कला साहित्य

पहाड़ की ठण्ड में चाय की चुस्की

बचपन से ही में मुझे शिकार खेलने का बहुत शौक था जो किशोरावस्था तक आते-आते और भी चरम सीमा पर चढ़ गया. शहर से जब भी गांव आना होता था मैं दूसरे दिन बंदूक उठा कर शिकार की तलाश में जंगल की ओर निकल जाया करता था. भले ही मैं बहुत अच्छा निशानेबाज शिकारी नहीं था, परंतु शिकार के प्रति मेरे मन मे उत्सुकता हर समय बनी रहती थी. (Sipping Tea Mountain)

गांव से थोड़ी दूरी पर ज़हां पर बस रुका करती थी.  सड़क के किनारे पर एक छोटी सी चाय की दुकान थी, जहां पर यात्रीगण बस से उतर कर सीधे उस चाय के दुकान पर बैठ जाया करते थे, तथा चाय की चुस्की का भरपूर मजा लेते थे. मैं चाय का शौकीन नहीं था, इसलिए कभी उस चाय के दुकान पर बैठता ही नही था. जब भी लोग चाय पी कर उस  दुकान से बाहर निकलते थे,चाय के स्वाद की खूब तारीफ किया करते थे और साथ में चाय बनाने वाली उस गोरख्यांण मामी (नेपाली महिला) के सुंदरता की भी जो दूरदराज नेपाल से आकर अपनी कड़ी मेहनत से उस दुकान को चला रही थी. पहाड़ी बोली में “मामा और मामी” किसी अनजान रिश्ते मे संबोधन के लिए खूब प्रयोग किया जाता है. जैसे पहाड़ी मामा, गौरख्या मामा, गोरख्यांण मामी आदि आदि. वह महिला मुझे छोड़कर सभी लोगों से बखूबी परिचित थी. उसकी कनखंनियां निगाहें  प्रत्येक उस बस से उतरते हुए यात्री पर बनी रहती थी,जो उसके दुकान की चाय पी कर उसके आमदनी के मुनाफे को बढ़ाने मे चाय की चुस्की का भरपूर आनंद लेकर अपनी थकान को दूर करते थे.

सर्दी का मौसम था मैं इस बार इस उद्देश्य से गांव आया था कि शायद पहाड़ों पर खूब बर्फबारी हो और मुझे शिकार खेलने का भरपूर मौका मिले. जैसे ही मैं बस से उतरा सभी यात्री लोग चाय के दुकान पर चाय की गरमा गरम चुस्की लेने के लिए बैठ गए. मौसम भी धीरे-धीरे करवट बदल रहा था. हल्की-हल्की ठिठुरन बढ़ने लगी थी. मैं अपने दोनों हाथों की मुट्ठियों को बंद करके अपने मुंह से निकलती हुई गर्म सांसों की भाप से अपने हाथों को सेकते हुए चाय की दुकान के बाहर ही बैठ गया . मुझे बस इस बात का इंतजार था कि कब लोग चाय पी कर बाहर निकले ताकि हम सब लोग एक साथ गांव का शेष रास्ता सुगमता से पैदल ही तय करें तथा वक्त पर अपने गांव पहुंच जाएं.

जैसे ही सब लोग चाय पी कर बाहर निकले वह नेपाली महिला (गोरख्याण मामी) भी खिलखिलाती हुई बिंदास हंसी के साथ दुकान के बाहर आ गई. गोरी रंगत पर वह अपनी नेपाली पोशाक में दूधिया रंग की कपासी गुनु (साड़ी) तथा लाल अंगिंया पहने हुए थी. जिसे चोली फारिया या “गन्यो चोलो” भी कहते हैं. ‌दाहिने कंधे पर पड़े उसके अंग वस्त्र का एक सिरा उसके धोती से लगा था‌.  गुनु ( साड़ी) नेपाल में फैशन की दुनिया मे बहुत लोकप्रिय है. गोल मुंह चपटी सी नाक तथा गले में मोतियों की मोटी सी माला पहने हुए कुछ देर तक वह मुझे एक टकटकी सी निगाह डाल कर देखने लगी शायद उसकी नजर में, मैं अजीबो गरीब इंसान था जो ऐसी ठंड में भी उसके हाथ की चाय के स्वाद से वंचित हो रहा था. मेरा दृष्टिकोण भी उसके प्रति ठीक ठाक नहीं था. ना जाने मैं क्यों उससे शंकित सा रहता था. मैंने नेपाल की गरीबी के कारण वहां के महिलाओं को देह व्यापार मे संलिप्तता के विषय में बहुत सुना था जो छोटे- छोट होटलों की आड़ में पर्यटकों को लुभा कर अपने जीवन जिजीविषा का गुजारा करती है. कई महिलाएं इस व्यापार में पर्यटकों के अमानवीय अत्याचारों की शिकार भी होती है‌. मेरे मन में कई प्रकार के सवाल भी उभर रहे थे कि मेरे क्षेत्र के नौजवान कहीं गांजा भांग ड्रग्स और वेश्यावृत्ति के शिकार में बर्बाद ना हो जाएं. खैर सभी लोगों के मुंह से गोरख्याण मामी के किस्से सुनते सुनते मैं अपने घर पहुंचा तथा रात्रि भोजन करके आराम से गहरी नींद में सो गया.

 प्रातःकाल जब नींद खुली तो देखा चारों तरफ प्रकृति जैसे दूध से नहा हुई सफेद चांदी की चादर लपेट कर अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थी. पेड़ों की बड़ी-बड़ी शाखाएं बर्फ से लदी हुई थी. आज शिकार खेलने का सबसे उत्तम मौसम था. मैं अपने गांव के एक मित्र के साथ शिकार पर जाने के लिए तैयार होने लगा. मैंने अपनी बंदूक को साफ किया तथा पांव में खुर्से (बर्फ में पहनने वाले जूते) झंगेंल  (ऊन का चूड़ीदार पजामा) तथा बदन पर उन का चोड़ा पहनते हुए सिर पर मंकी कैप भी पहन  लिया तथा मित्र के साथ जंगल की ओर निकल पड़ा. मुझे बर्फ के साथ खेलने तथा चलने में बहुत आनंद आ रह था. आगे देवदार तथा बान का घना जंगल था. हम जंगली मुर्गों की तलाश में थे, जो अक्सर बान के पेड़ों पर बैठा करते थे. लेकिन पेड़ों पर बहुत सारे बंदर शोर मचा रहे थे जिसकी वजह से जंगली मुर्गे उड़कर काफी दूर चले गए थे. शाम का पहर होने वाला था हम थकान एवं ठंड के कारण लथपथ हो चुके थे तथा पेट में भूख भी लग रही थी. हम जंगल से जब थोड़े बाहर निकले तो सामने एक सेब का बगीचा था तथा बगीचे के किनारे पर एक छोटी सी कुटिया नजर आने लगी. जिसके अंदर से धुंआ निकल रहा था. हमें लगा शायद यहां कोई  इंसान रहता है. हमें भी थोड़ी आग सेंकने को मिलेगी.

