शैलेश मटियानी की कहानी ‘लाटी’

लाटी अपने वरुण विलाप की मर्मवेधी चीत्कारों से इर्दगिर्द जुटे लोगों को ऐसे झकझोर रही थी, जैसे कोई अचानक बाढ़ पर आई नदी अपने प्रचण्ड प्रवाह से दोनों किनारे खड़ी फसलों को झकझोर रही हो. उसने गूंगे कण्ठ का आतनाद लोगों में एक ऐसी अनुगूंज भरता चला जा रहा था, जिससे वे अब जल्दी ही मुक्त हो जाना चाहते थे और ऐसा सिर्फ तभी सम्भव था, जब लाटी अपना चीत्कार थाम ले. मगर, औरों की उपस्थिति से एकदम बेखबर, अर्द्धविक्षिप्त सी उत्तमी लाटी, थमती ही नहीं थी. नदी के प्रचण्ड प्रवाह को झेलते किनारे वृक्षों की तरह, लोग अंदर ही अंदर ढहने को हो रहे थे और, ऐसे में ही, कुछ लोग यहाँ तक कहने लगे- लाटी को पकड़कर, मुंह में कपड़ा ठूंस देना चाहिए.
(Shailesh Matiyani Stories)

लाटी के विकट विलाप से सारे पड़ाव में हाहाकार सा मचा था और आवश्यक काम छोड़कर भी लोग उसके आस-पास भीड़ बढाते जा रहे थे.

अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बेरीनाग वाली सड़क पर का यह पड़ाव भैंसियाछाना कहलाता था, हालांकि व्यवहार में यह, भैसों की जगह, घोड़ों के ठहरने का स्थान ज्यादा था. पिथौरागढ़, बेरीनाग की तरफ जाते, या उस और से शहर की तरफ आते लट्टू व सवारी के घोड़ों की आमद यहाँ बनी रहती थी.

पड़ाव में कुल दस-बारह मकान थे. उनकी छतों पर सर्दियों को धूप तापने या बड़ियाँ डालने को एकत्र हुई औरतें उकाबो के झुण्ड सरीखी दिख रही थी. यहाँ चारों ओर के गांवों के रास्ते मिलते थे. यह चौबटिया भी कहलाता था और आज से पहले भी इस चौराहे को चीरती हुई न जाने कितनी अर्थियां ‘राम नाम सत्य है’ की समवेत पुकार के साथ गुजरती रही थी, मगर ऐसी विचित्र स्थिति इससे पहले कभी नहीं आई कि अर्थी गुजर जाने के लगभग दो घंटे बाद भी पड़ाव में इतनी भीड़ जुड़ी रहे और वह भी डिगरुवा जैसे क्षुद्र भिखारी और डाम कहे जाने वाले की अर्थी गुजरने पर.

सभी लोग अनुभव कर रहे थे कि लाटी के असामान्य किस्म के करुण विलाप ने ही डिगरुवा की मृत्यु को इतना महत्वपूर्ण बना दिया है कि एक मेला-सा जुट गया मालूम पड़ता है. अन्यथा अर्थी गुजरने पर सिर्फ इतनी सी सूचना के बाद ही सारे लोग अपने-अपने काम में जुट जाते कि डिगरराम मर गया. और इस सूचना से लोगों को कोई कष्ट नहीं होता बल्कि थोड़ी राहत ही अनुभव होती कि चलो एक हद दर्जे के झिंगाली और पलीत भिखारी से पिण्ड छूटा और दो चार लोगों को कुछ-कुछ दूसरे किस्म की भी खुशी हो सकती थी मगर डिगरुवा को मृत्यु से सम्भव हुई मुक्ति के सुख को उत्तमा लाटी ने एक वितृष्णा और खोज में बदल दिया था.

