पिछले दरवाजे से भीतर घुसना ही हमारी संस्कृति का प्रतीक है

पिछला दरवाजा बड़ा चमत्कारी होता है. आगे के दरवाजे पर बैठा हुआ संतरी जिसे भीतर घुसने से रोक लेता है वह पिछले दरवाजे से पीछे घुस कर कुर्सी पर विराजमान हो जाता है. इसमें संतरी का कोई कसूर नहीं. उसे तो आगे के दरवाजे की चौकसी करनी है कि कोई भीतर न घुस सके. उसे मालूम है कि पीछे से घुसने वाला आदमी गैर मामूली होता है.

कोई ऐसी जगह नहीं जहां यह दरवाजा न पाया जाता हो. परचून की दुकान हो या पब्लिक स्कूल, सरकारी दफ्तर हो या संसद भवन,क्रिकेट का खेल हो या तिहाड़ जेल – पुरुषार्थी किस्म के लोग पिछले दरवाजे से आवागमन कर लेते हैं. इसी दरवाजे की कृपा से बाजार में दुर्लभ वास्तु थोड़ी सी अधिक कीमत पर आसानी से मिल जाती है. इसी की अनुकम्पा से क्रिकेट टीम को सभी परियों में शून्य पर आउट होने का रिकार्ड बनाने वाले महान बल्लेबाज प्राप्त होते हैं. इसी के प्रताप से जेल कि सलाखों के पीछे बैठे तस्कर सम्राट तरमाल उड़ाते हैं.

बाप राजनीति में लगा हुआ है तो भागदौड़ करता है कि किसी पिछले दरवाजे से बेटे को भी खींच लो अंदर. इस खींचतान में कभी –कभार बाप के राजनीतिक करियर को कुछ खरोंचे भी लग जाती हैं. पर इस अखाड़े के पहलवान इन खरोचों की कोई परवाह नहीं करते. साहित्य के क्षेत्र में भी पिछले दरवाजे से घुसे हुए कई महारथी खुब नाम और नामा पैदा कर चुके हैं.

प्राइवेट सैक्टर में बने हुए पिछले दरवाजों का राष्ट्रीयकरण कर दिया तो सरकार की वित्तीय समस्यायों का चुटकी बजाते सामधान हो सकता है. अगले दरवाजों पर ताले लगवा दिये जाए. पिछले दरवाजों पर सरकार अपना कोई कर्मचारी तैनात कर डे जो उचित दर पर भीतर घुसने का टिकट फाड़-फाड़ कर हरेक के हाथ में पकड़ाता चले.

जहां, एक दिन कितना सुखद होगा जब हम अपनी संस्कृति परम्पराओं में एक नई परम्परा जोड़ कर दुनिया भर में कहते फिरेंगे कि हम उस देश के वासी हैं जहां अगले दरवाजे से कोई भी भीतर घुसने की हिमाकत नहीं करता क्योंकि पिछले दरवाजे से भीतर घुसना ही हमारी संस्कृति का प्रतीक है.

( 27 मार्च 1984 के नवभारत टाइम्स से साभार.)

वाट्सएप में काफल ट्री की पोस्ट पाने के लिये यहाँ क्लिक करें. वाट्सएप काफल ट्री

 

उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ में रहने वाले बसंत कुमार भट्ट सत्तर और अस्सी के दशक में राष्ट्रीय समाचारपत्रों में ऋतुराज के उपनाम से लगातार रचनाएं करते थे. उन्होंने नैनीताल के प्रतिष्ठित विद्यालय बिड़ला विद्या मंदिर में कोई चार दशक तक हिन्दी अध्यापन किया. फिलहाल सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago