पहाड़ों में उसके सीमांत से जान -पहचान बढ़ाने के लिए की जाने वाली पद यात्राएं बहुत कुछ दे जातीं हैं. वह नयनाभिराम दृश्य तो होते ही हैं जो सबको रिझाते हैं. बार-बार आने का न्यूत दे जाते हैं. दूर-दूर तक फैले वन जिनसे टकरा कर आने वाली साफ हवा बताती है कि यहाँ तो है देवदार, पाइन और पहाड़ के धारे का पानी है जो अपने दोनों हाथों की कटोरी से गले के भीतर जाते ही बताता है कि आगे बंज्याणी है यानी बांज का जंगल. फिर कितनी लता, फल-फूल, धूरा, डांडा जो सिर्फ ऊँचाइयों में ही हासिल होते हैं. यही दे जाती हैं अनोखी तृप्ति.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir)
सुदूर की इस छवि को पाने के लिए बस अपने ही शरीर और छुपे साहस पर यकीन करना होता है.ये नहीं कि पेट्रोल भरा जहां चाहे घूम लो. घोड़ा डांडी जैसी सुविधा अभी यहाँ है भी नहीं. जहां तक वाहन पहुंचे इसी पर्यटन नाम की विलासिता ने कितना अवमूल्यन कर डाला है उसे कोई सन्दर्भ देना यहाँ जरुरी भी नहीं. अब जरा सोचिये चलते चलते मुहं सूख गया तो कोई चिंता नहीं प्यास बुझाने के पूरे इंतज़ाम प्रकृति के पास हैं. मेहमान नवाजी की कोई कमी नहीं. थके हारे खूब चल जब पस्त हुए तो हमें दिखता है एक छोटा सा घर. आगे आँगन. आँगन के कोने चूल्हा. चूल्हे में एक तरफ भड्डू चढ़ा है तो दूसरी ओर तौली. हाँ एक बड़ी कढ़ाई भी जो बड़ी थाली से ढकी है और उसमें से भाप उठ रही है. एक सग्गड़ में जाती रखी है नीचे लकड़ी मंद है धुवां छोड़ती. ऊपर चाय की कितली. अरे वाह. बस गुरु जी आज का भोज तो यही होगा. आमाजी रहती हैं यहाँ अपनी ब्वारीयों के साथ. हमारी जजमानी हुई. जब भी नागराजा के यहाँ आए बस यहीं टिके और आखिर में ऊपर भट्ट लोगों में जिनके बड़े परिवार देबता की कृपा पर पलते हैं. ये है टिहरी गढ़वाल के सीमांत इलाके की रमोली पट्टी जो उत्तरकाशी जिले को छूते निकलती है. और हम यही आए सेम मुखेम में नागराजा के दर्शन को.
यहाँ अपने पथ प्रदर्शक और ज्ञान विज्ञान ज्योतिष के पारंगत सेमवाल जी हैं जो बिजली विभाग में कार्यरत हैं और मेरे अच्छे साथी. ऐसा शख्स जो खूब पैदल घूमने के नाम पर ही उछल जाते हैं. उनने कहा अपन को भैजी छुट्टी की कोई प्रॉब्लम नहीं. सुना सुनी साथ में अपने कुछ चुस्त दुरुस्त सहपाठी व चेले भी जुट पडे. हमारा मुकाम बना उत्तरकाशी से सेम मुखेम. जहां जाने के लिए पार करना पड़ता है सेम का डांडा.
सेम का डांडा है रमोली पट्टी में जो प्रकृति की अपर वन सम्पदा व नयनाभिराम सौंदर्य से भरी हुई है. पहाड़ के लहलहाते हुए सीढ़ीदार खेत. लता कुञ्ज झाड़ियां और जैसे जैसे ऊपर की और चढ़ते जाओ थुनेर ,नेर ,बांज ,बुरांश और मोरु के घने और सघन वन विस्तृत दिखाई पड़ते हैं. सबसे बड़ी बात कि अवशिष्ट फेंकने की बाजीगरी से मुक्त दिखता है यह स्थान. जब जगह -जगह धारों में कलकलाता ठंडा पानी है तो बिसलेरी कौन बोके. फिर इतनी दूर पैदल चल जो यहाँ की चढ़ाई चढ़ता और उतार में सहमा सहमा चलता है वह कुरकुरे आलू चिप्स क्यों कर भकोसे उसे तो चाहिए चना-गुड़, घर की बनी मठरी और खजूरे. फिर हर चट्टी विश्राम स्थल बन जाती है जहां घर के आँगन और आस पास स्थानीय सुस्वादु भोजन मौजूद है, दूध दही और पहाड़ी घी भी.सुदूर पहाड़ का हर घर जैसे आपकी कुशल लेता कहाँ से आए पूछता.
आठ हजार फिट की ऊँचाई पर यहीं उत्तराखंड में शेषनाग का सिद्धपीठ और प्रसिद्ध नागतीर्थ सेम मुखेम है जिसकी प्रशंसा बहुत बार सुनी. डॉ के. के.शर्मा के केदारखंड पुराण, डॉ शिवा नन्द नौटियाल द्वारा अनुवादित केदारखंड, डॉ शिव प्रसाद नैथानी के उत्तराकांड के तीर्थ एवं मंदिर, शिवप्रसाद डबराल के उत्तराखंड यात्रा दर्शन, श्री सीता राम ममगई की प्रसिद्ध नागतीर्थ सेम मुखेम में यहाँ के कौतुक भरे आख्यानों के साथ यहाँ हो कर आए लोगों से प्रसाद पाने के साथ देवता की अद्भुत कृपा का संयोग तो प्राप्त हुआ ही उतनी ही लोमहर्षक लगीं यहाँ देवता और वीर पुरुषों द्वारा की गयी लीलाएं भी और उनका द्वन्द भी. बस समझिये कुछ छुट्टियां पड़ीं और मेरे घर को जाने वाली वाया आगराखाल या फिर मसूरी होते देहरादून, हरिद्वार सड़क बंद. अपने परिवार को तुरत फोन किया कि यहाँ तो सब रस्ते बंद हैं तो मुझे पहले ही आदेश हो गया कि ऐसे में कोई जरुरत नहीं आने की. उन्हें अखबार, टी वी ने सब पढ़ा -दिखा दिया था कि सड़कों के क्या हाल हैं और ये झसक भी हर पल डरा रही होगी कि मारुती ऐट हंड्रेड घुमाते कहीं धमक ही न जाये.सो देवता का आदेश मान हम चल निकले सेम मुखेम.
हमने लंबगाँव के रस्ते सेम मुखेम जाने की योजना अचानक ही बना डाली थी.बस दूसरे ही दिन सुबह सबेरे लंबगाँव की ओर रवाना हो गये. वहां अपना डिग्री कॉलेज तो हुआ ही सो संगी साथियों की कोई कमी नहीं. दूर दराज की जगहों में अचानक ही किसी के टपक पड़ने पर क्या जो कर दूं वाला भाव जो जाग जाता है,सो खा -पी आराम कर यहाँ के छोटे से बाजार में घूमे.यहाँ कई सरकारी कार्यालय हैं, बँगले, होटल अतिथि गृह और पर्यटक आवास गृह भी. रात लंब गाँव में बीती.
