Featured

वनवासियों की व्यथा- समाधान की चिंता

वनवासियों की व्यथा का यह अंतिम हिस्सा है. इस हिस्से में फरवरी माह से हुये नवीनतम घटनाक्रम वर्णित है. इस मामले में अभी भी सुप्रीम कोर्ट में कारवाई चल रही है जिसपर आगे भी लेख प्रकाशित किये जायेंगे. प्रो मृगेश पांडे द्वारा इस मामले पर लिखे लेख के सभी हिस्से यहां देखें-

वनवासियों की व्यथा
वनवासियों की व्यथा : बेदखली
वनवासियों की व्यथा : समाधान अनुत्तरित

सन 2006 में वन अधिकार कानून आया जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य वनों में रहने वाली जातियों ( वन अधिकारों को मान्यता देने) का कानून कहा गया. सन 2008 में तथाकथित पर्यावरण हितैषी फैशन परस्त एनजीओ की रिट पर 11 वर्ष के बाद 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश आया कि जिन आदिवासी- वनवासियों के दावे इस कानून के चलते राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत किए गए हैं, उन्हें दावे वाली जमीन से बेदखल कर दिया जाए. इसकी सूचना भी 12 जुलाई 2019 या उसके पूर्व सुप्रीम कोर्ट को दे दी जाए.

बेदखली से उपजे असंतोष व व्यापक जन प्रतिरोध के चलते केंद्र सरकार चेती. उसने सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख 27 फरवरी 2019 को यह आवेदन किया कि राज्य सरकारों द्वारा 11.8 लाख वन घुमंतू अनुसूचित जनजातियों (FDSTs) एवं अन्य परंपरागत वन घुमंतुओं (OTFDs) के बेदखली के आदेशों पर रोक लगाए जाने की फौरी जरूरत है.समस्या यह थी कि 16 राज्यों के वन घुमंतुओं के आवेदनों को निरस्त कर दिया था. तब 13 फरवरी 2019 को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की पीठ ने बेदखली के आदेशों पर अमल किए जाने की बात स्पष्ट कर दी थी. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र द्वारा इस मामले के ‘होलिस्टिक’ पहलुओं तथा राज्यों द्वारा प्रभावित वनवासियों की व्यथा के संज्ञान में अनुसूचित मामलों के मंत्री के प्रार्थना पत्र पर गौर किया है. जिसे न्यायमूर्ति मिश्रा व न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा के पास प्रस्तुत किया गया था. यह संवेदनशील मामला है और सुप्रीम कोर्ट से त्वरित कार्यवाही के लायक है.

फोटो : मृगेश पाण्डे

कोर्ट ने पहले इसी सामान्य तर्क को स्वीकार किया था कि यदि कब्जे वाले वनवासी का दावा राज्य सरकार द्वारा खारिज हो जाता है तो उसे तुरंत ही बेदखल कर दिया जाए.वनवासियों की बेदखली के प्रति संवेदनशीलता तो फरवरी 28 के बाद अनुभव की गई. उन कठिन परिस्थितियों का संज्ञान लिया गया जिनके कारण वनवासी आज भी अज्ञान व जागरूकता के अभाव के कुचक्र में फंसे हैं. ऐसे में मात्र कानूनी प्रक्रिया और अदालती सबूत ही नहीं बल्कि मानवीय संवेदना और प्राकृतिक न्याय के पक्ष को ध्यान में रखे बगैर उनका हित चिंतन नहीं किया जा सकता.

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना था कि वन अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में अनुसूचित जातियों एवं अन्य परंपरागत वन घुमंतुओं के दावों को ठुकरा दिया जाना बेदखली के लिए अंतिम आदेश नहीं माना जा सकता. कारण यह है कि जितने भी वनवासी प्रभावित हुए हैं वह एक तरफ अशिक्षित है तो दूसरी ओर वन अधिकारों के बारे में उन्हें क्रमवार यह जानकारी उपलब्ध नहीं है जिससे कि वह सभी स्तरों पर भरे जाने वाले अपने दावों के कागज-पत्रों व हलफनामे को सही ढंग से पेश कर सकें.

बेदखली की स्थितियां उपजने के घटनाक्रम के पीछे बहुत कुछ सरकार का उदासीन रवैया भी जिम्मेदार रहा. जिस समय प्रतिपूरक बिल संसद में पेश किया जा रहा था तब कांग्रेस पार्टी के जयराम रमेश ने उसमें वनाधिकार कानून के अंतर्गत बाध्यता को शामिल करने का प्रस्ताव रखा था. पर केंद्र सरकार ने उनके इस सुझाव को नजरअंदाज कर दिया. वर्तमान सरकार की सोच संभवतः यह भी रही कि यदि वनभूमियों पर वनवासियों को किसी प्रकार का अधिकार प्रदान कर दिया जाए तब उस वन भूमि को हस्तांतरित करना कठिन हो जाएगा. पर्दे के पीछे वनवासियों की उपेक्षा व उनके प्रति बढ़ती जा रही उदासीनता मैं कॉरपोरेट के निजी हित, संसाधनों का दोहन व उनके द्वारा ठेले जा रहे दबाव काम कर रहे थे. इनके संगी सुर्खियों में बने रहने वाले गैर सरकारी संगठन द्वारा 2008 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी गई कि जिन वनवासियों के वन अधिकार के दावे राज्य सरकार द्वारा खारिज कर दिए गए हैं वह किस आधार पर वन भूमि पर निवास कर रहे हैं. जब यह मुकदमा चला तो अचंभे की बात यह भी है कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने पहली चार सुनवाइयों में न तो वनवासियों की मूल समस्या को ध्यान में रखा और वनवासियों के हित व समर्थन की घोर उपेक्षा की गई.

फोटो : मृगेश पाण्डे

भले ही इस वनाधिकार कानून की मंशा आदिवासियों-वनवासियों के कल्याण से प्रेरित थी पर अपनी कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के साथ समाज की मुख्यधारा से उपेक्षित व सांस्कृतिक अंतराल झेल रहे ये वन पुत्र अपनी जमीन और जंगल के परिवेश में अपने तौर तरीकों से जीवन यापन करते चले आ रहे थे. औपनिवेशिक उत्पीड़न से पूर्व सारे वन समीप में निवास करने वाले जनों की सामूहिक धरोहर होते थे जिन्हें ‘विलेज कॉमनस’ कहा जाता था. ब्रिटिश शासन के वनों के व्यवसायिक दोहन हेतु कानून बनाए और उन्हें सरकारी नियंत्रण में लिया. तब से वन भूमि का अधिकार मांगने के दावों और उनके निस्तारण का घटनाक्रम चला. इस प्रक्रिया में वनवासियों की दुखती रग यह ही रही कि उनके दावों पर उचित विचार नहीं होता. इतना जरूर था कि विविध कारणों से अंग्रेजों ने आदिवासी वनों को छेड़ा नहीं. नियोजित विकास की प्रक्रिया में इस प्रकार छूट गए वनों को वादों का निस्तारण किए बिना एकबारगी ही आरक्षित वनों में सम्मिलित कर लिया गया. वनवासियों के लिए एक समस्या यह साबित करना बनी रही कि वह 75 वर्ष या 3 पीढ़ियों से वन क्षेत्र में रह गुजर कर रहे हैं. इसके लिए उन्हें अनेकानेक में एक या कई प्रमाण प्रस्तुत करने होते थे. तब नौकरशाही के जटिल मायाजाल में डूबना-उतरना उनकी भोली सोच के लिए बहुत कठिन व मायावी हो गया. उस पर शहरी वर्ग द्वारा वन वासियों के प्रति दुराग्रह और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर वन क्षेत्रों की बसासत को उजाड़ने वाले स्वयंभू पर्यावरणविदों का मकड़जाल फैलता गया जो वनों में उपलब्ध संसाधनों के दोहन द्वारा विकास की प्रक्रिया को स्वयं स्फूर्त बनाने के लिए सभी हथकंडे अपनाते आए हैं.

28 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने केंद्र सरकार के प्रति आवेदन पर विचार करने की सहमति प्रदान की. न्यायमूर्ति मिश्रा के अनुसार ऐसा कोई भी आधार जिससे अब केंद्र द्वारा प्रस्तुत किया गया है उसी राज्य संघ शासित प्रदेशों द्वारा फरवरी 13 के निर्णय के समय सामने नहीं रखा गया था.

अनुसूचित जनजाति मंत्रालय के अनुसार वह सभी राज्यों को स्पष्ट कर चुकी है कि वह वनवासियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील रहें और उनके अधिकार के बारे में उनसे सार्थक संवाद करने की पहल करें. मंत्रालय के अनुसार यह पाया गया कि उनके दावों का निस्तारण सामान्यीकरण की प्रक्रिया के अधीन कर दिया गया. इससे दावेदारों को किसी भी अवसर का लाभ प्राप्त नहीं हो पाया जो भी बेदखली के आदेश थे उनकी जानकारी भी वनवासियों को सही तरीके से नहीं दी गई. इन सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए केंद्र ने यह कहा कि 2006 का एक्ट वनवासियों के लिए एक लाभप्रद विधान है जिसे पूरी संवेदनशीलता के साथ लागू किया जाना जरूरी बन गया है.

