याप्त थी. हफ्ते भर चल जाता थी. सोचते चलते कब घर आ गया पता ही नहीं चला. खैर अब तो बस तीन दिनों की बात थी.
3-4 दिन का समय था. बार-बार पुरानी यादें ताजा हो रहीं थी. पुराने दिन याद आ रहे थे. कैसे सब मिलकर काम करते थे. सबकी जिम्मेदारी तय होती थी. 2-3 दिन पहले से ही सब लग जाते थे. बच्चों की जिम्मेदारी होती थी पंचायत घर से गिनकर लोटे-थाली लाने की और नौजवानों की ड्यूटी होती थी आस-पड़ोस के गांव से भोजन पकाने के लिए बड़े-बड़े तौले (तांबे का बड़ा भगौना) भड्डू ,कड़ाई, देग, परात, पानी के ड्रम, टंकी आदि इक्ट्ठा करना. पानी की व्यवस्था भी 2-3 दिन पहले से ही करनी पड़ती थी. कुछ लोग बहुत खास होते थे, ख्याति प्राप्त, काम में माहिर, निपुण. उन्हें तो स्पेशल संदेश भिजवाया जाता था सूचना भिजवाई जाती थी और वह लोग भी राजी-खुशी समय निकाल वक्त पर पहुंच जाते थे.
मौके के दिन कुछ लोग सब्जी काटते थे. कोई पत्थर का चूल्हा लगाने का माहिर होता था और किसी का काम होता था उस पत्थर के उपर X का चिन्ह लगाना (ऐसी मान्यता है कि जिस पत्थर के उपर X का चिन्ह लगाया जाये वह पत्थर गरम होने पर चटकता नहीं है). कुछ लोग रायते के लिए ककड़ी कसते थे. लेकिन कोई एक ही रायता बनाने का माहिर होता था. जिसके हाथ में लगते ही रायते का स्वाद निखर जाता था. कोई सलाद काटता था, कोई दाल धोता था. महिलायें मिलकर बड़े परात में आटा गूंथने लगतीं थी. लेकिन सबसे ज्यादा इज्जत होती थी चटनी स्पेशलिस्ट की. जो अमखोड़ (अमचूर) की चटनी बनाने में महारत रखता हो. चूल्हा जलता, देग, तौले, भड्डू में पानी भरकर चूल्हे में चढ़ाया जाता. तड़का लगाकर दाल-सब्जी पकने को रख देते लेकिन नमक डालने की मनाही होती थी. नमक डालने का एकाधिकार पंडित जी का ही होता था.
पण्डित जी आते अपनी धोती बांधकर पूछते – “कितने लोगों का भोजन बनेगा”. जवाब के अनुसार अपने अनुभव से अनाज (चावल) नापकर पकने रख देते. साथ में बीड़ी,सिगरेट,सुपारी,चीनी.,सोंप सब बंटता रहता था. तांबे,कांसे के तौले में लकड़ी की आंच में बने दाल-भात के स्वाद का कोई जबाव नही होता. लोगों को (धाद)आवाज लगाईं जाती. सब लोग लौर (पंक्ति) में बैठकर एक साथ भोजन करते. कुछ लोग (चोखा) धोती पहनकर खाते. उनके लिए आम लोगों से अलग पंक्ति होती थी और उन्हें केवल पंडित जी ही भोजन परोसा करते थे और अगर किसी को भी भोजन बनने के बाद बर्तन या चूल्हे को छूने की तो बिलकुल मनाही ही होती थी. सब साथ बैठकर भोजन करते. बर्तन धोते और जहाँ जहाँ से एकत्रित किये थे. वहीं पर वापस पहुंचाते (इस पूरी व्यवस्था को एक तरीके का लंगर कह सकते हैं.जहाँ सब मिलजुलकर सहयोग से काम चलता है) और शाम को महिलाएं ढोलक की थपकियों के बीच चाय नमकीन के साथ नाच गाना करती थीं.
नामकरण का दिन आ गया था. मैं भी स्नान, ध्यान, नाश्ता कर महेश दा के घर पहुंच गया सोचा की काम में हाथ बटाउंगा. पहुंचकर मैंने महेश दा से पूछा “अभी कोई नहीं आया क्या. इतना सारा काम कैसे होगा. कैसे और कब बनेगा भोजन”. तभी महेश दा ने सामने से आते टाटा मैंजिक की तरफ इशारा करते हुए कहा “लो सब आ गये”. मैंने पूछा “मैजिक में”. उसने कहा “हां”. तभी मैजिक रुकी. कुछ लोग उतरे और सामान उतारने लगे. महेश दा ने गर्व से कहा “पाण्डेय जी को ठेका दिया है. इस एरिया के सबसे महंगे और फेमस टैंट हाउस है उनका और खाना भी लाजवाब बनाते हैं”. पाण्डेय जी अपने पुराने जानकार थे. दिल्ली में किसी रेस्टोरेंट में काम करते थे और अब उन्होंने टेंट हाउस खोल लिया थ
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…