कुछ दिनों पहले अचानक हमें अपनी बुद्धि पर फिर से तरस आने लगा. यह कोई नई बात नहीं थी. किसी मनोचिकित्सक की शरण में जाना हमने जरूरी नहीं समझा. असल में साल छह महीने में एक बार ऐसा हो ही जाता है. अगर हमारी बुद्धि का यही हाल रहा तो आगे भी कभी-कभी ऐसा होते रहने की पूरी संभावना है.
जब भी राष्ट्रीय जीवन में गहराई से घुसे हुए किसी शब्द या मुहावरे का अर्थ हमारी पकड़ में आ जाता है तो हम अपनी नादानी को कोसते हुए चुपचाप शर्मिंदा हो लेते हैं कि देखो इतनी मामूली सी बात हमारी पकड़ से दूर है. जनसेवा आमूल परिवर्तन जैसे जुमलों के अर्थ खुलते समय हमारी जो हालत हुई थी वही हालत आम आदमी का चेहरा पकड़ में आ जाने पर हुई
उस शब्दशास्त्री की मर्मज्ञता पर हमारा सिर अनायास ही श्रद्धा से झुकता चला गया जिसने पीड़ित आदमी, दुर्बल आदमी, सामान्य आदमी आदि-आदि सैकड़ों-हजारों की भीड़ में से चुने भी तो आम आदमी. जरा बढ़िया पके हुए रस से भरपूर आम आदमी की कल्पना कीजिए और तब उस आदमी की कल्पना कीजिए जिसमें राजनीतिबाजों और साहित्यसेवियों के द्वारा चूसे जाने की संभावनाएं मौजूद हों. आम आदमी का गूढ़ार्थ एक झटके में खुल पड़ेगा.
आप इस देश का राष्ट्रीय फल है. उसकी पैदाइश देश के कोने-कोने में होती है. आम आदमी भी हमारे देश की जलवायु और मिट्टी में खूब पैदा होता है. आम आदमी की ठीक-ठीक सरकारी आंकड़े अभी नहीं जुटाए गए हैं पर इतना तय है कि प्रत्येक सौ शिशुओं में पांच को छोड़कर बाकी सब आम आदमी की नस्ल के होते हैं. बगीचों की मालिक पूरी निष्ठा से इस प्रयास में लगे हैं कि आमों की नस्ल में सुधार हो. उनकी उपज में दोगुनी- चौगुनी वृद्धि हो. मोहक खुशबूदार स्वादिष्ट आमों को चूसने का मौका विदेश वालों को भी मिल सके जिससे रुपए नहीं डॉलर कमाए जा सकें.
आम आदमी के रस से साहित्य और साहित्यसेवियों का पोषण हुआ है. प्रगतिवाद के जमाने से लेकर अब तक उनके चूसे जाने के खिलाफ सैकड़ों आंदोलनों के माध्यम से टनों साहित्य उगला गया है. आम आदमी की एक-एक आंसू की कीमत वसूलने के लिए इन बुद्धिजीवियों की फौज का हर सिपाही मैदान में डटा हुआ है.
कैसी विडंबना है कि आम आदमी में आम की ही सी जड़ता का व्याप्त है.काश, वह जान पाता कि देश के लेखक- साहित्यकार के मन में उसके चूसे जाने को लेकर कितना आक्रोश है, कैसी छटपटाहट है.
कुर्सी पर बैठा हुआ और मौका मिलते ही कुर्सी पर बैठे हुए को धकिया पर कुर्सी पर बैठने के लिए आतुर राजनेता भी आम आदमी की खुराक पर जिंदा है. दोनों के बीच दांवपेच और धक्का-मुक्की का एक ही मुद्दा है : आम आदमी. एक कहता है:- अरे नरभक्षी, तूने आम का सारा रस निचोड़ कर तोंद भर ली है. मुझे भूखे पेट कुर्सी पर बैठे देखकर भी जलता है. दूसरा गुर्रा उठता है :-चुप करो. रस तो रस छिलके तक पचा चुके हो.
आम की एक और बड़ी खासियत है. ऐसे मीठे-मीठे फल और कांटा एक भी नहीं. शरीफ इतना की एक ककड़ी उछाल दी और उसने चुपके से खुद को दूसरे के मुंह में टपका दिया. निरीह ऐसा कि चूस कर गुठली फेंक दी और एक नया पेड़ हाजिर.
आम आदमी में चूसे जाने की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. अभी उसके छिलके और गुठलियों के उपयोग पर भी उच्चस्तरीय अध्ययन होना शेष है.
जब तक आम आदमी की नस्ल कायम है और जैसा कि उसका कायम रहना तय है, तब तक साहित्य और राजनीति की खेती करने वालों को कोई डर नहीं. उनके खेतों में आमों की रौनक कायम रहेगी.
( 19 फरवरी 1984 के नवभारत टाइम्स से साभार.)
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उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ में रहने वाले बसंत कुमार भट्ट सत्तर और अस्सी के दशक में राष्ट्रीय समाचारपत्रों में ऋतुराज के उपनाम से लगातार रचनाएं करते थे. उन्होंने नैनीताल के प्रतिष्ठित विद्यालय बिड़ला विद्या मंदिर में कोई चार दशक तक हिन्दी अध्यापन किया. फिलहाल सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं.
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