उत्तरकाशी के मुकाबले यहाँ ठंडा ज्यादा था पर हवा बड़ी साफ. बस बिजली बार बार गुल हो रही थी तो सेमवालजी अपने विभाग से जनरेटर ही मंगाने पर अड़ गये. बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया तो बिजली भी आई और विभाग का फोन भी कि आगे कहीं गाँव वाली लाइन पर पेड़ गिर गया था इसलिए शट डाउन लेना पड़ रहा है.
सामान्यतः सेम मुखेम पहुँचने के लिए उत्तरकाशी से चौरंगी खाल और फिर आगे लंबगाँव के रस्ते मोटर मार्ग से कोडार पहुँचा जाता है. जब हम लंबगाँव से उत्तरकाशी की ओर जाते हैं तो करीब दस कि. मी. कि दूरी पर यह कोडार नामक स्थान है और यहीं से सेम मंदिर की ओर जाने वाली सड़क बनी है. कोडार से मुखेम की दूरी अठारह-बीस कि. मी. व आगे मणबागी पांच कि. मी. है. यहाँ तक वाहन पहुँचने लगे हैं.हम लंब गाँव से करीब पंद्रह कि. मी. की पद यात्रा कर मणबागी पहुंचे और बड़ी आसानी से ये दूरी करीब सात-आठ घंटों में पूरी भी हो गयी. और हमें कुछ पता ही न चला. इसका सारा श्रेय हेमदा को है जो बड़े पढ़ाकू टाइप हैं और आंचलिक साहित्य व लोक संगीत के तो बड़े ही रसिया अब इनसे कबूतरी देवी की बात कर लो या गोपाल बाबू गोस्वामी की. शेरदा गिर्दा गौर्दा सबकी पूरी पड़ताल कर रखी. नैनीताल क्लब में जब आग लगी तो कैसे ये पकड़ वाले ट्रक से फरार हुए और जस्सू नेगी रह गया, बड़े रौद्र रस से सुना डालते हैं.अब क्या कहो त्रिपाठी जी, रुवाली जी, बटरोही जी से हिंदी पढ़ने के बाद नौकरी लगी तो पुलिस में. पर नैनीताल की दुर्गालाल म्युनिस्पिल लाइब्रेरी के दरवाजे थोड़ी बंद हुए और पुलिस में उन्हें नयाल साब जैसे बॉस मिले. पढ़ा लिखा पहुँच वाला समझ कोई ऐरा गैरा पंगा भी न लिया आज तक. सो उनकी कमेंट्री चालू रही.
हाँ तो सर जी. ये जो रमोल पट्टी का गंगू रमोल हुआ,ये तो अजब ही अड़याट हुआ. क्या सोच रहा हूं ?क्या कर रहा हूं?जैसा विचार ही न करे.पर उसकी पत्नी वो तो साक्षात् देवी हुई. अपूर्व रूपसी, गुणवती. पर विधि का लेख लिखने वाले, सबको माया में उलझाने वाले,सबकी नैय्या पार लगाने वाले अपने कृष्ण मुरारी, उनका ह्रदय गंगू की अर्धांगिनी पर आसक्ति से भर गया. अब कृष्ण कन्हैया को कौन कुछ कहे किसकी वो सुनें. सो एक दिन उन्होंने भोंरे का रूप धरा और सीधे पहुँच गये गंगू की गढ़ी. अब उस विशाल गढ़ी के ओने कोने ढूंढ दिए उन्होंने. पर लक्ष्मी को ना मिलना था सो वो ना मिली. पर अपने कन्हैया भी तो हुए छलिया. सो छल-बल कर जान गये कि कहाँ है? कहाँ है लक्ष्मी. लक्ष्मी तो उन्हें उस बकरी के सींग में मिली जो चरने के लिए गयी थी कुंजणी -पाताल के वन में. बस क्या था कृष्ण भगवान ने वहीं लक्ष्मी का हरण किया और पहुँच गये उसे ले द्वारिका. तो सेमवाल जी ठीक उसी दिन से गंगू बिचारे के दुर दिन आ गये.
ये तो मैं नई ही कहानी सुन रहा भेजी! कह सेमवालजी हतप्रभ. हेमदा पर कोई असर न पड़ा. वह तो अब जैसे गंगू के दुख को दूर करने उसे मलासने में दत्त चित्त हो गये थे. दरअसल सरजी. गंगू की दो पत्नियां हुईं. बड़ी का नाम ठैरा इजुला और छोटी का बिजुला. अपने अक्खड़ पति जो कभी कितनों को लोहे के चने चबा चुका था,की ऐसी लुत गत देख उसने सलाह दी कि जगत में हर माया का इलाज हुआ सो वह उत्तरदेश यानी कि तिब्बत चले जाये. अब गंगू उत्तरदेश को गया और दर दर भटकते भिक्षा मांगने लगा.ऐसे ही चलते कल पते वह जा पहुंचा द्वारिका जो किशन भगवान की राजधानी हुई.
एक दिन द्वारिका में जब वह भगवानजी की हवेली के द्वार जा पहुंचा तो रुक्मिणी ने उसे देख लिया. उसे अन्न वस्त्र देने लगी तो गंगू बोला कि वो तो तीन दिन से भूखा है. तब रुक्मिणी उसे वहीं ठहर भोजन करने को कह रसोई में जा उसके सम्मुख गरमागरम दाल -भात रखती है. वह जैसे ही खाने में हाथ लगाता है,देखता है कि भात में कीड़े लुब्लुबा रहे और दाल तो खून जैसी लाल. सारी माया जान वह उसे अपने स्वामी गिरधर गोपाल के पास भेजती है और कहती है बस उनके चरणों में लोट कर माफ़ी मांगे. गंगू ने ऐसा ही किया फिर और क्या करता.
अब भगवान कृष्ण गंगू को दो मुट्ठी कौणी देते हैं और कहते हैं जा घर लौट और बारह साल तक ब्रह्मचारी रह. घर में कौणी का बारीक भात पकता है और उसकी छोटी रानी बिजुला उसे खाती है तो उसे गर्भ ठहर जाता है. गंगू तो सब माया मोह छोड़ भगवान जी का मंदिर बनाने में लगा है. बिजुला का गर्भ देख बड़ी रानी इजुला को बड़ी डाह होती है. वह उस पर ताने मारती है और सब कुछ गंगू को बताती है. गंगू कहता है कि कल सुबह का कलेवा उसके लिए बिजुला के हाथ भिजाना ताकि उसे देख वह जतकाली होने वाली बात पर विश्वास कर सके. अब इजुला जाती है बिजुला के पास और उसे स्वामी का हुकुम सुनाती है. बिजुला बेचारी बड़ी परेशान. लाज शरम की मारी. कैसे जाये उनके सामने. क्या कह दें वो. नाराज होंगे. कोसेंगे. क्या कुछ न कहेँगे. बस वो निर्णय लेती है कि वो रात को ही चले जाएगी कुजणी पातल और वहीं फांसी लगा लेगी. ये सोच विचार कर वह निर्जन कुजणी पातल चल देती है. आधी रात भी नहीं बीतती कि उसकी प्रसव पीड़ा शुरू हो जाती है. अँधेरी रात में उस घने वन में वह दो पुत्रों को जनम देती है. पैदा होते ही वो दोनों शिशु अपनी माता से कहते हैं कि तुम तो हमें बस पत्तों और घासपात से छोप देना,मतलब कि ढक देना और सुबह-सबेरे अच्छी तरह तैयार हो कर हमारे पिता जी के पास कलेवा देने चले जाना. और हाँ, हमारे बारे में किसी को भी कुछ न बताना. अब हम खुद तुम्हारे पास बारह बरस बाद आयेंगे. बिजुला भी क्या करती. शिशुओं को छोड़ने में भी कलेजा फट रहा था पर ये तो कुछ अनोखे ही लग रहे थे. भगवान की लीला समझ उसने यही किया कि सुबह अपने स्वामी के पास थाल सजा कर पहुँच गयी.
अब सुबह -सबेरे ही कुंजणी पातल में जोगियों की जमात आती है. उनका आसान जमता है. चूहा जलता है. भोजन पकता है. उनके गुरु नीलपाल को शिशुओं के रोने की आवाज आती है. ढूंढ खोज होती है तो मिलते हैं दोनों शिशु. तुरंत जोगी दूध की भिक्षा लेने गाँव की ओर दौड़ते हैं. गुरु जोगी ग्यारहवें दिन उनका नाम करण संस्कार कर उन शिशुओं का नाम रखता है – सिदुआ और बिदुआ.
लो महाराज. दस कोस की दूरी तक चला दी कथा हमारे हेम दा ने. बीच बीच में चाय भी पी. वहीं गावं -घरों में बनी. घर के दूध वाली अदरक के टुकड़े पड़ी और खूब मीठी. मीठे से चलने की ताकत जो मिलने वाली हुई. एक बुबू के घर तो कटकी वाली थी. सफेद मिश्री की डली. चाई सुड़को.मिश्री की कुटुक दाँत से काटो. साथ में मांश की दाल के बड़े जो थे खूब बड़े- बड़े. सरसों के झांस वाले तेल में पके-सिके. अब ऐसे में क्या थकान. हमारे साथ चल रहे बी एच यू के प्रोडक्ट, फिजिक्स के चयनित युवा असिस्टेंट प्रोफेसर त्रिपाठी. पहुंचे हुए पढ़ाकू और माया के रहस्य जानने की गजब पिपासा. महाविद्यालय में मेरे भेदिये अक्सर बताते कि ये तो रात- अधरात नदी किनारे केदार घाट में बैठे रहते हैं. ऊपर वो जो नेपाली बाबा रहता है उसके आश्रम भी जाते हैं हर सनीचर. तो इस कहानी में भी कई जगह तार्किक क्रम न होने जैसी बात और गप कुछ चेलों ने कही तो उनकी वहीं क्लास चालू हो गयी. देखो ये सब माया जाल मेटाफिजिक्स की चीज है. पश्चिम के साइंटिस्ट कहाँ पहुंचे अभी वहां. अब लुब सुंग रामपा को ही पढ़ो. उसकी थर्ड आई. तिब्बती लामा खोपड़ी खोल ऑपरेट कर देते थे. अब कृष्ण भौंरा क्यों नहीं बन सकते. जब पदार्थ ऊर्जा में कन्वर्ट हो सकती है तो क्या ऊर्जा पदार्थ में नहीं.क्या दूसरा रूप नहीं ले सकता वह पदार्थ. और वायुवीय पावर्स तो हें ही,पर वो कोई आँख से थोड़ी दिखती हैं. तुम टू जी स्पेक्टरम देख सकते हो क्या? ना न! उसे तो मोबाइल ही पकड़ेगा. ऐसे ही नेचर की वेव्स को पकड़ने के लिए वैसी ही रिसेपटिव बॉडी चाहिए. कितने हैं बनारस में गोपीनाथ कविराज हैं. गोरख नाथ रहे.अरे अनगिनत.यहाँ उत्तरकाशी में भी.
अब में सोच रहा था इससे कैसे टकराते होंगे ये सब. मेरा तो जब उत्तर काशी ट्रांसफर हुआ तो अपनी पहचान के एक होटल मालिक ने मुझे अपने होटल में निमंत्रित किया. शाम के समय मैं वहां पहुँच गया.. वह परिवार सहित तीसरी मंजिल में रहता था. उसकी छत से मैं शाम में उत्तरकाशी बाजार और दूर दिख रही चोटियों की फोटो खींचने लगा. जब कैमरा जूम कर बाजार देखने लगा तो दिखी सरकारी ठेके की दुकान जिसमें सबसे लम्बी लाइन लगी थी. और उस लाइन में अस्सी परसेंट तो भगवाधारी थे ही. सांसारिक माया पदार्थ की विरक्ति से मुक्ति का फार्मूला मुझे दिख ही गया. पहले ऋषिकेश था वहां सुट्टा ज्यादा चलता था. हॉस्टल में रहता रहा तो मिर्गी वाले डॉक्टर की गली में चलते एक रौबीला हर ऊँगली में अंगूठी पहना बाबा मॉर्निंग वाक में टकराने लगा. फिर बात चीत भी हो गयी जो विल ड्यूराँ से पॉल ब्रँटन और अल्मोड़ा खगमरा के महराज तक आ गयी. जब कभी मैंने उसे बताया कि दिवाली पे पिथौरागढ़ जा रहा तो उसने एक ही बात पे जोर दिया कि गुरु किलो भर दम को मैनेज करा देना उठवा वो खुद लेगा. मेरा तो मॉर्निंग वाक ही बंद करा दिया उसने. अचेतन से ही रिद्धि सिद्धि मिलती हों. अजब सा लोक जुटता हो. अब हम भी पहुँच गये है नाग भूमि. अभी तक तो कोई सर्प या नाग कन्या टकराई नहीं. पर कौतूहल जरूर उपजा कृष्ण की नई लीला व गंगू की कथा का.
