भारत के भावी संवैधानिक स्वरूप पर रिपोर्ट हेतु 1927 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन की नियुक्ति की थी. इस आयोग में भारतीयों को न लिये जाने का कड़ा विरोध किया गया. 1921 में असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद भारतीय जन जागरण और नेतृत्व की जो ऊर्जा चुनावों के संचालन तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों को नियंत्रित करने में व्यय हो रही थी, उसे फिर ब्रिटिश शासन के विरोध तथा राष्ट्रीय संग्राम को पुनः सुसंगठित करने में लगाने का मौका आया. साइमन कमीशन की घोषणा के तत्काल पश्चात ही अलीगढ़ में उत्तर प्रदेश कांग्रेस का 21 वाँ अधिवेशन हुआ, जिसके सभापति गोविन्द बल्लभ पंत बनाये गये थे. 12 जून 1928 को अलमोड़ा में बारदोली दिवस मनाया गया था.
साइमन कमीशन के बहिष्कार के आह्वान ने जैसे पूरे देश में एक नया उत्साह ला दिया था. संयुक्त प्रांत की काउन्सिल में साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रस्ताव मुकुन्दीलाल ने रखा था और बदरी दत्त पाण्डे ने इसका अनुमोदन किया था. गोविन्द बल्लभ पंत का व्याख्यान सबसे अंत में हुआ, जिसमें उन्होंने कहा कि वे साइमन की सारी योजना के विरोधी हैं और सिर्फ स्वराज्य चाहते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि ब्रिटिश समुदाय के भीतर जितने स्वायत्तशासी देश हैं उनके इतिहास से भी सिद्ध होता है कि संवैधानिक कठिनाइयों का एकमात्र हल उसी देश में हो सकता है जिस देश के लिए वह संविधान तैयार किया गया है. साइमन कमीशन के पक्ष में भी काउन्सिल में अनेक सदस्य थे अतः इस प्रस्ताव के पक्ष में 56 तथा विपक्ष में 55 मत पड़े.
अक्टूबर 1928 के अंतिम सप्ताह में जब कमीशन देश में पहुँचा तो सर्वत्र इसका विरोध हुआ. हड़तालें हुयी और बहिष्कार कार्य बहुत स्पष्ट तरीके से सामने आया. 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में कमीशन का जबर्दस्त विरोध हुआ. लाला लाजपतराय को पुलिस की लाठियों से गंभीर चोटें आयी और फिर उनकी मृत्यु का कारण यही कातिलाना चोटें बनी. इसी तरह लखनऊ में 29 नवम्बर 18 को जवाहरलाल के नेतृत्व में 16 व्यक्तियों की एक टोली ने बहिष्कार आयोजन किया. नेहरू के पीछे गोविन्द बल्लभ पंत थे. इस टोली पर घुड़सवार पुलिस वालों ने निर्ममता पूर्वक डंडों से प्रहार किया. यह सर्वविदित है कि जवाहरलाल को बचाने में गोविन्द बल्लभ पंत पर जबर्दस्त लाठी प्रहार हुआ. इस प्रहार के शारीरिक दुष्परिणाम पंत को शेष जीवन भर झेलने पड़े द्य वे बहुत दिनों तक तो कमर ही सीधी नहीं कर सके
इधर हरगोविन्द पंत के नेतृत्व में सल्ट में साइमन कमीशन के विरोध में वृहत सभा हुई और हरगोविन्द पंत्त को गिरफ्तार किया गया. 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में जहाँ औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमीनियन स्टेट्स) के पक्षघरों की विजय हुई थी, वहीं साइमन कमीशन के विरोध के बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में जवाहर लाल के सभापतित्व में पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित हुआ. यह एक प्रकार से कांग्रेस के भीतर नेहरू-सुभाष जैसे युवाओं की जीत थी और इसका प्रत्यक्ष असर 1929-32 तक के आन्दोलनों में देखा जा सकता है. इसका एक कारण क्रान्तिकारी आन्दोलन का उभार तथा भगतसिंह और साथियों की लाहौर बम कांड और पी.सी. जोशी तथा साथियों की मेरठ काण्ड के बाद गिरफ्तारी भी था.
यद्यपि गाँधी 1915-16 में हरद्वार तथा देहरादून आ चुके थे और तत्कालीन कुछ प्रबुद्धों को आर्य समाज में गाँधी को सुनने का मौका मिला था. 1918 से उत्तराखण्ड के नेताः कार्यकर्ता उनसे लगातार आग्रह कर रहे थे, पर वे जून 1929 में ही कुमाऊँ पधार सके. यह यात्रा 13 जून को उनके हल्द्वानी पहुँचने से 4 जुलाय तक चली. जितना अन्तरंग उनका स्वागत हुआ उतनी ही सामाजिक-राजनैतिक ऊर्जा उनके आगमन से स्थानीय समाज में जनमी और फैली. उनके आगमन के समय नैनीताल में पहली बार महिलाएँ जुलूस में आईं और एक कम आन्दोलनकारी शहर में भिन्न और नया राजनैतिक जीवन शुरू हो गया थां.
गाँधी ताकुला में गोविन्द लाल साह के घर “मोती भवन’ में रहे. उनके साथ जवाहर लाल नेहरू, कृपलानी, जमनालाल बजाज, मीरा बहन आदि थे. 15 जून को नैनीताल में महिलाओं की सभा हुई. गाँधी के व्याख्यान से प्रभावित अनेक महिलाओं ने अपने गहने तत्काल उतार कर गाँधी की झोली में डाल दिये. नैनीताल से भवाली होकर गाँधी ताड़ीखेत और फिर रानीखेत गये. ताड़ीखेत में प्रेम विद्यालय सक्रियता का केन्द्र बन चुका था. तत्पश्चात वे अलमोड़ा गये. यहाँ से बोरारो होकर कौसानी गये और फिर कत्यूर होकर बागेश्वर. वे लगभग 14-15 दिन कौसानी-रहे, जहाँ उन्होंने गीता पर ‘अनासक्ति योग टीका’ लिखी. कौसानी में उन्हें हिमालय के सौन्दर्य का भी भान हुआ और बहुत से कवित्वपूर्ण आलेख उन्होंने लिखे.
1929 क़ा शेष समय जैसे अगले साल के संघर्ष की तैयारी में ही लग गया था. अलमोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, चमोली, श्रीनगर, पौड़ी, देहरादून, हल्द्वानी, कोटद्वार, लैन्सडौन तथा मसूरी सहित हर कस्बे में सविनय अवज्ञा आन्दोलन की तैयारी की जाती रही. सभाओं, जुलूसों और जनसम्पर्क से न सिर्फ नये संघर्ष की तैयारी हो रही थी बल्कि नये दमन के प्रतिकार की रणनीति भी बन रही थी. 23 जून सन् 1929 को देहरादून में भगतसिंह तथा साथियों की गिरफ्तारी के विरोध में सभा की गयी तथा इनके कार्यों की सराहना की गयी. 1928 के बाद काश्तकारों की दुर्दशा की ओर भी ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा था. इस हेतु 11 अक्टूबर 1928 को मोहन जोशी ने प्रान्तीय लाट मैलकम हैली से भेंटकर उनके सम्मुख काश्तकारों की समस्याएँ रखी. 1929 में हरगोविन्द पंत ने बागेश्वर में हल चलाकर न सिर्फ द्विजों द्वारा हल न चलाने की कुप्रथा को ध्वस्त करने का प्रयास किया बल्कि इससे प्रकारान्तर में अछूतोद्वार आन्दोलन को भी बल.
25 दिसम्बर 1929 को लाहौर में आयोजित कांग्रेस का 44 वाँ अधिवेशन सविनय अवज्ञा की पूर्व पीठिका की तरह था. इसमें आगामी चुनावों में प्रत्यक्ष या परोक्ष भाग लेने की मनाही भी की गई थी और काउन्सिल के वर्तमान स्थानों से त्यागपत्र देने का निर्णय भी हुआ था. तत्पश्चात गोविन्द बल्लभ पंत तथा हर गोविन्द पंत ने काउन्सिल की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया लेकिन मुकुन्दीलाल ने इस्तीफा नही दिया.
दूसरी ओर 26 जनवरी 1930 को राष्ट्रीय स्तर पर पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया और फिर जगह-जगह तिरंगा फहराया गया. देहरादून में फालतू लाइन में दो हजार स्त्री पुरुषों ने झंडा फहराया और झण्डा गीत गया. जिले में जगह-जगह झंडा रोहण हुआ. उत्तरायणी के मेले के मौके पर कार्यकर्ता बागेश्वर गये और यहाँ झण्डा रोहण किया गया. 1930 की एक महत्वपूर्ण घटना ’स्वाधीन प्रजा’ का प्रकाशन था. उत्तराखण्ड के प्रखर संग्रामी मोहन जोशी इसके संपादक थे और यह अत्यन्त आक्रामक लेकिन अल्पजीवी पत्र सिद्ध हुआ.पिछली कड़ी आजादी से पहले उत्तराखण्ड में वन आन्दोलन
मशहूर पर्यावरणविद और इतिहासकार प्रोफ़ेसर शेखर पाठक द्वारा सम्पादित सरफरोशी की तमन्ना के कुछ चुनिन्दा अंश.
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