अव सरकार की समझ में यह आ गया है कि आदिवासी वनवासी काफी निर्धन और अशिक्षित हैं तथा अपने अधिकारों की उन्हें पूरी जानकारी भी नहीं है. भले ही कागजों पर हर स्तर पर की जाने वाली अधिनियम संबंधी कार्यवाही मौजूद है पर उससे वनवासी अपरिचित हैं. सुदूर कठिन, पहुंच से दूर दुर्गम स्थलों में निवास करने वाले वनवासियों के लिए यह संभव ही नहीं बन पाया कि अपने अधिकारों के बारे में उन्हें पूरी जानकारी मिल सके. इसी समाज व अपने हक-हकूक के लिए विभिन्न स्तर पर बनी समितियों से संपर्क कर पाएं. इन पक्षों को ध्यान में रखते हुए अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से 3 फरवरी 2019 को दिए आदेश को वनवासियों का हित चिंतन करते हुए सुधार देने का निवेदन किया. साथ ही राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को यह निर्देश भी जारी किया कि वह समस्त नियत कार्यवाही का विस्तृत एफेडेविड प्रस्तुत करें. जिन वनवासियों के आवेदन निरस्त हुए हैं उनके कारणों की विस्तृत जांच-पड़ताल हो जिससे बेदखली की समस्या को सुलझाया जा सके.

अपने 13 फरवरी 2019 के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि यदि बेदखली के आदेश राज्य द्वारा अंतिम रूप से संस्तुत कर दिए गए हैं तब हम संबंधित अधिकारियों जिनमें मुख्य सचिव भी शामिल हैं, को यह निर्देशित करते हैं कि बेदखली की प्रक्रिया 24 जुलाई 2019 की अगली सुनवाई या इससे पूर्व ही संपन्न कर दी जाए. यदि बिजली की कार्यवाही सुचारू रूप से नहीं की गई तो सुप्रीम कोर्ट इस मामले को बहुत गंभीरता से लेगा.

फोटो : मृगेश पाण्डे

आदिवासियों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील संगठनों ने 26 फरवरी से 10 मार्च 2019 तक सभी प्रदेशों में बेदखली के विरुद्ध आवाज उठाई. कहा गया कि सबसे पहले तो केंद्र सरकार 13 फरवरी के आदेश को निरस्त करने के लिए प्रभावी प्रयास करे. साथ ही वनवासियों के दावे जो राज्य सरकारों द्वारा निरस्त कर दिए गए हैं उनका पुनः मूल्यांकन ग्राम सभा स्तर पर किया जाना चाहिए. किसी भी वन भूमि का स्थानांतरण ग्राम सभा की अनुमति के बगैर किया जाना संभव न बने. इसी प्रकार यह सुनिश्चित किया जाए कि ग्रामसभा की अनुमति के बिना संयुक्त वन प्रबंधन, प्रतिपूर्ति वनीकरण व वन्य निधि से संबंधित कोषों का उपयोग किया जाना संभव न हो.वन क्षेत्र के अधीन जितने भी गांव हैं उन्हें वनों के प्रबंध का अधिकार मिले तथा लघु वन उत्पादों को लाने ले जाने की पूरी छूट मिले. ऐसे अधिकारी जो वन अधिकारों का उल्लंघन कर वनवासियों-आदिवासियों के प्रति दुराग्रह रखते हैं उन पर सख्त कार्यवाही की जाए.

वनवासियों के अधिकारों की सुरक्षा और उन्हें बेदखली से बचाने के मरहम के साथ ही उन्हें कुनैन के कड़वे घूंट पिलाने की नई पटकथा भी लिखी जा रही है. 10 मार्च 2019 को केंद्र सरकार ने समस्त राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों को पत्र लिख भारतीय वन कानूनों में संशोधन करने का प्रस्ताव भेजा है. अर्थात केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय वन कानून 1927 में उलटफेर की मनःस्थिति बना रहा है. संशोधन का मसविदा सभी राज्यों की वन प्रमुखों के पास भेजा जा चुका है.

