भारत वर्ष के अन्तर्गत हिमालय क्षेत्र की अपनी विशिष्ट भौगोलिक बनावट होने के कारण यहाँ क्षेत्र देश के अन्य भागों से अपने आप में अपनी अलग ही पहचान बनाये हुए है. हिमालय के हिमाच्छादित उच्च शिखर सदानीरा नदियाँ हरे-भरे जंगल उच्च पादपीय घास के मैदान धार्मिक आस्था के तीर्थ स्थल पर्यटक स्थल के क्षेत्र में तो उतराखंड की अपनी अनूठी पहचान है, जैसे बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री. यमुनोत्री, आदिबद्री, चंद्रबंदनी, सुरकाण्ड, सेम मुखेम भी इन्ही में से एक प्रमुख सिद्धपीठ है. सेम मुखेम तीर्थ स्थल जनपद टिहरी गढ़वाल प्रखण्ड प्रतापनगर, पट्टी उपली रमोली के मुखेम गाँव में पड़ता है. पौराणिक स्थल सतरंजू समुद्र तल से 7000 हजार फीट की ऊंचाई पर अवस्थित है. (Sem Mukhem Temple New Tehri)
मेला मणभागी सौड में और मंदिर सतरंजू पर्वत के अति रमणीय स्थल पर स्थित है. जोकि मेला परिसर से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर की खड़ी चढाई पर स्थित है. मंदिर के निकट सप्त सेम अवस्थित लुका सेम, झुका सेम तलबला सेम अरुणीसेम, बरुणी ससेम, गुप्त सेम, प्रकटा सेम आदि रमणीय स्थल है जिनकी छटा देखते ही बनती है, इन स्थलों का मनमोहक दृश्य इतना सुहाना है कि यहाँ से पूर्व की ओर खड़े होने पर बांई ओर बंदर पूंछ श्रेणी श्रीकंठ, नीलकंठ, बुढाकेदार तथा दक्षिण की ओर नन्दा देवी दिखाई देती है. इस पौराणिक तीर्थ स्थल की मुख्य विशेषता यह की यहाँ से प्रभात का सूर्य उदय देखने योग्य है. यदि निकट भविष्य में इस पौराणिक प्राचीन स्थल का पर्यटन की दृष्टि से विकास हुआ तो यह स्थान प्रभाती सूर्य के लिए उतराखंड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत वर्ष के पर्यटकों को आकर्षित करेगा. प्रातः पौफटते ही प्रातः कालीन सूर्य जैसे ही नीलकंठ के पीछे से उदित होता है. उल्टे चांद की आकृति में स्वर्ण जैसा दृश्य दिखाई देता है, किंतु जैसे ही सूर्य का पूर्व गोला बर्फीली चोटियों से आगे बढ़ता है. यह नाजारा तुरंत ओझल हो जाता है. मणभागी सौड़ में प्रभात के समय के सूर्य उदय होते ही लगता है मानो की स्वर्ण चादर धीरे धीरे नीचे उत्तर रही है किंतु जैसे ही सूर्य की किरणें मणभागी सौड़ मेला स्थल पर पड़ती है स्वर्ण चादर धीरे धीरे गायब सी हो जाती हैं और फिर सूर्य सामान्य स्थलों जैसे दिखाई देने लगता है तलबला सेम की प्राकृतिक वनस्पति बांज बुरांश नैर थूनेर, अंयार,मौरू, खौरू रयाल के सुरम्य सघन पेड़ एवं रई तथा मुरीड़ा के वृक्षों से आच्छादित है. काकड़ धूराल बारहसिंगा शेर तथा लगूर गोणी तो इन वनसम्पदों में सदा उन्मुक्त रूप से विचरण करते हैं. इन्हीं जंगलों में सामान्य वनस्पतियों के आलवा नैर-थुनैर के बड़े बड़े वृक्ष विद्यामान है, जिनकी पत्तियाँ प्राकृतिक धूप के रूप में पूजा में प्रयुक्त की जाती है. इन पत्तियों की सुगंध आज के व्यापारिक धूपों से सर्वोत्तम है.
सतरंजू सेम पौराणिक ऐतिहासिक देव स्थल के साथ साथ प्राकृतिक नैसर्गिक सौन्दर्य से भरपूर एक सुरम्य धार्मिक पर्यटन स्थल है, जो पट्टी उपली रमोली प्रखण्ड प्रतापनगर जनपद टिहरी गढ़वाल में स्थित है. उत्तराखंड राज्य के चार धामों के समान ये पांचवें धाम के रूप में भक्तों के ह्दय में बसने वाला अति प्राचीन शेषनाग की सिद्धपीठ है, उत्तर द्वारिका के नाम से प्रसिद्ध गढ़पति गंगू रमोला की जन्मस्थली और श्री कृष्ण भगवान के शेषनाग अवतार की कर्मस्थली सेम मुखेम में नागराजा का भव्य धाम श्रद्धालुओं की आस्था और विश्वास का केंद्र है, जो प्रकृति की अपार वन सम्पदा व नयनाभिराम सौंदर्य से सुसज्जित अति रमणीय मन को विभोर कर देने वाला एक सुरम्य पौराणिक देवस्थान है.
पहाड़ के लहलहाते सीढ़ीदार खेतों, लता कुंज झाड़ियों को निहारते जैसे जैसे ऊपर की ओर चढ़ते जाओ वैसे वैसे अनमोल वन सम्पदा से लहराते नैर, थुनैर, बांज, बुरांश, रयाल, खौरू, मौरू, अंयार के सुरम्य पेड़ राई तथा मुरिड़ा के घने और सघन वृक्षों से आच्छादित घनघोर जंगल के बीच में नागराजा की तपस्थली सतरंजू सैण और क्रीड़ा स्थली मणभागी सौड़ में विद्यमान है. श्री कृष्ण नाग राजाओं के शत्रु थे, उन्हें परास्त कर वे देवभूमि उत्तराखंड की अनंत यात्रा के लिए निकल पड़े और शेषनाग के रूप में सेम पर्वत पर अवतरित हुए.
किंवदंती है कि महाभारत युद्ध के पश्चात भगवान श्री कृष्ण उत्तर द्वारिका सेम मुखेम में द्वापर युग में आए थे इस क्षेत्र में उस समय गढ़पती गंगू रमोला का शासन था श्री कृष्ण भगवान ने जब वीर भड़ गंगू रमोला से जगह मांगी “हे गंगू रमोला मैं जगह दियाला” अर्थात भगवान श्री कृष्ण गंगू रमोला से उनके राज्य में रहने की अनुमति मांग रहे थे. गंगू रमोला, रमोला वंश के 15वीं पीढ़ी का भड़ था. रैका और मौहल्या गढ़ उनके अधीन थे, वेश बदले भगवान कृष्ण उनसे नौ हाथ नौ बेथ जगह मांग रहे थे ऐसा गीतो एवं दन्त कथाओं में भी सुना जाता है. जगह देने से गंगू ने मना किया तो उन्होंने वेश बदले भगवान के समकक्ष शर्त रखी थी कि पहले आप भीमा राक्षसी का वध करोगे तदोपरांत जगह मिलेगी. उस कालखंड में गंगू के राज्य में भीमा नाम की राक्षसी का आंतक मचा रखा था इसलिए गंगू ने यह शर्त रखी,.फिर भगवान श्री कृष्ण ने राक्षसी का वध किया उन्हें जगह मिली. गंगू की कोई संतान भी नहीं थी तो भगवान ने उन्हें सिदवा-विदवा नाम के दो वरदानी पुत्र गंगू रमोल की पत्नि मैणवति के अनुरोध करने पर दिए.
कुछ दंत कथाओं के अनुसार जब गंगू रमोल ने जगह नहीं दी तो तब श्री कृष्ण भगवान कुछ समय के लिए डांडा नागराजा पौड़ी गढ़वाल में भी रहे. इस बीच गंगू रमोला का बहुत नुकसान हुआ. भैंस, गाय, बकरी आदि पशुधन, चैन की काफी हानि हुई तो एक दिन गंगू के सपने में भगवान आए और फिर गंगू को पश्चाताप हुआ तब उसने उन्हें सेम पर्वत पर जगह दी, जहाँ पर आज नागराजा भगवान का भव्य मन्दिर अवस्थित है.
