समाज

आठवीं का बोर्ड, चेलपार्क और हरित क्रांति

जिस बोर्ड परीक्षा का हव्वा बना कर, सामान्यतया बच्चों को हाईस्कूल में डराया जाता है वो हमारे हिस्से आठवीं में ही आ गयी थी. कई सालों बाद फिर से आठवीं की बोर्ड परीक्षा करवाये जाने का निर्णय हुआ था. यूपी का जमाना था पर बोर्ड से मतलब यूपी बोर्ड नहीं था. जिला स्तर पर परीक्षाओं का संचालन और केंद्रीय मूल्यांकन होता था इसीलिए इस व्यवस्था को भी बोर्ड परीक्षा कहा जाता था. शिक्षक ये बात जानते रहे होंगे पर कोई भी ये नहीं कहता था कि डरने की कोई बात नहीं है ये हाईस्कूल-इण्टर से बहुत छोटी बोर्ड परीक्षा है.
(School Memoir Devesh Joshi)

बोर्ड-बोर्ड कहके डराते सब थे पर कोई भी ये नहीं समझाता था कि इस बोर्ड परीक्षा की अलग से क्या तैयारी करनी है. परीक्षा के बाद ही ये जानकारी हुई कि आठवीं की बोर्ड परीक्षा को जितनी गम्भीरता से जूनियर हाईस्कूल लिया करते थे उतनी गम्भीरता हाईस्कूल, इंटर कॉलेजों में नहीं होती है. कदाचित् ऐसा इसलिए भी होता रहा होगा कि आठवीं कक्षा उन स्कूलों की सर्वोच्च कक्षा होती है और परीक्षा के लिए उनके बच्चों को अधिकतर दूसरे विद्यालयों में जाना पड़ता था.

घरेलू मोर्चे पर इस पहली बोर्ड परीक्षा के लिए मुझे दो अतिरिक्त सुविधाएँ प्राप्त हुई. पहली एक गाइडनुमा किताब खरीद के दी गयी जो खास तौर पर इस बोर्ड परीक्षा के लिए ही तैयार की गयी थी. स्कूली शिक्षा हासिल करते हुए, किसी गाइडनुमा किताब के दर्शन और उसकी मिल्कियत रखने का ये पहला अवसर था. जाहिर है, वो गाइड पढ़ने से अधिक छोटे दर्जे़ के बच्चों को रौब दिखाने के लिए अधिक प्रयोग में लायी जाती रही. ऑल-इन-वन टाइप की वो गाइड साइज में भी भारी-भरकम थी और छोटे दर्जे़ के बच्चे उसे देखकर प्रभावित भी हो जाते थे. बाप रे! इतनी मोटी किताब. और हम भी बिना चूके पलट के कहते थे – और नहीं तो क्या, बोर्ड परीक्षा है बोर्ड, बच्चों का खेल नहीं. हालांकि हम खुद भी नहीं जानते थे कि बच्चों के खेल और बाकी परीक्षाओं से अलग इस बोर्ड में होना क्या है. किसी शिक्षक से पूछने पर उसने बोर्ड का अर्थ तख्ता बता कर पीछा छुड़ा लिया था, पर हमारे लिए ये तब भी पहेली बना हुआ था कि एक तख्ते के लिए इतनी हाय-तौबा क्यों मचायी जा रही है.

पहली बोर्ड परीक्षा के नाम पर दूसरी अतिरिक्त सुविधा ये मिली थी कि स्वयं जाकर दुकान से चेलपार्क इंक खरीद लें. चेलपार्क इंक खरीदने का भी ये पहला अवसर था. चेलपार्क इंक के लिए हमारे मन में विदेशी ब्रैंड जैसा सम्मान था. लगता था, ये तो सात समंदर पार बनती होगी. वो तो बाद में पता चला कि अपने देशी चेलाराम और पार्कर नाम की दो स्टेशनरी कम्पनियों ने एकजुट होकर ये नया जादुई नाम रखा हुआ था. जिस दिन ये जानकारी प्राप्त हुई, मुँह से स्वतः निकला – भाई चेलाराम, मान गये गुरू. चेलाराम की स्याही से गुरू लोग, गुरू कुम्हार श्ष्यि कुंभ है… लिखाते रहे और इधर चेलारामजी चेलपार्क नाम से जेंटलमैन-स्टेशनरी-गुरू बन गये. इंटरनेशनल मानदण्डों पर निर्मित चेलपार्क डाइ-बेस्ड इंक हुआ करती थी. टिक्की (बटिया) इंक से लिखाई का श्रीगणेश करने वाले साथी सोच रहे होंगे कि हमारी वाली की किस्मत में कहाँ अंग्रेजी नाम . तो अगर कॉन्वेंट में पढ़ने वाले बच्चों को अंग्रेजी में समझाना चाहते हैं तो इसकी भी पूरी गुंजाइश है. आप कह सकते हैं कि – इन अवर चाइल्डहुड वी यूस्ड टु राइट विद पिग्मेंट-बेस्ड इंक. वी यूस्ड टु बाइ इंक-केक्स एण्ड, यू नो, वी हैव टु प्रिपअर फ्रेश इंक बाइ मेकिंग पर्फेक्ट सॉल्यूशन ऑफ दोज केक्स इन फ्रेश वाटर.  
(School Memoir Devesh Joshi)

चेलपार्क के विज्ञापन में शान से विद क्लीन-एक्स टेक्नॉलजी लिखा होता था, जिसका मतलब है कि ये इंक सूख कर फाउंटेन पेन निब को जैम नहीं करती है. बड़े दर्जे़ के बच्चों के पास ये इंक देख तो रखी थी पर कभी इससे लिखा नहीं था. देखी क्या सूंघ भी रखी थी. क्या मदहोश करने वाली खुशबू हुआ करती थी. दुकान पर जाकर गर्व से चेलपार्क इंक मांगी गयी. दुकानदार ने पूछा, कौन-सी? ब्लू-ब्लैक या रॉयल ब्लू. दोनों नाम नये थे सो हमने दोनों का भौतिक निरीक्षण करना चाहा. दोनों इंक बाट्लस हमारे सामने रख दी गयी. देख कर हमने मन में कहा, अंग्रेजी नाम बता कर हमें फँसाना चाह रहा है. सीधे-सीधे ये नहीं कह सकता कि एक गाढ़ी नीली स्याही है और दूसरी आसमानी नीली. खैर, हमने नापंसदगी के भाव से दुकान के शोकेस पर नज़र डाली तो दुकानदार ने हमारी मनकामना ताड़ते हुए कहा और तो बस तीन कलर हैं – ब्लैक, रेड और ग्रीन. तीनों बच्चों के काम के नहीं. ब्लैक में अपनी भी दिलचस्पी नहीं थी, रेड से तो ख़तरा ही नज़र आता था पर ग्रीन क्यों नहीं. ग्रीन के नाम पर मनपसंद कलर की पैरवी मन ने करी तो हाथों ने उसकी तरफ इशारा कर लिया. दुकानदार के लिए तो सभी बेचने वाली चीजें एक-सी थी. कलर और साइज़ का सौंदर्यबोध या औचित्य समझाने से उसे कोई मतलब नहीं था. सो,  पैसे काटते हुए उसने ग्रीन चेलपार्क इंक बॉटल हमें थमा दी.

