काली नदी में सबसे ज्यादा जलीय योगदान करने वाली सरमूल से निकलने वाली सरयू और डेबरा श्रेणी भटकोट से निकलने वाली गोमती नदी बागेश्वर में सरयू के रूप में एकाकार हो जाती है. बागेश्वर से कपकोट की तरफ लगभग 3 किलोमीटर बालीघट तक घाटी में सरयू के समानान्तर चलते हुए हम कपकोट मोटर सड़क छोड़ दाई तरफ की सड़क पर चलने लगते हैं जो तल्ला दानपुर की ओर से गुजरते हुए कोटमन्या चौराहे पर मिलती है. बालीघाट से सनेती तक कि दूरी लगभग 40 किलोमीटर है. इस संकरी घाटी में सरयू का सहायक पुंगर गधेरा है जो बालीघाट में सरयू में मिल जाता है. मध्य हिमालय के इन इलाकों में होराली, तुपेड़, दूबेगाड़, दोफाड़, बनलेख, उडियार, काफली जैसे कई गांव पड़ते हैं.
(Saneti Mela Bageshwar)
बहरहाल हम नाकुरी पट्टी में स्थित रीमा इलाके में पहुँचते हैं. असल में यह पूरा इलाका नागभूमि है जिसे नागपुरी क्षेत्र कहा जाता था लेकिन नागपुरी शब्द बदलते बदलते भ्रंस होकर आज नाकुरी हो गया. नाकुरी क्षेत्र के ऊपरी हिस्सों में अर्धचंद्राकार आकृति में नाग मंदिर स्थित हैं. उत्तर में हरनाग, दक्षिण में फेणीनाग, दक्षिण पश्चिम में धौलिनाग और बासुकी नाग तथा पूर्व में कालीनाग स्थित हैं. इस पूरे क्षेत्र में तीन मंदिरों का विशेष महत्व है. शिखर जहां मुरैण स्थित हैं, भनार जहां बंजैण और सनगाड़ जहां नौलिंग विराजते हैं और चौथा सनेती की माँ नंदा.
नाकुरी पट्टी में घाटी का इलाका गर्म और ऊपर डान – कानों के क्षेत्र ठंडा है. तराई वाले क्षेत्रों में धान की अच्छी फसल देखने को मिलती है तो पूरे इलाके में सामान्यतः मडुवा मादिरा गेहूँ माल्टा खुमानी अखरोट वगैरह वगैरह.
अस्सी के दशक से इस क्षेत्र में खड़िया की खानें खुदनी शुरू हुई जो आज बड़े क्षेत्र में फैल चुकी हैं. ग्राम कुरोली के श्री खुशाल सिंह भौर्याल बताते हैं कि खड़िया ने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से यहां के लोगों को रोजगार दिया है इसलिये पलायन तुलनात्मक रूप से कम है. ढुलाई , घोड़ा -खच्चर से लेकर ट्रक-डम्फर और जमीन की लीज तक पूरे इलाके के परिवार रोजी के लिए खड़िया उद्योग में लगे हुए हैं. रोजगार के बावजूद खड़िया निकालने के लिए जिस गहराई और लंबे क्षेत्र तक गड्ढे खोदे जा रहे हैं वे प्रश्न उतपन्न करते हैं कि सालों से जिन सीढ़ीदार खेतों में फसलें उगी और उनपर पलकर पीढ़ियां बड़ी हुई वे खेत खड़िया खानों से निकलने वाले मलवे से बर्बाद हो जाने के बाद क्या होगा. खड़िया तो एक दिन खत्म हो ही जाएगी साथ ही खत्म हो जाएंगे पालनहार खेत. मुझे नहीं पता कि खड़िया उत्खनन के लिए खोदे गए गहरे गड्ढे, नवीन वलित हिमालय में क्या भूगर्भित परिवर्तन करेंगे. दूर से नजर आती हरी-भरी घाटी के बीच बीच में खुदे हुए सफेद मिट्टी के ढेर आंखों को अखरने लगते हैं.
खैर इस क्षेत्र की पहचान है सनेती मेला. सनेती मेले में गाये जाने वाले मौलिक चाँचरी गीत. सयाने कहते हैं कि ये पूरा इलाका चाँचरी की मौलिक भूमि है. हर घर के बुजुर्ग के पास चाँचरी के कई किस्से कहानियाँ हैं. दिल में रंग लिए इन बुजुर्गों के कारण ही क्षेत्र को रंगीली नाकुरी भी कह दिया जाता है. रीमा क्षेत्र के जनमानस में माँ नंदा रची बसी है. भादो माह की द्वादशी को माँ नंदा की प्रतिमा बनाई जाती है और त्रयोदशी को विसर्जन होता है. द्वादशी के दिन पैय्या पाती और कदली वृक्ष से प्रतिमा का निर्माण किया जाता है जिसे बाफिला गांव के लोगों द्वारा लाया जाता है. वस्त्र श्रृंगार का जिम्मा रैखोला गांववासी तथा आभूषण और मुकुट कुरोली के ग्रामीण जन लाते हैं.
