बाबा विश्वनाथ है उत्तरकाशी में. आज जहां उत्तरकाशी शहर बसा है पहले वहां भागीरथी नदी उत्तर-वाहिनी थी. झाला गांव के पास ‘दैलि का डांडा’ या पर्वत खण्ड गिरने से नदी अवरुद्ध हो गयी. विशाल बांध बना और जब वह टूटा तो गंगा उत्तर से पूर्व की ओर प्रवाहित होने लगी. इसी पूरब के क्षेत्र में वरुणावत पर्वत के नीचे उत्तराभिमुख उत्तरकाशी नगर का बसाव हुआ.
कहा जाता है कि तिब्बती व्यापारी व्यापार के लिये आते थे और यहां विशाल बाजार लगता था. बाजार को हाट भी कहा जाता है. 1808 के यात्री के. रैपर ने देखा कि यहां समीपवर्ती बारह गांव के लोग अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को लाते तथा क्रय-विक्रय करते थे अतः बारागांव से यह बाड़ाहाट नाम पा गया. 1882 में एटकिन्सन ने भी इसे बाड़ाहाट कहा. एटकिन्सन के साथ ही राहुल सांकृत्यायन, पातीराम, ओकले और रतूड़ी ने बाड़ाहाट को ही प्राचीन पर्वताकार ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी माना है. गजेटियर में इनका स्थानीय नाम क्रमशः वाल्दी एवं स्यालम गाड़ है.
जमदाग्नि के पुत्र परशुराम ने जब अपना उग्र रुप त्यागा और प्रायश्चित हेतु वरुणा और भागीरथी नदी के संगम पर कठोर तप किया. अस्सी गंगा और वरुण गंगा के कारण बाड़ाहाट को सौम्यकाशी भी कहा जाता है. मणिकर्णिका घाट में ब्रह्मकुंड के समीप भागीरथी नदी की उत्तरी दिशा में प्रवाह से वरुणावत पर्वत का यह स्थल उत्तरकाशी कहलाया जिसे पहले सौम्य काशी कहा जाता था. केदारखंड (93/11) में वर्णित है :
सौम्या काशिती विख्याता गिरौ वे वारणावते.
असी च वरुणा चैव द्वेनद्यो पुण्य गोचरे.
लोक मान्यताओं के अनुसार पहले उत्तरकाशी में नाग सत्ता थी. जब भागीरथ गंगा अवतरण कर नंदन वन के समीप पहुंचे तब उन्होंने नागों को गंगा की स्तुति करते देखा. उन्हें यह शंका हुई कि कहीं वह गंगा को अपने यहां पाताल लोक न ले जायें. तब भगीरथ ने वासुकी राजा और गंगा दोनों की प्रार्थना अर्चना कर दोनों को प्रसन्न किया. आरंभ में नागपूजा ही शिवपूजा रही.
उत्तरकाशी में विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में ‘शक्ति मंदिर’ स्थित है. शक्ति मंदिर में एक त्रिशूल विद्यमान है जिसे शक्ति स्तंभ कहा जाता है. त्रिशूल की उंचाई 21 फीट है, उपर के भाग की मोटाई दो फीट तीन इंच व नीचे के भाग की मोटाई चार फीट एक इंच है. यह पीतल और अष्टधातु से बना है. केदारखंड के अनुसार यह यह देव व असुरों के मध्य हुए संघर्ष में शक्ति के रूप में आकाश से आई. त्रिशूल के लेख में तीन श्लोक हैं. पहले श्लोक में लिखा गया है कि प्रख्यात कीर्ति वाले गणेश्वर नामक नरेश ने हिमालय के शिखर के सदृश्य अति उच्च एवं दिव्य शिव मंदिर का निर्माण किया. मंत्रियों सहित अपनी राज्य लक्ष्मी को अणु-तुल्य समझ अपने प्रियजनों को सौंप दिया और स्वयं इंद्र की मित्रता की स्मृति से उत्सुक हो सुमेरु मंदिर ( कैलाश) को चला गया.
द्वितीय श्लोक में उत्कीर्ण है कि उसका पुत्र श्री गुह महाबलशाली विशाल नेत्र और दृढ़ वक्षस्थल वाला था, वह सौंदर्य में अनंग से, दान में कुबेर से तथा नीति और शास्त्र ज्ञान में वेदव्यास से बढ़-चढ़कर था. वह धार्मिक व्यक्तियों में अग्रणी, अति उदार चरित्र वाला था. उसी ने भगवान शंकर के आगे शत्रुओं के मनोरथ को विफल करने वाली इस शक्ति की स्थापना की है.