अब, वास्तव में पहली बोर्ड परीक्षा मेरे लिए महत्वपूर्ण हो गयी थी. इसलिए नहीं कि तख्ते वाली बोर्ड परीक्षा में शामिल होने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि अपनी मनपसंद रंग वाली स्याही से परीक्षा में लिखने का पहली बार मौका मिल रहा था. परीक्षा में लगभग प्रत्येक दिन कक्ष-निरीक्षक मेरे हरी स्याही से लिखने पर सवाल करते, पर मेरे आत्मविश्वास भरे उत्तर से वो चुप हो जाते. मेरा उत्तर होता – ऐसा कोई नियम नहीं है कि परीक्षार्थी हरी स्याही से नहीं लिख सकता. अधिकतर कक्ष-निरीक्षक दूसरे विद्यालयों के होते, इसलिए वो किसी तरह के विवाद या पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे. लास्ट या सेकंड लास्ट पेपर रहा होगा जब अपने ही विद्यालय के एक शिक्षक ने मुझे हरी स्याही से लिखते हुए देख लिया. उन्होंने मुझसे तो कुछ नहीं कहा, पर पिताजी से चुगली कर दी. घर पहुँचने पर मुझसे सबसे पहले वो स्याही दिखाने को कहा गया जिसका मैं परीक्षा में इस्तेमाल कर रहा था. मैंने बात को टालने के लिए कहा, चेलपार्क स्याही है. मुझे मालूम था यहाँ वो तर्क नहीं चलने वाला, जिससे मैं कक्ष-निरीक्षकों को चुप कराता आया हूँ. इसलिए जुर्म कबूलने के अंदाज़ में, आला नक़ब, हरी स्याही की दवात को पेश कर दिया. हरे रंग की स्याही देख कर पिताजी बुरी तरह भड़क गये. बोले, साल-भर की मेहनत पर तूने पानी फेर दिया है. अब पास तो होने से रहा. मेरे पास भी अगर तेरी हरी स्याही से लिखी कॉपी आये तो मैं भी कभी पास नहीं करूंगा. फेल होने का भय दिखाये जाने का मुझ पर रत्ती-भर भी असर न था. मेरी चिंता तो ये थी कि मेरी हरित क्रांति को सराहना क्यों नहीं मिल रही है और क्यों उसे हिकारत से देखा जा रहा है.

रिजल्ट का दिन आया. पिताजी और मैं दोनों बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. दोनों को हरी स्याही का अंज़ाम जानना था. नतीज़ा मेरे पक्ष में आया. मैं द्वितीय श्रेणी में पास हुआ. प्रथम श्रेणी की निरंतरता इस बार आठ नम्बरों ने रोक ली थी. गणित, अंग्र्रेजी, हिंदी, संस्कृत जैसे विषयों में प्रथम श्रेणी के ही नम्बर थे पर सामाजिक विषय में 100 में से 45 मिले. मुझे लगा कि हरी स्याही की वजह से सामाजिक विषय के शिक्षक जल-थल में भेद नहीं कर पाये होंगे. मैं खुद को समझा रहा था कि ये आठ नम्बर मेरे नहीं, हरियाली के दुश्मन हैं. इस नतीजे़ को पिताजी ने भी अपने पक्ष में माना. अपने अनुभव और शिक्षकत्व का हवाला देते हुए घोषणा की कि ये द्वितीय श्रेणी हरी स्याही का तोहफा है. मेरी इस हरित क्रांति का घरेलू मोर्चे पर असर ये रहा कि इस हरित-कांड के बाद, हर परीक्षा से पहले पिताजी मेरी स्याही और पेन चेक करने लगे थे. मैं तब भी विजयी भाव से परीक्षा में शामिल होता और सोचता क्रांति हर साल थोड़े ना होती है. आठवीं की बोर्ड परीक्षा के बाद भी चेलपार्क की दवात में काफी स्याही बच गयी थी. पिताजी और मेरी गम्भीर असहमति के बावजूद हरी स्याही का बचा रहना सुकून देता था. उस बची हुई स्याही से खूब आड़े-तिरछे रेखाचित्र बनाये गये, रफ काम किया गया. कक्षा और परीक्षा में इस्तेमाल होने के लिहाज़ से वो भले ही प्रतिबंधित हो गयी थी, फिर भी घर में मेरे हिस्से की पसंदीदा चीजों में वो ताउम्र पहले पायदान पर बनी रही.
(School Memoir Devesh Joshi)

आठवीं कक्षा में, नोबेल लॉरेट कवि पाब्लो नेरुदा और विश्वविख्यात भारतीय गणितज्ञ एस. रामानुजन से अपरिचित रहने का मलाल भी मुझे हमेशा रहेगा. हरे रंग को कलर ऑफ होप मानने व हरी स्याही से ही जगतत्प्रसिद्ध कविताएँ लिखने वाले नेरुदा और अपनी गणनाओं व तार्किक विचारों को हरी स्याही में ढालने वाले एस. रामानुजन की ये जानकारी तब मेरे बहुत काम आ सकती थी, जब मैं अपनी हरित क्रांति के मोर्चे पर चक्रव्यूह में निहत्था अभिमन्यु-सा अकेला लड़ रहा था.