पद यात्रा का ये अलग ही रंग है. लोक के मन में बसे विश्वास के साथ वहां बने मंदिर. वहां का इतिहास. तथ्य बनता इतिहास. इतिहास बन जाता किंवदंती.किंवदंती बनता मिथक. और मिथक अनुभव में आते ही बन जाता है तथ्य. क्या यही काल चक्र का रहस्य है? अब यहीं महसूस कर रहा हूं इस धरती पर चलते इससे सम्मोहित होते हम मणबागी पहुँच रहे हैं. सेमवाल जी की आवाज से ध्यान टूटता है.ये देखिये कितनी शांत और हवा की आवाज सुनिए. बांसुरी की टूँ जैसी.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir0
मण बागी से सेम मंदिर तक करीब ढाई कि. मी. की पैदल चढ़ाई है.यहाँ सेम वह स्थान कहलाता है जो जल से अभिसिंचित हर समय नम रहे. जल के स्त्रोतों का बाहुल्य रहे. ऐसे ही पानी के दो धारे प्रकटा सेम में हैं. चढ़ाई चढ़ते ज्यादा बात चीत संभव नहीं होती. अतः सब चुपचाप एक के पीछे एक हैं. में सबसे पीछे हूं. उसकी बड़ी वजह जगह जगह रुक फोटो खींचना है. अब कुछ देखते ही खेंच लेना हर बार नहीं होता कई बार लगता है कि जो सामने है वह अभी कुछ और कहने के लिए रुकना मांग रही है. अचानक ही मुझे सुरेश ममगई की याद आ जाती है. अपने महाविद्यालय का हिंदी का प्रोफेसर और वाकई इस पद नाम का वो हक़दार भी है. बालों में चांदी के तार आ गये पर अभी तक शादी नहीं की. खूब खींचता भी हूं उसे. अब जौनसार में सेब के बाग भी लिए हैं पौंध हिमाचल से लाया है.वो जाड़ भाषा पर काम करने जाड़गंगा पार कर गया होगा. खोजी यायावर है. हिंदी, उर्दू पर अधिकार अब फ़ारसी सीख रहा. उसने भी मुझे कई सन्दर्भ बताये थे सेम मुखेम और गंगू रमोल के बारे में.उसने कहा था कि ये गंगू सहारनपुर से आया. इसका पहला गढ़ ओठाला में, दूसरा रैका में, और फिर मोल्या में हुआ.जिस जमीन पर हम अभी बढ़ रहे हैं, मल्लों के कारण इसके गढ़ का नाम मोल्या और पट्टी का नाम रमोली पड़ा.इसकी ईष्ट देवी शाकम्भरी देवी हुई और ईष्ट देव,’बलेराज घाण’ जिसका वंशावली गायन में आह्वान होता है, “बलैराज घाण देवता तुमरो ध्यान जागो.”गंगू ऐसा ताकतवर कि इसकी शक्ति का नमन आज तक सेम पूजन के संग होता है.पर कृष्ण भगवान उसकी लक्ष्मी को हरने के बाद भी उससे इतना नाराज क्यों रहे? इसका समाधान कहीं न हुआ. सब उसी का खेल हुआ.
मणबांगी से मंदिर की चढाई चढ़ते जब नागतीर्थ करीब सौ मीटर रह जाता है तब एक जलधारा दिखती है. यहीं पर दर्शन से पूर्व स्नान शुद्धि की जाती है. सारी थकान इस शीतल जल के स्पर्श से मिट जाती है. अब आगे बढ़ते मंदिर के बिलकुल समीप जल का दूसरा स्त्रोत है.
सेम मुखेम की जात्रा के बारे में अब सेमवाल जी बता रहे हैं कि पहले तो इस तीर्थ से आधा कि.मी.नीचे ही जूते,चप्पलऔर बदन पर चिपटा कोई भी चमड़े का समान बेल्ट, पर्स उतर जाते थे. पूरी तीन सौ पेंसठ सीढियाँ चढ़नी पड़तीं थीं. इस नीचे वाले धारे जिसे सिदुआ का धारा कहते में स्नान कर यहाँ के पवित्र जल से आचमन किया जाता. पर अब तो आप देख ही रहे हैं बस यही कोई पचीस -तीस सीढ़ी रह गयीं हैं. ये जिस खड़ंजे- पडंजे रस्ते पर हम चढ़ रहे हैं,उसे जंगलात वालों ने बनाया है. अब यहाँ हमने भी खूब मजे ले नहाया- धोया. सेमवालजी और हेमदा की देखादेखी मैंने भी धोती पहन ली.
ये नागतीर्थ सेम,’प्रकटा सेम ‘कहलाता है. मुखेम के गावों और यत्र -तत्र फैले छिटके गाँव की घर कुड़ियों के अलावा कोई मंदिर यहाँ दिखाई नहीं देता.परन्तु जन विश्वास है कि यहाँ सेम के छह मंदिर और हैं. प्रकट सेम के मुख्य मंदिर के अलावा गुप्त सेम, अर्कटा सेम,वारुणी सेम ,आरुणि सेम, भुक्का सेम ,व लुक्का सेम के होने का विश्वास है. प्रकट सेम के इस मुख्य मंदिर में हर तीसरे साल ग्यारह गते मार्गशीर्ष को भव्य पूजा होती है और मेला लगता है. मुखेम गाँव के सेमवाल ब्राह्मण इस मंदिर में पुजारी हैं तो हवन का दायित्व भट्ट ब्राह्मणों का है. नागराजा के दोष की शांति के लिए यहाँ चंडी के नागों का जोड़ा मंदिर में प्रतिष्ठा के बाद दायीं और बहने वाली जल धारा में प्रवाहित कर दिया जाता है. नाग और विष्णु के ताल -मेल की बात शिव प्रसाद डबराल जी ने भी लिखी है. अर्जुन और कृष्ण ने खंडव वन से नागों का उन्मूलन कर दिया था. राजा परीक्षित की हत्या भी नागराज तक्षक ने की. जन्मेजय से बदला लेने सर्पसत्र किया गया जिसमें उत्तरभारत के मुख्य नागवंश लुप्त हो गये और कुछ हिमालय की दुर्गम घाटियों में आ बसे. ये बौद्ध धर्म त्याग वैष्णव बन गये. विद्वानों के अनुसार गंगू रमोला का समय 1350ईस्वी शती से 1450 ईस्वी शती के बीच का होना माना गया.
ये जो सेम-मुखेम की धार्मिक यात्रा है इसे जात्रा कहा जाता रहा । इसके पूरे विधि विधान तय होते.कई भक्त यहाँ पूजा अर्चना कर रात में जागरण भी करते हैं.जन श्रुति है कि मन कुछ ऐसा तरंगित रहता है कि सच्ची भावना वाले भक्त को शंख ध्वनि ,घंटा घड़ियाल एवं बंसरी की तान रात्रि के प्रहरों में सुनाई देने लगती है। नैनीताल की ऑब्जरवेटरी में डॉ सिनवल के डायरेक्टर रहते में भी तकनीकी सहायक रहा सो रात को सेटेलाइट की फोटोग्राफी का जिम्मा भी होता और चांद तारे देखने और रात में आए पर्यटकों को ग्यारह व इक्कीस इंच की टेलीस्कोप से दिखाने का शगल भी रहा. सो रात्रि जागरण में मैं पूरे मनोयोग से ढोल की थाप और भजनों की धुन में खोया पर जब आँख खुली तो पता चला कि नींद गहरी थी और खूब मोटा कम्बल मेरे ऊपर कोई ओढ़ा गया है.
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नागराजा को प्रसन्न करने उसका घड़ियाला रचा जाता है जिसमें जागरी डोंर -थाली बजा पूरी लय और आरोही -अवरोह ताल थाप से से आह्वान करते हैं.तब अपने पश्वा पर भगवान कृष्ण अवतार लेते हैं:
धरती माता तुमरो ध्यान जागो.
ऊँची आकाश तुमरो ध्यान जागो.
दिन सूरिज रात चनर मा तुमरो ध्यान जागो.
श्येली नागलोक तुमरो ध्यान जागो.
बुड़ा बासुकि, जिया जी नागिना तुमरो ध्यान जागो.
कालू नाग, पिऊंला नाग, हुंकार नाग, फुंकार नाग
शिशु नाग, विशु नाग तुमरो ध्यान जागो.
नागराजा सेम के दर्शन पूजन के बाद बताते हैं कि नागराजा के मंदिर के दर्शन की जात्रा से घर लौट कर ‘कड़ाई ‘ करना और गाँव को भोज खिलाना कर्मकांड का हिस्सा मना जाता है. कड़ाई के बिना जात्रा अधूरी मानी जाती है. दर्शन के उपरांत लौट कर घर में सत्य नारायण भगवन की कथा सायंकाल तक संपन्न कर ली जाय.अगले दिन आटे में गुड़ की चासनी डाल पूरी के आकार के मगर जरा मोठे रोट घी में तले जाते । यह रोट- प्रसाद सबसे मुख्य हुआ. इसे सम्बन्धियों ,इष्ट मित्रों व गाँव में बांटा जाता. दिन में सिरोलों द्वारा दाल -भात बनाया जाता जो एक धोती पहन ताम्बे की तौली में भात और कांसे के भड्डूओं में लकड़ी की आंच सुलगा उरद, चना, राजमा की दाल बनाते ।पहाड़ी घी और मसालों का छौंक लगता. रात को पूरी -रोटी सब्जी बनती, सभी को खिलाई जाती.पूरी पंगत बैठती। सभी लोग परिचित मिल -बाँट काम वार लेते. सब हो जाता.
सेम के मंदिर के मुख्य पुजारी रावल जी सत्तर पार कर भी सारा प्रबंध बड़ी तत्परता से करते दिखते हैं. अब पूजन प्रारम्भ कर मंगलाचरण के बाद उनके सम्बन्धी और चेले बाकी कर्म कांड कराते हैं.यह हमारा सौभाग्य रहा कि उत्तरकाशी से आए हम पांच उनकी पूजा से कृतार्थ हुए.संस्कृत उच्चारण तो में भी मन गया और स्वर बिलकुल स्पष्ट. पूजन के बाद उन्होंने भोजन प्रसाद पर हमें जिमाया और बताते भी रहे कि कि नागराजा के इस मंदिर में आने के लिये पैट-अपैट, वार-नक्षत्र, भद्रा वगैरह के साथ घर की शुद्धि का भी ध्यान रखा जाता है.सब विचार कर ही जात्रा की जाती है. पहले जब इतनी सुविधा और मोटर सड़क न थी तो हफ्ते-पंद्रह दिन पहले से ही तैयारी शुरू हो जाती थी. घर में फसल बटोर, जानवरों के लिए घास पैट का इंतज़ाम कर पंडित जी से शुभ दिन ,वॉर ,नक्षत्र व लग्न का विचार होता था. घर से निकलते हुए मंगलाचरण किया जाता ,घर में देवताओं को हाथ जोड़े जाते और घर की देहरी लाँघ दाहिना पाँव आगे बढ़ा जात्रा को निकल पड़ते यात्रा के लिए रिंगाल की टोकरी जिसे घिल्डी या कँडी ली जाती जिसमें घर का नवान्न ,दूध,दही ,घी माखन या दन्याली के साथ शक्कर, गुड़, मिश्री, पिठाई, चन्दन, सुपारी, हवन सामग्री, फूलों की माला, पीला वस्त्र, श्रीफल के साथ चांदी या किसी धातु के बने दो नागों का जोड़ा और सेम नागराजा की भेंट रख उसे नए कपड़े से ढक कर बांध देते. अब निश्चित दिन घर से प्रस्थान करते समय घर का मुखिया इस घिलडी को ले आगे चल पड़ता. कई तो इसे पीठ पर बांध लेते. सिंह के बृहस्पति या धनु और मीन के सूर्य होने तथा मल मास में जात्रा नहीं की जाती.इस तरह की गयी जात्रा में बहुत भीड़ भाड़ व जरुरत से अधिक सामान न लाद लघु भार बन चलना अच्छा माना जाता. रास्ते में रात के समय जो भी छानी मिले या गांव पड़े वहीं विश्राम हो जाता. ग्राम वासी आराम से टिकाते. खाने पीने का प्रबंध करते.
लम्बी यात्रा कर पहुंचे भक्तजन रात्रि में मुखेम गांव में रावल या अन्य अपने परिचित के यहाँ टिक जाते. भट्ट पुरोहितों व अन्य लोगों के यहाँ भी रहने टिकने भोजन की व्यवस्था हो जाती. सेम मंदिर में एक धर्मशाला भी है. मणबागी के सौड़ में चमोली जी का छोटा सा आश्रम भी है. प्रातः स्नान-ध्यान होता और फिर नागराजा के दरबार में हाजिरी लगती. रावल जी बता रहे कि हमारे बाबा -बुबु यात्रा में चलते चांदी के विक्टोरिया वाले सिक्के और बाकी रुपया-पैसा न्यूली में रख उसे कमर में कपडा लपेटते चलते. यह न्यूल पाइप नुमा होती जिसके भीतर सिक्के, नोट रखे जाते. देवता को चांदी का सिक्का चढ़ाना बड़ा पवित्र समझा जाता. इस न्यूली के पीछे एक दन्त कथा भी है. अब वो सेमवाल जी ने सुनाई.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir)
माना गया कि सूर्य का रथ वासुकि नाग से बंधा रहता है. एक बार वासुकी की केंचुल उतर कर गिर गयी. नागराजा वासुकि के शरीर की उस केंचुल को सूर्य देव ने सोने और रत्नों से अलंकृत कर अपने मध्य भाग में धारण कर लिया, तब से सूर्य देव के भक्तों ने एक सौ आठ,एक सौ बीस और दो सौ अंगुल तक का अव्यंग सिला कर अपनी कमर में बांधना आरम्भ कर दिया. इसका आकार ठीक सर्प की केंचुली की तरह का होता जिसके बीच में खोखल होता. देखादेखी लोगों ने ऐसी ही कपडे की पाइप नुमा थैली बना उसके भीतर सिक्के-नोट रख यात्रा में चलना सुरक्षा की दृष्टि से उचित पाया. तभी इसे न्यूली नाम भी दिया गया.