जैसे ही हम कुटिया के नजदीक पहुंचे हमारी आवाज सुनकर कुटिया से एक महिला बाहर निकली तथा कहने लगी’ “कौन है शाहब जी आप”? ‘हम एकदम चौंक गये’ अरे यह तो वही गोरख्याण मामी है, जिसकी सड़क के ऊपर चाय की दुकान है. इससे पहले कि हम कुछ बोलते उसने तुरंत दूसरा प्रश्न फिर पूछ डाला.  “किस गांव के लोग है आप ? शायद आप शिकार की तलाश में आएं होंगे. ” अंदर आ जाइए ठंड लग गई होगी” थोड़ी आग सेक लो. मै असमंजस्य में था कि अंदर जाऊं या न जाऊं. फिर भी हमने तुरंत अंदर जाने का फैसला कर लिया. हमने अपनी बंदूकों को बाहर ही खूंटे पर टांग दिया तथा कुटिया के अंदर प्रवेश किया. उसने कुटिया के अंदर देवदार की सूखी लकड़ी से अंगीठी में आग जला रखी थी. आग खूब जल रही थी हम भी हाथ पांव सेकने लगे. गोरख्याण मामी अपने चूल्हे के पास बैठ गई. मैं मन ही मन कुटिया का मुआयना कर रहा था. कुटिया के अंदर दो कक्ष थे एक में शयनकक्ष तथा दूसरे कक्ष में आंगतुक के लिए बैठक बनी थी. अचानक मुझे कुटिया के शयन कक्ष से कुछ खिलखीलाने की आवाजें आने लगी. मेरा शक ओर गहराने लगा. शायद कोई तो है जिसको गोरख्यांण मामी ने अंदर छुपा रखा है. मैंने बेझिझक होकर गोरख्यांण मामी से पूछा, “अंदर कौन है? उसने निश्छलता से उत्तर दिया, “बच्चे हैं शाहब जी. अरे कांछी,ओर मांछीं, बहार आ जाओ,, “उसने धीरे से आवाज लगाई,. अंदर से दो बच्चो के साथ एक कुत्ते का पिल्ला भी बहार आ गया.  दोनों बच्चे कुत्ते के साथ खूब मस्तियां कर रहे थे. जिसको प्यार से वह डब्बू बुला रहे थे. बच्चे हमको नमस्ते करके मधुर मुस्कान के साथ छोटी-छोटी आंखों से निहारने लगे, मैंने भी अपनी मुस्कान उनके तरफ बिखेरी दी.

 कुछ ही मिनटों में गोरख्याण मामी ने हमारे आगे चाय और पकौड़े परोस  दिए. मैंने अपना मंकी कैप उतार कर अलग रख दिया था. गोरख्याण मामी ने मुझे तुरंत पहचान लिया. मेरे चेहरे के भाव को भांपते हुए वह कहने लगी, “शाहब जी, आप तो चाय पीते नहीं हो, मगर आज ठंड बहुत है, आज आपको पीनी पड़ेगी. उसके चेहरे पर आदर का भाव तथा मंद मुस्कान थी. चाय और पकोड़े को देखकर मेरे चेहरे पर लालिमा आने लगी.  मैंने जिज्ञासा वंश पूछा” आपको कैसे पता कि मैं चाय नहीं पीता हूं.?

“शाहब जी, जब भी आप गांव आते हैं मेरे दुकान के बाहर ही बैठ जाते हैं. इसलिए मुझे पता है कि आप चाय नहीं पीते हैं. आज बर्फ बहुत गिर गई है, सड़क पर मेरी चाय की दुकान आज बंद है. क्योंकि आज शहर से कोई बस नहीं आयेगी. “मैंने जानकारी हेतु अपने अंदाज से पूछा”  क्या इस कुटिया में कोई और भी रहता है? सड़क से इतनी दूर आपने बगीचे में कुटिया क्यों बनाई है?

उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया.

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 “शाहब जी, यह बगीचा ठेकेदार का है. मेरा पति इसकी रखवाली करता है जो कल कुछ राशन के लिए शहर गया हुआ है. “अच्छा ! मैंने धीरे से गर्म गिलास को ओंठों पर रख कर लंबी चाय की चुस्की ली‌.  वाह ! “चाय तो वास्तव में बहुत कड़क और स्वादिष्ट है.  तुलसी और अदरक की खुशबू के साथ मिश्री की मिठास से जहन में भरपूर ताजगी मिल रही थी तथा भूख लगने कारण मैं सीधा प्याज के पकौड़ों के ऊपर टूट पड़ा. इतने स्वादिष्ट पकौड़े तथा चाय का आनंद शायद ही मैंने कभी शहरों में लिया होगा.

“उसने प्रशंसा की फिराक से पूछा”

‘कैशी लगी शाहब जी मेरे हाथ की चाय ?