असंतोष इस बात का अधिक रहा कि हरी स्याही से लिखने पर एतराज़ तो सब करते थे पर एतराज़ का कारण कोई नहीं बताता था. शिक्षक बनने के बाद मैं भी छात्रों द्वारा हरी और लाल स्याही के इस्तेमाल का विरोध करता हूँ. अंतर ये कि मेरा विरोध तार्किक होता है. मैं उन्हें समझाता भी हूँ कि हरी स्याही की लिखावट उतनी पठनीय नहीं होती है जितनी नीली या काली. ये भी कि शिक्षक मार्किंग और करेक्शन के लिए लाल स्याही का इस्तेमाल इसलिए करते हैं कि सर्वाधिक तरंगदैर्ध्य वाला रंग होने के कारण इसे देख पाना सर्वाधिक सुविधाजनक होता है. संयोग से कक्ष-निरीक्षकों को मेरे द्वारा दिया गया उत्तर भी विधिसम्मत था. कारण ये कि उस जिलास्तरीय बोर्ड द्वारा परीक्षार्थियों के हरी रोशनाई का प्रयोग न किये जाने विषयक कोई नियम निर्धारित कर, स्कूलों को अवगत कराया ही नहीं गया था. सीबीएसई, यूपी और उत्तराखण्ड बोर्ड अपने परीक्षा निर्देश में बाकायदा उल्लेख करते हैं कि परीक्षार्थी हरी/लाल रोशनाई का प्रयोग नहीं कर सकते हैं.

सरकारी कार्यालयों में भी हरे रंग की स्याही के प्रति अधिकारियों का मोह देखा जा सकता है. प्रभारी प्रधानाचार्य तक चार्ज़ लेने पर सबसे पहले जिस चीज को तलाशते हैं वो है हरी रोशनाई वाला पेन. इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक और पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक गवर्नेंस एण्ड दि स्क्लरॉसिस में 1999 की एक रोचक घटना का जिक्र किया है. वाजपेयीजी की कैबिनेट में जाने वाले किसी प्रस्ताव पर दो अधीनस्थ अधिकारियों ने हरी स्याही से नोट लिखा. कैबिनेट सचिव ने भड़कते हुए उनका स्पष्टीकरण कर दिया. जब अफसरों ने पूछा कि कौन-सा नियम उन्हें हरी स्याही के इस्तेमाल से रोकता है तो उत्तर ढूँढने में ही अठारह महीने लग गये. फाइल रक्षा मंत्रालय तक गयी पर वहाँ भी तीनों सेनाओं के अलग-अलग नियम थे. साल 2000 में सरकार ने आदेश निकाला कि संयुक्त सचिव और उसके ऊपर के अफसर रंगीन कलम का प्रयोग कर सकते हैं. 2014 में सेंट्रल सेक्रेटिएट मैनुअल ऑफ ऑफिस प्रॉसिजर में संशोधन करके सभी स्तर के अधिकारियों के हरी और लाल रोशनाई से नोट लिखने पर  प्रतिबंध लगा दिया गया. अब कोई भी अधिकारी सरकारी फाइल पर नोट लिखने के लिए नीली या काली इंक वाले पेन का ही इस्तेमाल कर सकता है.
(School Memoir Devesh Joshi)

लेख आखरी पड़ाव पर है, पर मेरी हरित क्रांति के किस्से नहीं. विवाह के बाद जब मैंने पत्नी के लिए पहला सूट गिफ्ट किया तो उसका भी रंग हरा ही था. मेरी स्वलिखित पुस्तकों के आवरण में हरा रंग अवश्य होता है और शीर्षकों का पहला अक्षर जी फॉर ग्रीन भी. अपने ग्रीन किस्सों पर एक हरी-भरी किताब लिखी जा कती है. फिलहाल, सलीम शहज़ाद के साथ एकमत होते हुए, उनके उस शेर के साथ इसे समाप्त करता हूँ जिसमें उनका आशय है कि हरे रंग का एक नुक़्ता भी काफी है अपने होने का पता बताने के लिए, खास कर ज़िंदा होने को पुख़्ता करने के लिए. 
(School Memoir Devesh Joshi)

ज़र्द पत्ते में कोई नुक़्ता-ए-सब्ज़
अपने होने का पता काफी है.

1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), शोध-पुस्तिका कैप्टन धूम सिंह चौहान और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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