10 गते मंगसीर को इस सेम के दरबार में विशाल रात्रि जागरण होता है.सेम मंदिर के अहाते में गोल घेरे में बैठ भक्तजन अलाव जला, नागराजा के भजन गाते हैं. उनकी कथाओं को सुना रात बिता देते हैं. ग्यारह गते की पूजा अर्चना का उत्सव तो अद्भुत ही होता है. हर तीसरे साल संपन्न होने वाली पूजा ‘प्रकटा सेम’ के नाम से जानी जाती है. इसके विषय में जनश्रुति है कि गंगू रमोला ने इससे पहले छह मंदिर बनवाये जो अदृश्य होते रहे. तब भगवान श्री कृष्ण जो नागराजा हैं गंगू के स्वप्न में आये और ठीक इसी स्थल पर मंदिर बनाने का आदेश दिया. गंगू रमोला ने पूरे विधि विधान से इस सुरम्य स्थान पर मंदिर बना प्राण प्रतिष्ठा की.
सेम मुखेम की लोकगाथा में मोल्या गढ़ के गढ़पति नागवंशीय गढ़पति सामंत गंगू रमोला ही मुख्य चरित्र है. उसे घांगू रमोला भी कहा गया. वह काली का भक्त था.प्रचुर पशु धन का स्वामी था. ढेरों गाय -भैंस, भेड़ -बकरी इतनी कि गंगू की एक अणवाल के रूप में भी पहचान बनी. रमोली के विस्तृत सेरे में वह बासमती धान उगाता था. अपार धन सम्पदा अर्जित कर वह घमंडी हो गया ,अत्याचारी भी हो गया. सनकी भी था तभी उसने अनब्याही भैंसों और कुंवारी कन्याओं पर कर लगा दिया. जब जो चाहा वह किया. रहने के ठाठ बाठ निराले.हरी भरी उपजाऊ धरती का मालिक.जगह -जगह से फूटते पानी के धारे ,पहाड़ों से झरते झरने. कल -कल बहती सरिता. ऊपर नगाधिराज हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां, अप्रतिम सौंदर्य.
अब हुआ यह कि नयनाभिराम सौंदर्य की यह स्थली मुरलीमनोहर सांवरिया किशन भगवान के स्वप्न में आ गयी और उन्हें भा गयीं. उसी पल उन्होंने अपनी रानी सत्यभामा से मन की बात कह डाली कि अब तो बस वह ऐसी ही रमणीक जगह पर अपना वास चाहते हैं. रानी ने यह परामर्श दे उनकी विह्वलता को शांत किया कि कल भोर होते ही रमोली अपना दूत भेज वहां के सामंत गंगू रमोला से रहने के लिए ढाई गज जमीन मांगते हैं..गंगू रमोला ने जब दूत के द्वारा भेजा पत्र पढ़ा तो वह क्रोधित हो बोला ,’चल भाग यहाँ से. आज ढाई गज जमीन मांगता है, कल को पूरी जमीन पर कब्जा कर लेगा. मैं सब समझता हूँ और सुन, दुबारा यहाँ आया ना, तो तेरा सर काट के बद्रीनाथ जी पर चढ़ा दूंगा’ दूत उलटे पाँव वापस लौटा और कृष्ण भगवान को सारी बात कह सुनाई.
कुछ दिन के बाद कृष्ण अपने गरुड़ पर सवार हो बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाये मोल्यागढ़ गंगू रमोला के महल पहुँच गए..तब वहां गंगू रमोला की रानी मैनावती थी. उसने ब्राह्मण आया देख स्वागत सत्कार किया. ब्राह्मण बने कृष्ण ने मैनावती से कहा कि वह यह देखने आये हैं कि गंगू की कुंडली में संतान योग कैसा है ? फिर कुंडली बांच उन्होंने मैनावती से कहा कि तुम्हारा पति तो बहुत ही दुष्ट और अत्याचारी बन गया है. तुम उसे समझा -बुझा सही रस्ते पर लाओ. नहीं तो ये राजपाट सब जायेगा. जब गंगू वापस आया तो मैनावती ने उसको सब बताया. इस पर गंगू खूब नाराज हुआ और बोला कि मेरी जो मर्जी होगी वही करूँगा. अब होनी तो हो के रही. किशन भगवान की लीला जो हुई. अचानक ही गंगू के सारे पशु ,भेड़ बकरी मरने लगे और पत्थर के रूप में बदल गए. पानी के सोते सूखने लगे. हरी भरी धरती में अकाल पड़ गया. वन -वन भटकने लगा गंगू. तब उस पर दया कर एक दिन पहाड़ की एक ऊँची चोटी से भगवन कृष्ण ने उसे आवाज दी और कहा -‘मैं तेरा इष्ट देवता हूँ। अब तू ध्यान से सुन.अगर अपना भला चाहता है तो मेरी बात मान. तू अगर सेम में मेरा मंदिर बना देगा तो मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा सब पहले जैसा हो जायेगा’. गंगू तो अपनी विपन्न दशा से दुखी था ही. उसने शीघ्र ही हाँ भर दी और अपनी गलती के लिए भगवान से माफ़ी भी मांग ली. उसने कहा प्रभु!मेरे अन्न-धन के कोठार भर दो. सुख सम्पदा लौटा दो. मेरे जानवर पत्थर हो गए हैं उन्हें चलता फिरता कर दो और हाँ ये वन में एक राक्षसी है हिडिम्बा,जो मेरे जानवर और चरवाहों को मार कर खा जाती है, उसे भी मार दो. भगवन श्री कृष्ण ने कहा तथास्तु और फिर अपनी माया से सब कुछ पहले जैसा कर दिया.
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अब भगवान कृष्ण ने अपनी मुरली बजाई. उसकी तान सुन सब सम्मोहित हो गए. इतनी मीठी बांसुरी की ध्वनि सुन हिडिम्बा ने तुरंत ही अपूर्व रूपसी का रूप धारण किया और बांसुरी वाले को खोजती कृष्ण भगवान के पास आ पहुंची. कृष्ण वहां एक स्थान पर उसे झूले में बैठे दिखे. तब कृष्ण ने उससे कहा कि जरा उन्हें झूला तो झूला दे. वह आयी और झूले को झुलाने के लिए जोर मारा. उसकी कितनी ही कोशिशों के बाद भी जब झूला टस से मस न हुआ तो भगवान ने उससे कहा कि अब में उतरता हूँ और वह झूले में बैठे. हिडिम्बा खट्ट से झूले में बैठ गयी. अब कृष्ण भगवान ने झूले में ऐसा धक्का मारा कि हिडम्बा आकाश में हवा में लहराती हुई दूर जा के गिरी. ऐसी गिरी कि पूरा रमोली ग्राम का इलाका ही कांप गया. उसके तन के टुकड़े यहाँ -वहां गिरे और जहाँ उसका मुख गिरा उस गांव का नाम पड़ गया मुखेम. तभी ये इलाका कहलाया सेम- मुखेम.
गंगू जी जान से मंदिर बनाने में जुट गया जब मंदिर बन कर तैयार हो गया तो उसकी प्राण प्रतिष्ठा के लिए वह ढोल- दमाउ , तुर्री, भणकोरा बजाता, साथ में ब्राह्मण-पुरोहित और अपनी प्रजा सहित उस स्थान पर पहुंचा जहाँ नव निर्मित मंदिर बन कर तैयार किया था. उसके आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उसने पाया कि वहां तो कोई मंदिर था ही नहीं. वह बड़ा हताश हुआ. अब उसके भीतर भक्ति भाव आ गया था और हठी तो वो पहले से था ही.उसने फिर संकल्प लिया और दुबारा मंदिर खड़ा किया. वह भी प्राण प्रतिष्ठा के समय गायब. ऐस छह बार हुआ. अब भगवान पसीज गए और उन्होंने गंगू को स्वप्न में दर्शन दे कर कहा कि तुम दोनों पति-पत्नी की भक्ति और श्रृद्धा देख मैं बहुत प्रसन्न हूँ. ये जो छह मंदिर तुमने बनाये हैं इनको मैंने कलियुग में अपने गुप्त निवास के लिए आम लोगों की दृष्टि से ओझल कर दिया है.
अब तुम ऐसा करो कि सेम की पर्वत श्रृंखला में जहाँ खिर्सू के दो बड़े वृक्ष खड़े हैं और जिन्हें भीम और अर्जुन के नाम से जाना जाता है वहां एक पाषाण शिला है. उस पाषाण शिला को आवृत करते हुए तुम मंदिर का निर्माण करो. ये मंदिर, ” प्रकटा सेम” के नाम से जाना जायेगा और यहाँ लोग मुझे “सेम नागराजा” कहेंगे.
ग्यारह गते मंगसिर को बन कर तैयार इस मंदिर में शिला रूप नागराज ने गंगू रमोला, मैनावती और उपस्थित समस्त जन समूह को अपने स्वरूप के दर्शन दिए. इसी कारण इस दिन नागराज में मेला लगता है और उसकी जात दी जाती है. तदन्तर गंगू और मैनावती के दो पुत्र हुए जो बड़े हो कर गुरु गोरख नाथ से दीक्षित हो अनेक सिद्धियां प्राप्त कर सिदुआ-बिदुआ के नाम से प्रसिद्ध हुए. अपने पिता गंगू रमोल के देहावसान के बाद उन्होंने सेम मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और नागराज सेम की शिला के बायीं और अपने पिता की मूर्ति की स्थापना की. मंदिर में हम इनके दर्शन कर आए.
प्रकट सेम के अतिरिक्त अन्य छह सेम में मंदिर के नाम पर स्थान विशेष की परिकल्पना की गयी है. सेम मंदिर से दो किलोमीटर नीचे उतार पर मणबागी सौंड के छोर पर तलबला सेम या वारुणी की अवस्थापना बताई जाती है. कहते हैं कि यहाँ हिडिम्बा राक्षसी के उदर का भाग गिरा था. जिससे यहाँ पैर से चलते हुए जमीन में कुछ कंपन सा महसूस होता है. मुखेम गांव में राधा कृष्ण का मंदिर है. कहते हैं कि इसे स्वयं गंगू रमोला ने बनाया था. मुखेम से आशय है मुख या मुख्य. यह कहा जाता है कि इस स्थान पर हिडिम्बा का मुख गिरा था. इस मंदिर में राधा व कृष्णा के साथ भैरव की मूर्तियां तथा गर्भगृह की प्रस्तर शिला है. मूर्तियों को टिहरी नरेश कीर्ति शाह के समय लगाया गया था. मंदिर में पूजा सेमवाल ब्राह्मण तथा हवन सम्बन्धी कर्मकांड भट्ट राठ द्वारा संपन्न किया जाता है. इस मंदिर में चांदी मढ़ा एक ढोल है जिसे औजी द्वारा बजाया जाता है. यह कुछ निश्चित संकेतों से यह पूछ करने वाले की शंकाओं का समाधान भी करता है. ठीक उसी तरह जैसे कि गंगोत्री व यमुनोत्तरी धाम की पूजा शीतकाल में क्रमशः मुखवा गांव तथा खरसाली गाँव में होती है वैसे ही सेम नागराजा जाड़ों में मुखेम में पूजे जाते हैं. मुखेम से करीब एक किलो मीटर ऊपर सेम मंदिर के रस्ते में मणबागी का मैदान है जिसमें ग्यारह गते मंगसिर को मेला लगता है. सेम के मंदिर मार्ग में एक स्थल पर सफ़ेद रंग के बहुत सारे पत्थर दिखाई दें उसे डाबरी कहा जाता है. लोक विश्वास है कि यह वही पशु हैं जिन्हें श्री कृष्ण ने नाराज हो कर शिला बना दिया था.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir)
सेम मंदिर से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर अर्कटा सेम विराजते हैं. कहा जाता है कि राक्षसी हिडिम्बा इस चौपड़ की पठाल अर्थात समतल पत्थर पर चौपड़ खेलती थी। एक पठाल पर भगवन कृष्ण की घोड़ी के खुरों के निशान हैं. अर्कटा सेम के समीप हिडिम्बा की हिण्डोली बताई जाती थी जहाँ बैठ कर वह अपने शत्रुओं का वध करती थी. इसी हिण्डोली पर हिडिम्बा को बैठा भगवान श्री कृष्ण ने ऐसा धक्का मारा कि वह सीधे मणबागी की सौड़ जा गिरी.
सेम मंदिर से लगभग आधा किलोमीटर चलने पर शतरन्जू का सौड़ दिखाई देता है जहां ढालदार मैदान है. यहाँ नागनी का देवालय है. इस स्थल से खिर्सू ,मोरु,नैर-थुनैर, बांज के पेड़ों की सघन श्रृंखला ऊपर पर्वत तक फैली दिखाई देती है. हिमालय की चोटियों के नयनाभिराम दृश्य देखने के लिए यह सुन्दर स्थान है. सेम नागराजा के प्रसाद के रूप में यहाँ से श्रद्धालु भक्तजन केदारपाती के साथ थुनैर की पत्तियां प्रसाद के रूप में ले जाते है. शतरन्जू के सौड़ से पांच किलोमीटर आगे मुन्नी का सौढ़ है इसको बरगला सेम ,डुगडुगी सेम, व आरुणि सेम भी कहते हैं.किंवदंती है कि यहाँ एक शिला पर जो पाँव अंकित हैं वह भगवान के ही हैं. यदि अपने दोनों हाथों का जोर लगा कर इसे हिलने का प्रयास किया जाये तब भी यह शिला हिलती हुई प्रतीत नहीं होती. पर भक्त कहते हैं कि श्रृद्धा पूर्वक यदि अपनी ऊँगली का भी स्पर्श कर दिया जाये तो यह शिला हिलती हुई प्रतीत होती है. प्रकटा सेम से सबसे अधिक दूरी पर काला सेम है। यह गुप्त सेम से आगे घने वनों के मध्य है जहाँ बाघ, भालू व अन्य जंगली जानवर बहुतायत में मिलते हैं। यहाँ से भी भक्त जन नैर -थुनेर की पत्तियां और केदार पत्ती प्रसाद स्वरुप ले जाते हैं.