मैंने भी तारीफ के पुल बांधते हुए उत्तर दिया. बहुत ही खुशबूदार और स्वादिष्ट है.  “ना जाने, मैं आपके हाथ की चाय से क्यों वंचित था. 

शाहब जी, अब तो आप मेरे चाय की दुकान पर बैठोगे ना, “क्योंकि जो एक बार मेरे हाथ की चाय पी लेता है, वह मेरे चाय के स्वाद का मुरीद बन जाता है. मैंने सिर हिलाते हुए कहा”

“हां आपके हाथ की चाय में जादू तो वास्तव में है. ” उसकी आंखों में विचित्र सी चमक थी. “मैं इस उधेड़बुन में था कि शायद वह मुझे आकर्षित कर रही है. मैंने चाय की अदायगी के लिए अपनी जेब टटोलनी प्रारंभ की. “शाहब जी, परेशान होने की जरूरत नहीं है. पैईसा हमारी भूख नहीं हमारी जरूरत है. घर में आए मेहमान से हम कोई पैईसा नहीं लेते हैं. आज आप हमारे मेहमान हो.

“शाहब जी, आप पड़े लिखे इंसान लगते हो, आप मुझे गलत ना समझे.”

हमारे दो बच्चे हैं. पढ़ा लिखा कर हम इनको फोज में भर्ती करवाना चाहते हैं. इसीलिए दिन भर मैं चाय की दुकान पर बैठती हूं. ताकि मेहनत और ईमानदारी से पईसा कमा कर कुछ समय बाद बच्चों को शहर में पढ़ाने के लिए भेज सकू. मेरा पति बगीचे में काम करता है. ओर मैं चाय की दुकान पर. हमारा शहर में जमीन खरीदने का विचार भी है. इसलिए हम रात दिन मेहनत करते हैं. दुकानदारी चलाने के लिए व्यवहार का होना बहुत जरूरी है. मेरा इस इलाके में बहुत व्यवहार है. सब लोग मेरे दुकान की चाय पीते हैं. सब लोग मुझे गोरख्यांण मामी कहकर बुलाते भी है. “इस बात को कहते हुए उसकी नजरें आत्मसम्मान से भरी थी.

मेरे सारे भ्रम रेत के इमारत की तरह ढह गए. जैसे धुआं कोई इश्क का आग जलकर राख हो जाता है. वास्तव में जिंदगी एक संघर्ष है, और संघर्ष से ही मंजिल हासिल होती है. जो लोग खाली बैठकर अपने मनोरथ के घोड़ों को दौड़ाते हैं उनके सपने कभी साकार नहीं होते है. अपने अरमानों और सपनों को पूरा करने के लिए इंसान को संघर्ष के चाय का प्याला पीना ही पड़ता है. स्वाभिमान व त्याग की भावना से किया गया हर काम किसी के दिल में आपके लिए आत्मसम्मान को बढ़ा सकता है. साथ ही बुरा वक्त अपने व पराए की सही पहचान भी करा देता है.

स्थानीय नेपाली आम तौर पर ग्रामीण लोग हैं जो चाय, कॉफी या रात के खाने के लिए अपने घरों में पर्यटकों का स्वागत करते हैं. नेपाली सांस्कृतिक रूप से गर्म, मेहमाननवाज और स्नेही मेजबान हैं जो अपने दिल को अपने सिर से ऊपर रख कर मेहमानों की खातिरदारी करते हैं. गोरख्यांण मामी के विचार सुनकर तथा उसकी प्रतिभा की झलक देखकर मुझे ये समझ आया कि वह एक मेहनती ओर सशक्त महिला है जो अपने परिवार के जिम्मेवारी के प्रति जागरूक तथा समर्पित है.

फकीरा सिंह चौहान स्नेही वर्तमान में भारत सरकार रक्षा मंत्रालय के विभाग ए. एफ. एम. एस.डी लखनऊ में कार्यरत है. इनकी कहानियां संस्मरण आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं.

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