तीसरे श्लोक में यह अधिसूचित है कि जब तक भगवान सूर्य प्रातः अपनी रश्मियों से तम या अंधकार का हरण कर गगन से नक्षत्रों की चित्रचर्या को मिटाकर अपना बिम्बरुपी तिलक लगाते रहेंगे तब तक शत्रुओं का दमन करने वाले राजा गुह की कीर्ति सुस्थिर रहे.
यह शक्ति बाड़ाहाट के इतिहास में महत्वपूर्ण एवं रोमांचक है. लोकश्रुति है कि गोरखाकाल में गोरखा आक्रांताओं ने जब इस त्रिशूल को ले जाने के लिये इसकी खुदाई की तो इसका अंत ही नहीं मिला.
शक्ति मंदिर के सम्मुख है विश्वनाथ मंदिर जिसके प्रवेश द्वार के दांयी ओर हरिदत्त शर्मा द्वारा रचित संस्कृत में सुदर्शन शाह की प्रशस्ति ( 1914 संवत् ) खुदी है. विश्वनाथ मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार में एक ओर चतुर्भुजी गणेश की मूर्ति व दूसरी ओर उमा-महेश की की मूर्ति व चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा है. विश्वनाथ मंदिर के पूर्व में दत्तात्रेय मंदिर के पास परशुराम मंदिर है. केदारखंड (93/98) में कहा गया है कि इसी स्थान पर परशुराम को शिव ने फरसा प्रदान किया था.
विश्वनाथ महादेव के साथ ही उत्तरकाशी में शिवमंदिर के कालेश्वर, छलेश्वर, लक्षेश्वर व रुद्रेश्वर के साथ गंगनानी में है. उत्तराकाशी जिले में भटवाड़ी में भैलेश्वर, रैथला में भास्कर महादेव, धराली में कल्पकेदार, कमला उपत्यका में कमलेश्वर महादेव व बड़कोट तहसील के कोटीगांव में शिव पूजे जाते हैं. भाटियागांव में इन्हें बौरव देवता के नाम से जाना जाता है. यमुना उपत्यका थान, गैरग्राम व देवलसारी में, सड़ीडांडा के पास देवराजा, खरीदी के पास श्यालना व पुरोला तहसील के हनोल व आराकोट में महासू के रूप में शिव प्रतिष्ठित हैं. उत्तरकाशी की समीपवर्ती जलकुर उपत्यका में साल पट्टियों में सप्तमहादेव है जिन्हें ओणेश्वर, कोटेश्वर, थलकेश्वर, मातेश्वर, भेलेश्वर, भेटेश्वर व तामेश्वर महादेव की संज्ञा दी गई है.
शिव मंदिरों की गहनता देखते हुए उत्तरकाशी में शैव सम्प्रदाय की सुदृढ़ दशा का भान होता है. विश्वनाथ मंदिर में नाथ संप्रदाय के पुरी पुजारी हैं. कमलेश्वर से नौंवी शती का एकमुखी शिवलिंग, गुंदियाड़ गांव से बारहवीं शती का चतुर्मुखी शिवलिंग, गैरगांव और ढिकाल गांव से बारहवीं शती का व पौंटी गांव से नौंवी शती के शिव लिंगों का स्वरूप दर्शन होता है. इसी प्रकार गुंदियाड़ गांव में बारहवीं शती की, थानगांव में चौदहवीं शती की व देवलसारी में नौंवी शती की शिव प्रतिमाएं हैं. कमलेश्वर में ग्यारहवीं शती ई. की, गुन्दियाड़ गांव में बारहवीं शती ई. की, गौर ग्राम में बारहवीं शती ई., पोंटी में नौंवी शती ई. तथा बड़कोट में चौदहवीं शती ईसवी व थानगाँव में सातवीं शती की उमा-महेश की प्रतिमाएं मौजूद हैं. थानगांव में चतुर्भुजी शिव की सातवीं शती की प्रतिमा है.
भटवाड़ी के भास्करेश्वर मंदिर, पुरोला के कमलेश्वर महादेव और उत्तरकाशी शहर के मध्य विश्वनाथ मंदिर में षडरात्री भी संपन्न होती है जिसमें स्त्रियाँ विशेषतः संतान प्राप्ति हेतु छः दिनों का उपवास कर शिव की आराधना करती हैं. फागुन की शिवरात्रि को कमलेश्वर महादेव में महाशिवरात्रि (Mahashivratri) मेला लगता है.
आस्थावान को शिव दर्शन के अपार आनन्द की अनुभूति होती है उत्तरकाशी में.
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Bahut hi Ramnik jagah Hi , mujhe yaha rahne ka sobhagya Mila, bada aabhari Hu Bhagwan Shiv ka.