इस प्रस्ताव के अनुसार वन विभाग को अधिकार दिया जाता है कि

1. वह गोली चला सकता है और अगर वह दावा करता है कि गोली विधान का के अनुसार चलाई गई है तब उसके ऊपर कोई कार्यवाही नहीं होगी [धारा 66 (2)] अगर किसी के पास कुल्हाड़ी, दराती व अन्य और हथियार देखे गए तो उन्हें रोकने के लिए भी गोली चलाई जा सकती है.
2. किसी भी क्षेत्र को आरक्षित वन या कंजर्वेशन फॉरेस्ट घोषित किया जा सकता है और तब लोगों के उस वन में जितने भी हक है जैसे सूखी पत्तियां, जल, पशुओं के लिए चारा एवं लघु वन उपज आदि- उस सारे हक को वन विभाग कुछ भुगतान देकर खत्म कर सकता है. [ धारा 22 A ( 2), 30 (b) ]
3. गाय भैंस, भेड़ बकरियों व अन्य पशुओं को जंगल में ले जाना वन विभाग कभी भी प्रतिबंधित कर सकता है. [धारा 26( 3)]
4. वन पंचायतों को सरकार यह कहकर कि उनका प्रबंधन ठीक से नहीं किया जा रहा है, उन वन पंचायतों को भंग कर अपने कब्जे में ले सकती है. [ धारा 28(1)(g)]

प्रस्तावित वन कानून में वन कर्मियों को आत्मरक्षा में गोली चलाने का अधिकार देने की तैयारी है. संशोधन के मसविदे में यह भी कहा गया है कि यदि वनरक्षक पर हमला होता है तो वह आत्मरक्षा में गोली चला सकेगा. यह भी कहा गया है कि वन कर्मी की गोली से अगर किसी व्यक्ति की मौत होती है तो राज्य सरकार की अनुमति के बाद ही उस पर मुकदमा चलाया जा सकेगा.

यह सही है कि वन संपदा के दोहन में अपराधियों- सफेदपोशों की पूरी गिरोहबंदी है. अपार संसाधनों का बेदर्दी से विदोहन किया जा रहा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं रौखड़ बढ़ रहे हैं. दुर्लभ भेषजों के खुदान और वन्य पशुओं के अवैध शिकार में पूरा माफिया तंत्र सक्रिय है. जिनके विरुद्ध वन सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी नियत करना एक प्रभावी समाधान है. पर इस संशोधन का दुरुपयोग कितने तरीकों, षडयंत्र से वनवासियों के विरुद्ध जाएगा इसका प्रक्षेपण ऐसे ही संकेत करता है कि यह वनाधिकार कानून की भावना एवं अभी भी मुख्यधारा से कटे वनवासियों- आदिवासियों के जीने के मूल अधिकार पर कठोर प्रहार न कर दे.

फोटो : मृगेश पाण्डे

इस संशोधन के ड्राफ्ट पर 3 माह के भीतर सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और वन विशेषज्ञों से चर्चा कर सुझाव केंद्र सरकार को भेजे जाने हैं.

वन एवं पर्यावरण की महानिदेशक सिद्धार्थ दास के अनुसार वन कानून में वन संरक्षकों को अपनी सुरक्षा का अधिकार देने का प्रस्ताव है. इस मामले में सभी पक्षों की राय जानने के बाद ही आगे बढ़ा जा सकता है.

वनवासियों के प्रति आपकी संवेदनशीलता यह उम्मीद जगाती है कि समस्या के समाधान के लिए आपकी सोच-विचार-सुझाव-समिति काफल ट्री को इस धनात्मक दृष्टिकोण की संकल्पना से एकजुट करेगी कि विकास के लिए मात्र जीडीपी या प्रति व्यक्ति आय का मापदंड ही पर्याप्त नहीं बल्कि अपने परिवेश पर्यावरण व संसाधनों के प्रति जागरूकता व इनके उचित रखरखाव के हर पक्ष को जानना समझना और टटोलना ही उस लहर का सृजन करेगी जिससे हरियाली भी बनी रहेगी और वनवासी भी जल-जमीन-जंगल की सुरक्षा के लिए बनेंगे-रहेंगे प्रतिबद्ध.

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

5 days ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

6 days ago

इस बार दो दिन मनाएं दीपावली

शायद यह पहला अवसर होगा जब दीपावली दो दिन मनाई जाएगी. मंगलवार 29 अक्टूबर को…

7 days ago

गुम : रजनीश की कविता

तकलीफ़ तो बहुत हुए थी... तेरे आख़िरी अलविदा के बाद। तकलीफ़ तो बहुत हुए थी,…

1 week ago

मैं जहां-जहां चलूंगा तेरा साया साथ होगा

चाणक्य! डीएसबी राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय नैनीताल. तल्ली ताल से फांसी गधेरे की चढ़ाई चढ़, चार…

2 weeks ago

विसर्जन : रजनीश की कविता

देह तोड़ी है एक रिश्ते ने…   आख़िरी बूँद पानी का भी न दे पाया. आख़िरी…

2 weeks ago