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इस तरह सामूहिक भावना से मूर्ति निर्मित की जाती है. मूर्ति प्रतिष्ठा रैखोला गांव के पुजारी यानी धामी द्वारा की जाती है. द्वादशी की रात 7 गांवों से गाजे बाजे के साथ 7 दल माँ नंदा के लिए भेंट-पखोव लाते हैं, जिन्हें ‘आर’ कहा जाता है. ये गांव हैं कुरोली, बाफिला, उडियार, स्यूनी, किढ़ई, सनगाड़ और बास्ती. सात गांवों के लोग जब भंकोरा झांझर ढोल नगाडों के साथ गाते बजाते नाचते हुए आते हैं तो पूरा नाकुरी क्षेत्र नंदा माई के जयकारों से गुंजयमान हो जाता है. माँ को भेंट अर्पित कर मंदिर की परिक्रमा की जाती है. ढोल की थाप पर बरमुं यानी लोकगाथा गाने वाला मुख्य ढोलवादक नंदा की गाथा गाते हुए मौजूद जनमानस में उत्साहपूर्ण भक्ति उत्पन्न कर देता है. इन्हीं पलों में कई लोगों में देवी और देवता अवतरित होते हैं. रात के तीसरे पहर अवतरित देवी बभूति लगाकर जिन लोगों को चुनती है वे लोग नंदा माई के डोले को पहाड़ के ऐसे शीर्ष पर ले जाते हैं जहाँ से श्वेत धवल हिमालय दिखते हैं. असल में नंदा हिमालय के लोगों की बेटी या बहन मानी गयी हैं जिनका मायका मध्य हिमालय में है. भादो के महीने में नंदा को उनके ससुराल यानी शिव के घर महान हिमालय की ओर विदा किया जाता है. गढ़वाल कुमाऊं के तमाम इलाकों में इन दिनों इस परंपरा का निर्वाहन करते देखा जा सकता है.
डोले को हिमालय दर्शन कराने के बाद अगली प्रथा के रूप में हल के नुकीले हिस्से निसुड़ से वढ़ भेटने की रस्म अदा की जाती है यानि रैखोला, बाफिला, कुरोली के सयाने सामूहिक समझ से यह निर्धारित करते हैं कि गाँवों का सीमांकन भी इस बार ऐसा ही होगा जैसा विधिवत चला आ रहा है. इसी दौरान द्वादशी के सारी रात हौंसिया लोग चाँचरी की लय में मानों खो से जाते हैं. चाँचरी में मगन हो जाने का एक किस्सा बड़ा मार्मिक है. एक बार किसी समय में कोई स्त्री पीठ में धोती से बांधकर अपने नवजात शिशु को लायी थी. रात को कौतिक में लगी चांचरी की लय में उसके मन का इस कदर विलय हो गया कि सारी रात कब गुजरी पता ही नहीं लगा. सुबह सूरज की पहली किरण पर होश आया तो शिशु को देखने लगी लेकिन तब तक वह नवजात शिशु साँसें छोड़ चुका था. ऐसी चांचरी है रंगीली नाकुरी की.
चाँचरी असल में अल्मोड़ा और आस पास के इलाकों में झोड़ा ही ही. हां लय और कदमों को रखने के वेग में भिन्न है. नाकुरी की सनेती में गाई जाने वाली चांचरी में बैर भगनौल की तरह राइम के मीटर में रहते हुए सवाल जवाब की अनूठी परंपरा देखने को मिलती है. बहरहाल द्वादशी की रात बीत गयी पर चाँचरी दर्जनों हुडकों की थाप पर निरंतर चल रही है. त्रयोदशी कि सुबह दूर दूर के इलाकों से आए लोग नहा धोकर मेले में प्रतिभाग करते हैं. मल्लादेश यानि फरसाली, नरगड़ा, गुलेर से लेकर नीचे घाटियों की तरफ चौंरा, होराली, दोफाड़ तक के लोग मेले में मौजूद हैं. सड़क मार्ग आने के बाद देश के अन्य हिस्सों में रह रहे स्थानीय लोग और संस्कृति प्रेमी भी पहुचते हैं. इस मेले का आकर्षण इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि यह हर तीसरे वर्ष यानी 2021 के बाद सनेती का मेला 2023 में होगा.
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द्वादशी के दिन मंदिर प्रांगण से नीचे के मैदान में दुकानें लगती है. दूर दूर के व्यपारी वस्त्र, अभूषण, खेती के औजार, लोहा लक्कड़ से लेकर दैनिक उपयोग की ढेरों सामग्रियां बेचने आते हैं. ऊपर से देखने पर मैदान की भीड़ लोगों का छोटा सा सागर जैसा लगती है. इस तरह धार्मिक स्वरूप के साथ मेले का व्यपारिक स्वरूप भी संलग्न है. मैदान में इतनी भीड़ होती है कि चांचरी के घेरे बड़े और जगह कम होने लगती है इसलिए एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चांचरी की कदमताल की जाती है. चांचरी के इस स्वरूप को ही ‘भीड़च्याप चांचरी’ कहा गया है. लाउडस्पीकर की आधुनिक बीमारी ने चांचरी की मधुर आवाज को दबा दिया है लेकिन नाकुरी पट्टी के रंगीले लोगों को जैसे फर्क ही नहीं पड़ता. स्थानीय नेताओं से लेकर सरकारी अधिकारी मंच पर तशरीफ़ जमाये हों पर मेले का रस चांचरी के घेरों के बीच हुड़के की थाप पर उपस्थित चांचरी के बोलों में है.
स्थानीय सेवानिवृत्त फौजी और शिक्षक दीवान सिंह भौर्याल कहते हैं कि व्हाट्सएप्प स्टेटस में चांचरी का वीडियो लगाकर संस्कृति नहीं बच सकती. ज़रूरी है कि इसे आत्मसात किया जाए. उनकी चिंता स्वाभाविक है क्योंकि चांचरी में पाँच प्रतिशत भी युवा नवयुवक या युवतियां नहीं दिखते बल्कि पुराने बुजुर्ग पुरूष और महिलाएं ही इस विधा को निभाते दिखते हैं लेकिन स्थानीय युवक भास्कर भौर्याल के कांधे पर टंगा हुड़का जेब में बिंणाई और पुरानी चांचरी के बोलों के प्रति आकर्षण चांचरी के भविष्य के प्रति आस्वस्त करता है.
ये वक़्त ठीक आस्विन यानि असौज माह के पहले का है. खेतों में फसलें पक चुकी हैं ढालों में फैली घास को समेटने का कमरतोड़ वक़्त आ चुका है. इससे पहले ही लोग उत्सव के इन मधुर पलों में डूबे रहते हैं. त्रयोदशी की शाम चांचरी गाते खरीददारी करते एक दूसरे की कुशल-क्षेम पूछते और नंदा माई को विसर्जित करते उदास मन से भर जाते हैं.
(Saneti Mela Bageshwar)
नंदा माई बेटी और बहन के रुप मे मायके आकर लोगों को एकत्रिक होकर उत्सव के पल देकर विदा होती हैं इसलिए भावुक होना लाजमी है. देर शान डूब चूके सूरज के बाद हल्के अंधेरे में खेतों के बीच पगडंडियों से लौटते हुए मन से चांचरी के बोलों के रूप में यही दुवाएं करते हैं –
भिना खैमर की पाई
भिना सबुं की सुफल होए सनेती की माई.
स्यायी नस्यूडी को शाल
स्यायी जो भागी भेटनै रौलो हगिल को साल.
उम्मीद और आकांशा यही है कि भौतिक उन्नति के साथ हमारी लोकाभिव्यक्ति भी और अधिक उर्वरा हो. रूढ़िगत खरपतवार को तहस नहस करते हुए. विदाई और आशीष के बोल गुनगुनाते हुए कुरोली की लछमा देवी, हेमंती देवी, बिसला देवी, देबुली देवी भरे मन के साथ घर को लौट रही हैं. इस तरह नंदा माई को विदा कर लोग फिर से रात के अंधेरों में दूर दूर के घरों से आती हुई जुगनुओं जैसी रोशनियों में लौट आते हैं. गांंव के सबसे ऊंचाई के तोक पैराड़ी की जैतुली देवी पुराने समय को याद करते हुए गुनगुनाती हैं –
मांछी को रगत
नै उसा मनिख रैया, नै उसौ बखत!
अल्मोड़ा के रहने वाले नीरज भट्ट घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं. वर्तमान में आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं.
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बहुत बढ़िया आलेख