पति कैसा भी गया बीता हो, उसके मरने पर दुःख स्वाभाविक है और कातर होकर रोना भी मगर डिगरुवा जैस झिंगाली और काने भिखारी की मृत्यु पर उत्तमा लाटी अपने गूंगे गले से ही घंटों तक इतना करुण और विकट विलाप करती रहे जितना पतिव्रता ठकुरानियां और बहूरानियां भी नहीं. यह बात सभी को चुभ रही थी और लाटी का विलाप लोगों को अब एक कृत्रिम प्रदर्शन लगने लगा था.
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अपने पतोली गांव से पड़ाव के इस चौराहे तक, ढाई मील उत्तमा लाटी अर्थी के पीछे-पीछे चीत्कार करती चली आई और यहाँ से श्मशान की सड़क से पहले ही बिरादरों ने अर्थी नीचे उतार दी और बिरादरी के मुखिया ने लोगों को सुनाते हुए कहा था- यह दरिद्र लाटी रांडी महाराज, साक्षात् सती सावित्तरी जैसी मुर्दे के पीछे पड़ गई. कहीं चिता में फूद मरेगी, तो फिर पटवारी पेशकार हमारी पकड़-धकड़ शुरू करेंगे. अब या तो यह लाटी हमारा पीछा छोड़े या हम मुर्दे को कहीं नीचे खड्डे में फेंककर वापस चले जाएं.

लाटी ने गाँव बिरादरी के लोगों को आग लपलपाती सी आँखों से देखा जरुर लेकिन शायद डिगरुवा की अर्थी को खड्डे में गिरा दिए जाने की आशंका से, अर्थी से कुछ दूर ही थम गई और बाहें फैलाकर संकेत कर दिया कि अब अर्थी का पीछा नहीं करेगी. मगर अर्थी के आग बढने के कुछ ही देर बाद जो उसने बाहें फैला-फैलाकर हथेलिया से अपना माथा और धरती पीटते हुए दुबारा एक दिगतव्यापी विलाप शुरू किया, तो बस, तब से थमी नहीं.

आँखों से आंसू और ओठों से लार बहते रहने से उसकी कुरती का ऊपरी हिस्सा भीग गया था और लार के साथ-साथ उसके गूंगे गले तक पहुँचती हुई दृष्टियाँ कोस रही थी कि रांड को विलाप तो बहुत सूझ रहा है, मगर गले का काला चरेवा भी अभी नहीं तोड़ा. सदैव शांत प्रसन्न रहने वाली उत्तमा लाटी आज रेत में तड़पती मछली कि सी प्राणातक तड़फड़ाहट में दिखाई देने लगी थी, तो सभी को उससे एक वितृष्णा-सी होने लगी. होटलवाले रतनसिंह ने तो यहां तक कह दिया- यारो, इतना विलाप करने वाली औरत जो मिल जाए, तो किस ससुर का मन नहीं होगा मरने को.

बगल से बनारसी बुकसेलर बोल उठा था- अरे ठाकुर साहब, लाटी जसी जवान औरत का रुदन तो अर्थी पर लेटे मुर्दे को भी खड़ा कर दे.

बनारसी बहुत धीरे-धीरे ही बोला था, मगर फिर भी उसे लगा कि उसकी आवाज बहुत दूर-दूर तक गूंज गई है. उसने अपनी फरफराती पुस्तकों के पन्नों को दबाने के लिए एक दो पत्थर उठा लिए. उसे लगा कि इससे कही बहुत वजनदार पत्थर भी उसकी कांपती पसलियों के अंदर उघड़ती बेचनी का नहीं ढक पाएंगे. उसे लगातार यह बात याद आती गई कि दो साल पहले भी लाटी बहुत जोर-जोर से चीखी थी. तब, जब चावल देने के बहाने उसने लाटी को अपने कमरे मे बुला लिया और चावल लेने के लिए लाटी को एक कागज पकड़ा दिया था. बनारसी को आशा थी कि लाटी उस कागज में छपे चित्र के संकेतों को पहचानेगी, तो गंगी जिह्वा की असमथता को चीरकर, उसके चेहरे पर भी कुछ संकेतत उभर अवश्य आएंगे, मगर लाटी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और उसने कागज को पलटकर, चावल लेने के लिए फैला दिया था.
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बनारसी की आसक्ति के प्रति अस्वीकृति जताने को लाटी ने जो संकेत किया, उससे बनारसी कुढ गया था कि- रतन ठाकुर ठीक ही कहा करते है कि गूंगों की जीभ उनके हाथों मे हुआ करती है.

उत्तमा लाटी के निषेध के प्रति अपना गुस्सा जताने के लिए उसने दरवाजा बंद किया ही था कि लाटी, लगातार कई बार, इतने जोर-जोर से चीखी थी कि बनारसी ने घबराकर दरवाजा खोल दिया और उसके चावल फेंककर चले जाने के बाद, फिर दरवाजा बंद किया तो लगातार तीन दिन तक कमरे से बाहर नहीं निकला. इस आशंका से कि बाहर निकलते ही लोग यह न पूछने लगें कि तुम्हारे कमरे के अंदर लाटी क्यों चीख रही थी.

शुरू-शुरू में उसे ऐसा लगता रहा कि लोगों की भीड़ बाहर खड़ी दरवाजा खट-खटाने ही वाली है लेकिन पड़ाव की प्रवृत्ति के विपरीत यह विचित्र बात हुई कि किसी ने बाद में भी यह जिक्र तक नहीं किया कि लाटी चीखी भी थी.

बनारसी यह भी सोचता रहा था कि शायद लाटी नहीं चीखी, ख़ुद उसकी आत्मा ही चीखी होगी क्योंकि लाटी बाद में भी उसकी दुकान के पास बैठती और कभी-कभी नाचती भी रही थी. उसके प्रति किसी भी प्रकार के रोष की झलक उत्तमा लाटी में नहीं मिलती, मगर उस दिन के बाद लाटी को छेड़ने का साहस बनारसी कभी नहीं जुटा पाया. उसे लगता रहा, जिस प्रकार लाटी ने सचित्र कागज उलट दिया था, उसी तरह उसकी आत्मा को भी पलट सकती है. अपने अंदर चीखती लाटी से बनारसी बहुत डर गया था.

तब से आज ही बनारसी ने लाटी पर छोटा उछाला और आज भी लगा कि उसने अपने आप पर ही कीचड़ उछाली है. औसत गोरी, खूबसूरत और जवान उत्तमा लाटी में कुछ ऐसा था, जिससे उसका एक सम्मोहन सा बना रहता. पुजारी रामदत्त तो यहाँ तक कह देते कि-काने, कलूटे और पलीत डिगरराम के साथ उत्तमा लाटी को देखने पर मुझे शिव पार्वती का जोड़ा याद आने लगता.

दूसरे लोगों में इतनी श्रद्धा या भावुकता नहीं थी, मगर बोलने के बहाने हाथों से मौन संकेत करने वाले रतन ठाकुर ने भी अपनी हरकत खुद ही बंद कर दी थी और आग्रह करने पर, जब भी लाटी उनके आंगन में फुफुली फफै फफै फै ‘ की तान जैसी गुंजाते हुए नाचने लगती, रतन ठाकुर भी ठोक ऐसे ताली बजाते, जैसे रामदत पुजारी कीर्तन के समय बजाते थे. लाटी की शब्दहीन तान की गूंज कुछ ऐसी लगती, जैसे कोई तांबे की गडवी से किसी पत्थर की मूर्ति पर बहुत ऊँचाई से जलधार दे रहा हो. उसके सौन्दर्य के प्रति वासना की अपेक्षा करुणा और आध्यात्मिकता ही उन क्षणों में ज्यादा उमड़ती, जब वह अपनी आँखें मूंदकर नाचती ही चली जाती नाचती ही चली जाती.
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उसके गले में ‘गा-गो-गा-गो’ के सिवा और कोई नाद नहीं. जीभ को तलुए से सटाकर ‘थत्तै- थत्तै- थत्तै-थैल’ या ‘फफुली फफ फफ फै’ के सिवा और कोई शब्द वह उच्चार नहीं पाती, लेकिन उसके दरिद्रता में डूबे दिखाई पड़ने वाले जीवन में जाने कहाँ ऐसा अद्भुत क्या था, जो उसे, जब वह उमंग-तरंग में हो, एक अपूर्व अलौकिक देवी संगीत के से सम्मोहन में कर देता था.