संतरजू सैण व मणभागी सौड़ के मध्य भाग को सप्त सेम कहा जाता है, जिसमें तलबला सेम, ढ़गडूगी सेम, संतरजू सेम, आरूणी सेम, वारूणी सेम, गुप्त सेम, प्रकटा सेम आदि सप्त सेम भगवान नागराजा के दिव्य स्थल है. इन दिव्य स्थलों के अलावा सेम मुखेम में कई अन्य धार्मिक स्थल है जैसे ढ़गडून्ड़ी डली (पत्थर) गुप्ता सेम, डुण्डारांव, उल्टी उख्लियारी, घोड़ी के छापे आदि आलौकिक स्थल मंदिर के लगभग 4-5 किमी क्षेत्रान्तर्गत विद्यामान है. उक्त वर्णित बातें प्रमाणिक पुस्तकों में तो नहीं है लेकिन दंत कथाओं जागर पांवड़ो में जरूर मिलती है.
पहले श्रद्धालुओं को सेम मंदिर में काफी पैदल चलना पड़ता था, समय के साथ सुविधा भी बढी है. आज मणभागी सौड़ तक यातायात की सुविधा है और बमुश्किल डेढ़-दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है, सेम मुखेम में 19वीं शदी के प्रारंभ से प्रति तीसरे वर्ष 10-11 गते मंगसिर यानि 25-26 नवम्बर को हर तीसरे वर्ष भव्य त्रैवार्षिक मेले का आयोजन प्राचीन काल से होता आ रहा जो इस साल भी सुनिश्चित है. सेम मुखेम तीर्थटन की मुख्य विशेषता यह है कि यह अवशिष्ट फेंकने की बाजीगिरी से मुक्त दिखता है. यह पर जगह-जगह धारा पनियारा (जलाशय) से कलकलाता ठंडा पानी है तो बिसलरी कौन बोके. फिर इतनी दूर से पैदल चलकर जो भक्त यहाँ की चढ़ाई चढ़ता और उतराई में सहमा-सहमा चलता है वह कुरकुरे, आलू चिप्स क्यों कर भकोसे. उसे तो चाहिए, चना-गुड़, घर की बनी मठरी और आलू के पराठे. फिर हर सेम (चट्टी) विश्राम स्थल बन जाती है, जहाँ मणभागी सौड़ के तलहटी में स्थानीय प्रतिष्ठानों में बना सु-स्वाद भोजन मौजूद है. दूध, दही, मट्ठा, पहाड़ी शुद्ध घी से बना खाना, सुदूर पहाड़ के घर गाँव के रैवासी आपकी कुशलक्षेम की मंगलकामनाओं से मन आनन्दित अपनेपन का एहसास कराता है. रहने खाने की सुचारू व्यवस्था के लिए गढ़वाल मण्डल विकास निगम के विश्राम गृह के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर भी पर्याप्त व्यवस्थाएं उपलब्ध रहती है.
मेले में उतरकाशी, टिहरी, पौड़ी, चमोली, देहरादून, रुद्रप्रयाग आदि जनपदों के श्रद्धालु हजारों की संख्या में सम्मिलित होते हैं, कृष्ण भगवान सेम मुखेम में नाग रूप में पूजे और दर्शन शालिग्राम शिला के रूप में होते है (साथ ही मंदिर के मुख्य पुजारी (रावल) मुखेम गाँव के सेमवालों के परिजन हैं. विस्तृत जानकारी के लिए इंतजार कीजिये मेरी अप्रकाशित पुस्तक “पांजुला सेम मुखेम”). जिसकी प्रशंसा मानस खंड एवं बहुतेरे गढ़ इतिहासकारों एवं लेखकों ने उत्तराखण्ड यात्रा दर्शन में गंगू रमोला और श्री कृष्ण संवाद का वर्णन नागतीर्थ सेम मुखेम में यहाँ के कौतुक भरे आख्यानों में किया है.
यहाँ से होकर आए श्रद्धालुओं से प्रसाद ग्रहण करने के साथ ही प्रभु की अद्भुत कृपा का संयोग तो प्राप्त होता ही है उतनी ही लोमहर्षक लगी यहाँ भड़ गढ़पति गंगू रमोला व उनके वरदानी पुत्र सिदवा, विदवा की मूर्तियां. किंवदंती के द्वंद इत्यादि को ह्दयंगम करने के लिए सीधे चले आएं प्रसिद्ध डोबरा चांटी पुल के दीदार करते हुए, नागराजा के द्वार.
लेखक चंद्रवीर बिष्ट प्रताप नगर, टिहरी गढ़वाल में रहते हैं.
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