नागराजा के सात स्थानों में प्रकट सेम की भांति ही गुप्तसेम पूजनीय हैं. इसको डूंडारो के नाम से भी जाना जाता है. स्थल में कच्चा नारियल और दूध चढ़ाया जाता है. सेम नागराजा मंदिर से एक किलोमीटर ऊपर सघन वनों के बीच माता कालका का पीठ है. लोक विश्वास है कि यहाँ पूजन करने से संतान की प्राप्ति होती है. इससे आगे आँचरी स्थल पड़ता है. अविवाहित रहते जिन कन्याओं की अल्पकालिक मृत्यु हो जाये उन्हें आछरी या मांतरी कहा जाता है. लोगों का मानना है,कि ये नागकन्याएं हैं जो इच्छा नुसार रूप बदल लेती हैं. इनके स्थान पर श्रद्धालु चूड़ी,बिंदी ,चुनरी ,गुड़िया व नारियल इत्यादि चढ़ाते हैं. यहाँ गावों में कहा जाता है कि ये एक गुफा में रहतीं हैं और भादों के महीने में इनको धान की कुटाई करते हुए देखा जाता है. ऐसे ही भौंरापानी के डांडे में भी आँछरियों का निवास है. इनकी एक गुफा गुप्तसेम के समीप भी है. ग्राम वासी बताते हैं कि यहाँ भी धान की भूसी दिखाई देती है. जन्माष्टमी के दिन यहाँ श्रृद्धालु सात तरह की मिठाई ,सात गुड़िया ,चौलाई या मारछा के बीज तथा गेहूं से इनकी पूजा अर्चना करते हैं.जिससे छायादोष का निवारण होता है. इनकी गुफा में जीतू बगड्वाल ,पेड़ा की भराड़ी और खेंट की खणद्वारी की पूजा होती है.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir)
सेम मुखेम की यात्रा करने के कई अन्य मार्ग भी हैं. हर रास्ते में कहीं काफी अधिक पैदल चढ़ाई-उतार है तो कहीं कम. सबसे अधिक पैदल दूरी चिन्याली सौड़ से बादसी होते है. बादसी तक ८ कि.मी. मोटर मार्ग है, फिर इससे आगे सेम मंदिर तक पैदल मार्ग ही करीब १४ कि.मी. लम्बा है.बादसी से गुप्त सेम का पैदल रास्ता लगभग १० कि.मी. पड़ता है. धनारी-पीपली से सेम मंदिर जो कौलभाँकर होते जाता है सबसे लम्बा पैदल मार्ग है जिसमें लगभग २० कि.मी.चलना ही चलना है. ऐसे ही भल्डियाना से लंबगांव ३२ कि. मी.गाड़ी से और फिर आगे सेम मंदिर तक १५ कि.मी.की पैदल चढ़ाई है. सेम मंदिर से गुप्त सेम तक आधा कि. मी. पैदल चढ़ाई तो २ कि.मी.की उतराई है. चिन्याली सौड़ से कवागड्डी तक २० कि. मी. वाहन सुविधा है जहाँ से सेम की पैदल चढ़ाई ८ कि. मी. है यदि कवागड्डी से गुप्त सेम की और जाएँ तो यह पैदल चढ़ाई ५ कि. मी.पड़ती है ऐसे ही चिन्यालीसौड़ से जोगथ तक २८ कि. मी.गाड़ी मिलती है उससे आगे १० कि मी का पैदल चढ़ाई वाला रास्ता है.
लम्बगांव से गंगू रमोला के गढ़ अर्थात मौल्यागढ़ होते सेम मंदिर की दूरी पैदल चढ़ाई कर १५ कि. मी. है।यदि मोटर मार्ग से जाना चाहें तो १० कि.मी. आगे कोदर तक बस मिलती है कोदर से मुखेम तक १८ कि. मी. की दूरी व मुखेम से मणबागी ५ कि. मी. के लिए जीप -टैक्सी उपलब्ध रहती हैं. उत्तरकाशी देवीधार या डुंडा भी सेम मंदिर का यात्रापथ है जिसके लिए डुंडा से पीपली तक १५ कि. मी. सड़क सुविधा मिलती है. पीपली से सेम मंदिर की पैदल दूरी १३ कि मी है. सेम मुखेम की यात्रा और खूब पैदल चल अपने यात्रा साथियों से हुए संवाद सेम-मुखेम की प्रचलित लोकगाथाओं से तो परिचय कराते ही हैं, पहाड़ में नागपूजा और नाग संस्कृति का भी अवलोकन कराते हैं. हमारे यहाँ धार्मिक अनुष्ठानों में नाग पूजा होती रही जिसके कई स्वरुप हैं, पर्व हैं जिनको इन स्थानों की यात्रा से उनकी परम्पराओं को को समझने में मदद मिलती है.. फिर ये सब लोक देवता माने गये सो श्रृद्धा और भक्ति का यह समन्वय दैनिक कार्य व्यवहार और सामाजिक घुलन शीलता को भी प्रभावित करता रहा. जागरों में देवताओं के आह्वान से कितनी मनोविकारिक ग्रंथियां सुलझी व आत्म संतोष मिला यह इनके क्रमिक रूप से होते रहने से कुछ संकेत तो देता ही है और अलगाव में न रख किसी से जोड़ता तो है ही.यहाँ की धार्मिक जातरा के पुराने स्वरुप के विवरण बड़े बूढ़ों व सयानों के मुख से सुनने को मिलता है जिनसे यह पता चलता है कि वह न्यूनतम सुविधाओं के साथ कैसे ईश्वर की कृपा दृष्टि पा लेने के आयाम रच संतुष्टि के प्रतिमान प्राप्त करते थे. इस समूचे क्षेत्र मैं भी अभी कई ऐसे स्थल हैं जहां प्रकृति की अपार सम्पदा छुपी हुई है. ऐसे हर स्थल में किसी न किसी वीर पुरुष और रहस्यपूर्ण अलौकिक शक्ति के मिथक भी हैं जो कहीं न कहीं हमारी कल्पनाओं से जुड़ हमें और अधिक संवेदन शील बनाने का उपक्रम तो रच ही डालते हैं.
(Sem Mukhem Nagraja Mandir)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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