उसकी उम्न यही कोई छबीस-सत्ताईस के आस-पास रही होगी. उसकी डिगरराम से शादी का इतिहास औसत से भी ज्यादा सामान्य था, लेकिन पुजारी रामदत्त के शब्दों में पिछले कुछ वर्ष उसमें ‘देवी तत्व’ के प्रकट होने के रहे. डिगरुवा को पहुंचाने और ले जाने को उसका आना शुरू हुआ. फिर धीरे-धीरे सुबह से संध्या तक साथ रहना भी. बाद में तो कभी-कभी यह अकेली भी चली आती. लोग पूछते, तो इशारों से बताती कि आज डिगरराम की तबीयत ठीक नहीं. धीरे-धीरे वह भैंसियाछाना पड़ाव का एक जरूरी अंग बन गई.

पहली बार उसका रूप प्रगट हुआ, जबकि वैसाखी की सैमदेव को जात्रा जा रही थी. ढोल दमामे और निशान लिये लोग हर वर्ष जात्रा पर निकलते. चौबटिया वाले पड़ाव पर की छाया में कुछ देर विश्राम करते, खाना चबैना निबटाते और इस बीच लोक संगीत की नाना प्रकार की झांकियां भी प्रस्तुत करते.

यह कोई तीन चार साल पहले की बात होगी जबकि जात्रा वालों में कोई देवी गीत प्रारम्भ किया ही था कि उत्तमी ने अपने रंगीन घाघरे के दोनों छोर हाथों में ले लिये और जब तक में लोग कुछ समझें, हंसें या छेड़-छाड़ करें, जाने कब वह वर्षा ऋतु का मोर होती चली गई. जैसे स्वप्न में जात्रा का आभास मिला हो उसे, अपने शादी के जोड़े में आई थी वह. उसने आकाश से उतरी परी की तरह का नाचना शुरू किया और स्वयं की सुधबुध भूलती, दूसरों की सुध-बुध भुलाती चली गई. कुल दस-पद्रह मिनट तक नाची होगी वह, लेकिन उसका वह नाचना इतना अप्रत्याशित और अकल्पित था कि सारे लोग अचम्भित ही रह गये.

जात्रा में के लोगों को भी जाने कब यही भ्रम हुआ कि लाटी में देवी आई है. उसके इर्दगिर्द ढोल दमामे बजाने वालों का घेरा पड़ गया . स्त्री-पुरुषों और बच्चों का मेला जुड़ गया और आरती की थाली घूमने लगी.

रामदत पुजारी जी को भी ‘माता माता, माता माता .’ करते, लाटी के नृत्य के प्रभा मण्डल के मृग की तरह नाचते उस दिन ही पहली बार देखा गया था और आज तक उनका यह भ्रम टूटा नहीं है.
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मेले-ठेले उत्सवों में भैंसियाछाना में एक कौतुक जैसा जुड़ता और लाटी उसमें जब नाचती, सारे वातावरण पर छा जाती.

उसमें एक विचित्र कला थी. नाचते-नाचते में ही वह जैसे सारे उपस्थितों को पार्थिवों में बदलती जाती और स्वयं उसके जैसे दिव्य पंख उगे हो.

सबके सामने-सामने ही वह सबसे भिन्न हुई जाती. डिगरराम, देवी की लात खाया हुआ सा, एक तरफ बैठा तालियां बजाता रहता. लाटी की उत्सवमयता में वह नितात अकिंचन दिखाई पड़ता. लाटी और उसमें सचमुच कुछ भी मेल नहीं था. लेकिन आज वही डिगरराम विगत हो गया है लाटी का महाक्रंदन जैसे सारी दिशाओं के बाँध तोड़ देना चाहता है. लाटी के इस चीत्कार में सिर्फ एक भीषणता ही नहीं-अकिंचन डिगरराम को सारी सृष्टि से ज्यादा महत्त्व दे रहे होने की सी चुनौती भी है.

तब भी यही होता कि जहाँ लाटी डिगरराम के साथ आती और भीख मांगने उसके साथ बैठती- लोगों को यह रोजमर्रा का धंधा लगता क्योंकि रोज वह नाचती नहीं थी. लाख आग्रह करने और पैसा का लालच देने पर भी. किन्हीं पर्वों पर ही उसमें नृत्य जागता. मगर जब-जब लाटी अकेले आती, लोग उसके प्रति संवेदनशील हो जाते. इस रहस्य को सिफ रामदत्त पुजारी ही जानते थे कि अकेले उत्तमी लाटी को देखकर ही उन्हें स्त्री कामना अनुभव होती है.

अर्थी, अब तक में जाने कितनी दूर निकल चुकी होगी. हालांकि अर्थी ले जाते लोगों के पांवों की धमक सामान्य से ज्यादा देर तक वातावरण में बनी रहती है. पहाड़ में ओझल होते कहाँ देर. यहाँ तो प्रकृति अनंत मुद्राओं में हुई. पलक झपकते सड़क नदी की तरह मुड़ी और बहा ले गई.

लाटी की बाढ अभी भी उतरी नहीं थी . बनारसी बुकसेलर को याद आया कि उस दिन भी लाटी डिगरराम के साथ ही आई थी, बनारसी को इस तृष्णा ने छा लिया था कि उत्तमा लाटी डिगरया काने के साथ नहीं, बल्कि उसके साथ ज्यादा शोभायमान लग सकती थी. मगर सिर्फ इस तृष्णा में जाति गंवा बैठने की आशंका भी कम नहीं थी और, शायद, उस दिन यह आशंका ही उतनी जोर से चीख उठी थी.

लगातार चीखती चली जाती लाटी को देखकर, आज बनारसी बुक्सलर को यही लग रहा था कि लाटी उस दिन भी चीखी अवश्य होगी. आज भी चीख रही है, मगर तब की और बाज की चीखों में एक अंतर है. पहले लाटी उसे सिर्फ अपने ही भीतर चीखती महसूस होती थी, आज सबके अंदर चीखती दिखाई पड़ती है. इतने सारे जो लोग विलाप करती लाटी में आस-पास घिर आए हैं, जैसे ये सभी अपने ही अंदर चीखते-चीखते लाटी के पास खींचे चले आए हों और अब इसी प्रतीक्षा में हैं कि उत्तमा लाटी चीखना बंद करे तो इन्हें भी छुटकारा मिले.

बनारसी सोच रहा था कि अपनी बेचैनी से मुक्ति पाने को औरों को भी चीखने से रोकना जरूरी है. लाटी को देखकर लगता है, जैसे वह सामूहिक आसक्ति और विरक्ति को अपने में केद्रीभूत करने की अलौकिक शक्ति रखती है. सिर्फ इसीलिए, इतने सारे लोग उसे चुप कराने के लिए शोर सा मचा रहे हैं और किसी को नहीं सूझ रहा कि उपाय क्या है. अन्यथा इसी पड़ाव पर बहुत से लोग मरे हैं और उनकी विधवाओं ने विलाप किया है, मगर किसी को चुप कराने के लिये ऐसा सामूहिक प्रयत्न तो कभी नहीं किया गया?

एक अजब आलम है. छतों, बरामदों और आंगनों मे खड़ी औरतें, लाटी के आस-पास जुटी मर्दों की भीड़. लाटी पर आवाजें कसी जा रही हैं, हाथों से तरह-तरह के संकेत किए जा रहे हैं. इतनी सारी आवाजॉन और संकेतों का विरोध सिर्फ लाटी के चीत्कार आर्तनाद की ध्वनि मात्र को लेकर नहीं, बल्कि उसमें निहित किसी अभेद्य अथ को लेकर ज्यादा आभासित होता है, लेकिन यह अर्थ है क्या? आखिर ऐसा कौन-सा अद्भुत रहस्य छिपा है लाटी ये इस अंतर्वेदी विलाप में, जो सबको समान रूप से जकड़े है.
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उस दिन सिर्फ चार पांच फुट भागने तक चीखी थी. आज ढाई मील तक चीखती आर्तनाद करती चली आई और अब भी वही क्रम है. इतने सारे लोगों की उत्तेजना और वितृष्णा का जैसे उत्तमा लाटी के लिए कोई मूल्य ही नहीं.

बनारसी बुकसेलर को लगा, लोगों के सामने, शायद अब सिर्फ दो ही रास्ते रह गए हैं- या तो लाटी के मुंह में कपड़ा ठूंस दें, या अपने कानों को बंद करते हुए, अपने-अपने ठिकाने लगें. बनारसी जानता है कि दोनों में से पहला रास्ता ही ज्यादा कारगर हो सकता है, क्योंकि लाटी का चीत्कार उसके अंग-अंग से फूटा पड़ रहा है.

किताबों की दुकान के आगे चौड़े पटरे पर फैलाई हुई सिनेमा-गीता की पुस्तिकाओं के पन्ने औरर आर्ट पेपर पर छपी अभिनेत्रियों तथा देवताओं की तस्वीरें तेज हवा से फरफराने लगी, तो बनारसी बुकसेलर को लगा, यह तेज हवा भी जैसे लाटी में से ही प्रकट हो रही है. वह एकाएक, मंत्रविद्धसा लाटी की ओर बढ गया. लोग गया अनुमान लगायेंगे, इसकी चिंता छोड़, उसने तेजी से आगे बढ़कर, लाटी की विलाप में ऊपर की ओर उठी बाहों को नीचे झुका लिया और खींचते हुए सीधे अपनी दुकान के पास ले आया.

लोगों को देखकर आश्चर्य हुआ कि लाटी ने कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप चौड़े तख्ते पर बैठ गई. बनारसी जरूर अब भी आशंकित था कि वह फिर चीत्कार न करने लगे. लाटी के बारे में सोचते-सोचते औरों की उपस्थिति को भूल गया. वह चाहता था, लाटी को सांत्वना देकर शांत करे. उसने यह जानते हुए भी कि लाटी बहरी नहीं अपने दोनों हाथो की उँगलियों को आपस में जोड़कर, पांच बार लाटी की ओर झुकाते हुए, डिगरराम की उम्र का बोध कराया. फिर एक उँगली से बाई आँख भींचकर, शेष को कोढिया की तरह सिकोड़कर उसकी कुरूपता और फिर, मुंह को बिचका-बिचकाकर, उसकी दरिद्रता का चित्र खींचा. इसके बाद लाटी के आंसू पोछ, हाथों से उसकी गीली कुरती का कालर ठीक करते हुए, काला चरेवा एक ही झटके में तोड़ दिया और चरेवा तोड़ने के साथ ही अपना मौन भी तोड़ बैठा- एकदम पलीत, दरिदर और हरामी ही तो था वह. मर गया तो तुझे मुक्ति ही तो मिली. तुझ जैसी जवान छोकरी उस अधेड़ काने के लिए यूं रो रोकर प्राण दे देगी अपने.

अचानक लोगों की उपस्थिति का ध्यान आते ही बनारसी को लगा कि जिस अवधि भर वह अपनी उँगलियों से बोलता रहा, लोगों की आँखें बराबर उसके चारों ओर भवरों की तरह मडराती रही हैं.

बनारसी को लगा, लाटी का काला चरेवा अपने हाथ से तोड़कर, जैसे उसने लाटी के अस्तित्व को अपने में समो लिया है. लोगों की दृष्टियां लाटी से हटकर, उसी पर केन्द्रित हो गई हैं और उन हिलते हाथों की उगलियाँ जीभ की तरह लपलपाती पूछ रही हैं- क्यों, बनारसी बुक्सेलर उस दिन तुम्हारे कमरे में से लाटी में चीखने की आवाजें क्यों आ रही थी. और आज भी यह लगातार जोरों से चीखती लाटी तुम्हारे थामते ही एकदम गूंगी बनकर, दुकान के तख्ते पर क्यों बैठ गई है?

क्या हुआ होगा? लाटी को जब उसने दिलासा देना चाहा कि यह अपने को अनाथ नहीं समझे, तो उस क्षण में कहीं अवचेतन में कोई आकांक्षा मुख उपाड़े मौजूद रही होगी.
(Shailesh Matiyani Stories)

क्या है कि सामान्य चित्रों से लेकर कलैंडर तक में स्त्रियों की ही प्रमुखता है. यह विस्तार अभिनेत्रियों से लेकर देवियों तक गया है. इन्हीं सब की कुछ ऐसी प्रतिच्छाया सी उतर गई अनुभव होती है अपने में, जो आज इस लाटी के महाक्रंदन में प्रतिविम्बित हो रही है. उसने लाटी को ध्यान से देखा. वह अब समाधि लगा चुकी भासित हो रही थी.

बनारसी बुकसेलर की ज्ञानेन्द्रियां ही नहीं, बल्कि कामेंद्रियाँ भी जैसे एक दम सुन पड़ गई हो. उसे लगा कि अब वह अपनी बेचैनी और घबराहट को सिर्फ वैसी ही चीखों के द्वारा व्यक्त कर सकता है, जिनमें सिर्फ ध्वनि हो, शब्द न हो. जिनमें सिर्फ अर्थ हो. उस एक क्षण में ही उसने अनुभव कर लिया कि लाटी को लोगों के बीच रुदन से मुक्ति दिलाने के बाद, वह स्वयं उपस्थिति में आ गया है. क्या लाटी इसी प्रतीक्षा में थी कि कोई उसको बांहों को झकझोरकर नीचे झुका दे और उसके अनवरत विलाप को आकाश की ओर उठने से रोक ले?

बनारसी बुकसेलर यहाँ के लिये प्रवासी है. वह पहाड़ का मूल निवासी नहीं. वह एकाएक लाटी की बाधा में घिर गया है. वह चाहता है कि या तो कोई उसे भी मुक्ति दिला दे और या उसकी रही सही चेतना को लाटी को बिठाने से बिखरी पुस्तिकाओं और तस्वीरों की तरह समेटकर, उसे कमरे में ले जाकर बंद कर दे.

यो देखो, तो यह लाटी ही इस समय मुक्तिदायिनी की-सी प्रशांत मुद्रा में दिखाई पड़ रही है, लेकिन यह लाटी उसे क्या मुक्त करेगी, जो उस काने कलूटे डिगरराम की मृत्यु पर अनत लगते-से विलाप का ही कोई उत्तर नहीं दे पा रही?

लोगों का दबाव चारों ओर से बढ़ता ही जा रहा है और प्रश्नवाचक सर्प जिहाएँ उसे डसने ही वाली हैं, यह सोचकर, बनारसी बुकसेलर की आत्मा काँप उठी और उसका सारा आक्रोश, सारा भय सिर्फ लाटी के सामने ही फल गया- भव सगमरमर की मूरत-जैसी खामोश क्यों बैठी है, ससुरी. बोल अरे रांड कुछ तो बोल कि अपने खसम के मरने पर तू क्यों ढाई मील तक मुर्दे के पीछे चुड़ैल जैसी चसी आई और क्यों तूने नौंटकी-सी भीड़ इकटठी कर ली है यहाँ   

आवेश में बनारसी बुकसेलर अपने हाथ से लाटी को झकझोरता जा रहा था, जैसे उसके झकझोरने से लाटी के हाथों की उगलियां फूट पड़ेंगी और उनसे लोगों की प्रश्नवाचक आंखों के लिए कोई शब्दहीन किन्तु इतना ही अपूर्ण उत्तर निकल आएगा. मगर लाटी ने सिर्फ बगल में उलटी पड़ी बालकृष्ण की तस्वीर को सुलटा कर लिया और बनारसी को बालक कृष्ण की तस्वीर दिखाने के बाद, आँखों को श्मशान-भूमि की दिशा में उठाया और कुछ क्षण उधर ही देखती रही. इसके बाद उसने बालकृष्ण के चित्र को उलटा कर चित्र वाला भाग, अपार अनुराग के साथ अपने अधखुले पेट पर लगा लिया और फिर चित्र को पेट पर से हटाकर, उसे गहरे प्रश्नवाचक ढंग से हवा में घुमाने के बाद, वह पहले से भी ज्यादा जोर से चीख उठी.
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शैलेश मटियानी

-काफल ट्री फाउंडेशन

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