कला साहित्य

प्रकट सुंदरता के भीतर कितने जलजले – आलोक धन्वा की कविता – 1

अपने भीतर घिरते जाने की कविताः आलोक धन्वा के बारे में

-शिवप्रसाद जोशी

अगर हिंदी कविता में इधर सबसे बेचैन और तड़प भरी रूह के पास जाना हो तो वो आलोक धन्वा के पास है. अपने दौर के तूफ़ानी कवि के पास जो आत्मिक बवंडर है वो शोर मचाता हुआ, उत्पात पैदा करता हुआ, इधर उधर लहराता हुआ नहीं है, ये बारिश की तरह कवि के पास जमा है. वहीं उसके भीतर बरसता है और वहीं गिर जाता है. मैं अपने भीतर घिरता जा रहा हूं कहने वाले आलोक धन्वा की कविता में इतनी चोटें दर्ज हुई हैं कि वो अब अपनी रचना के ऐसे पड़ाव पर आ गए हैं जहां बक़ौल ग़ालिब दर्द का हद से गुज़रना दवा हो जाना है.

बारिश एक राह है
स्त्री तक जाने की

बरसता हुआ पानी
बहता है
जीवित और मृत मनृष्यों के बीच

बारिश
एक तरह की रात है

आलोक धन्वा ने व्यथा और आंतरिक ताप को इस तरह से अपनी कविता में पिरो डाला है कि उनसे सृजित अनुभूतियां हमारी अपनी तड़प को धीमे धीमे सहलाती हुई आती हैं. या शायद हमारी बेचैनियों को तपाती हुई वो आग है जो आलोक धन्वा की कविता की बुनियादी पहचान है. वो इस आग का अब अलग इस्तेमाल कर रहे हैं. हिंदी कविता में आलोक धन्वा तड़पते झुलसते हुए और अपनी सौम्यता से समझौता न करते हुए  आते दिखते हैं.

दुनिया से मेरे जाने की बात
सामने आ रही है
ठंडी सादगी से

यह सब इसलिए
कि शरीर मेरा थोड़ा हिल गया है
मैं तैयार तो कतई नहीं हूँ
अभी मेरी उम्र ही क्या है!

इस उम्र में तो लोग
घोड़ों की सवारी सीखते हैं
तैर कर नदी पार करते हैं
पानी से भरा मशक
खींच लेते हैं कुएँ से बाहर!

इस उम्र में तो लोग
किसी नेक और कोमल स्त्री
के पीछे-पीछे रुसवाई उठाते हैं
फूलों से भरी डाल
झकझोर डालते हैं
उसके ऊपर!

इस आग को आलोक धन्वा ने प्रकृति में जा छिपाया है. वहीं से वो उससे उजाला करते हैं और वहीं से कुछ रोशनियां फूटती हैं और हमारे सामने इंसानों से इतर अन्य जीव जंतुओं, पक्षियों पेड़ पौधों और बारिशों और तूफ़ानों के कुछ नायाब नज़ारे आ पड़ते हैं. कोयल हो या बुलबुल पक्षियों को इतनी आत्मा की गहराई के निरीक्षण के ढंग से जाकर देखने और सुनने समझने की ये शायद अकेली मिसाल होगी जो हमें आलोक धन्वा की कविताओं में दिखाई देती है.

कोयल उस ऋतु को बचा
रही है
जिसे हम कम जानते हैं उससे!

कोयल की ही तरह बुलबुल के तरानों को भी आलोक धन्वा ने एक बड़े विलक्षण अनुभव में बदल दिया है.

इन घने पेड़ों में वह
भीतर ही भीतर
छोटी छोटी उड़ानें भरती है
घनी टहनियों के
हरे पत्तों से
खूब हरे पत्तों के
झीने अँधेरे में
एक ज़रा कड़े पत्ते पर
वह टिक लेती है

जहाँ जहाँ पत्ते हिलते हैं
तराने उस ओर से आते हैं
वह तबीयत से गा रही है
अपने नए कंठ से
सुर को गीला करते हुए
अपनी चोंच को पूरा खोल कर

जितना हम आदमी उसे
सुनते है
आसपास के पेड़ों के पक्षी
उसे सुनते हैं ज़्यादा

और हम जैसे इन कविताओं को पढ़ते हुए एक अनजानी शिनाख़्त से परे रहने वाली झूम से भर जाते हैं. आप ऐसी कविता को पढ़ते हुए आल्हाद से तबाह हो सकते हैं. क्योंकि यहां सिर्फ़ ऋंगारिक आल्हाद नहीं है यहां उस आल्हाद के भीतर आप उसकी संरचना में चले जाते हैं. ये चहलक़दमी ऐसी ही है जैसे बहुत सारे पेड़ हैं, पेड़ पौधे और बेतरतीबी है कांटे हैं झाड़ झंखाड़ है और आप इन सबसे बचते हुए लपक कर उस मौन तक पहुंचना चाहते हैं जो बुलबुल के तरानों के बीच पलभर के लिए आ गया है.

आलोक धन्वा परिंदों के ज़रिए एक सौंदर्यपरकता को ही नहीं देखते, वो एक व्याकुलता के बारे में भी बताते हैं, आखिरकार वो एक बहुत बड़ी विडंबना की ओर भी परिदों की उड़ान में शामिल हो जाते हैं.

कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए!…..

सिर्फ़ उड़ानें बची रह
जाती हैं….

क्या एक ऐसी
दुनिया आ रही है
जहाँ कवि और पक्षी
फिर आएंगे ही नहीं!

चार लाइनों के सबसे आख़िरी स्टैज़ा में पंद्रह शब्द हैं और सरल सी दिखती इस बुनावट में कैसा गहरा कोहराम और क्षोभ है. आलोक धन्वा इसी कोहराम के कवि हैं. वो अपनी प्रकट सुंदरता के भीतर कितने जलजले हैं, ये दिखाने वाली या छिपाए रखने वाली कविता है. वहां सन्नाटा है और वीरानी है और वहां सिर्फ़ उड़ानें बची रह जाती हैं.

(जारी) 

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago